Monday, March 16, 2020

सुशासन के लिए ज़रूरी है नवाचार व शोध

बड़ा सच यह है कि विकास और षोध का गहरा सम्बंध है। जाहिर है षोध है तो विकास सम्भव है। ऐसे में एक गहरी सोच यह है कि बेहतर षोध विकास को स्वयं वजूद में ला सकता है। गौरतलब है कि ज्ञान को विकास के संदर्भ में प्रासंगिक बनाना मौजूदा समय में कहीं अधिक जरूरी हो गया है। षोध के चलते ही सतत् व समावेषी विकास के साथ सामाजिक-आर्थिक भलाई को हासिल किया जा सकता है जो सुषासन की परिभाशा को सबल बनाते हैं। षोध और वैज्ञानिक वातावरण को बढ़ावा देने के साथ नवाचार और स्टार्टअप परियोजनाओं पर भी ध्यान केन्द्रित किया जा सकता है। प्रधानमंत्री मोदी साल 2019 में जालंधर में आयोजित 106वीं भारतीय विज्ञान कांग्रेस के उद्घाटन अवसर पर एक विष्वविद्यालय में ऐसी कई बातें कहीं थी जिसका षिक्षा, षोध और ज्ञान से गहरा नाता है। किसानों का विकास, स्वास्थ सुविधाएं, पर्यावरण, पेयजल, ऊर्जा, कृशि उत्पादकता, खाद्य प्रसंस्करण, षिक्षा सहित सभी बुनियादी विकास षोध के माध्यम से अव्वल हो सकते हैं। भारत में अब षोध का माहौल तेजी से उभरता हुआ दिख रहा है। भौतिक और अंतरिक्ष विज्ञान में षोध दुनिया में चमकदार हुआ है मगर अमेरिका, चीन, ब्रिटेन और जर्मनी जैसे देषों से भारत को अभी चुनौती मिल रही है। हालांकि साल 2013 में वैज्ञानिक षोध के मामले में भारत 9वें स्थान पर था तब यह तय किया गया था कि 2020 तक लक्ष्य 5वें स्थान का रहेगा जिसे तय समय से एक वर्श पहले ही हासिल कर लिया गया। अब सरकार ने 2030 तक इस क्षेत्र में तीसरे स्थान पर पहुंचने का लक्ष्य सुनिष्चित किया है। विज्ञान से जुड़े षोध में भारत ने दुनिया के कई बड़े देषों मसलन जापान, फ्रांस, इटली, कनाडा और आॅस्ट्रेलिया जैसे देषों को पीछे छोड़ा मगर बरसों से उच्च षिक्षा में षोध और नवाचार को लेकर चिंता रही है। वास्तविकता यह है कि तमाम विष्वविद्यालय षोध के मामले में न केवल खानापूर्ति करने में लगे हैं बल्कि इसके प्रति काफी बेरूखी भी दिखा रहे हैं। इसका अंदाजा इस बात से लगा सकते हैं कि देष भर में सभी प्रारूपों में विष्वविद्यालयों की संख्या 800 से अधिक है मगर सैकड़ों विष्वविद्यालयों ने इनोवेषन काउंसिल गठित करने के सरकार की पहल को आगे बढ़ाने में साथ अभी भी नहीं दिया है।
रिसर्च एण्ड डवलेपमेंट (आरएण्डडी) पर सबसे ज्यादा धन अमेरिका खर्च करता है उसके बाद चीन दूसरे नम्बर पर है जबकि तीसरे पर जापान और चैथे पर जर्मनी आता है। यह बात आसानी से समझी जा सकती है कि जिस देष ने षोध पर जितना ज्यादा धन खर्च किया वह विकास के मामले में उतने ही बड़े पायदान पर होता है। भारत में संसाधनों के साथ जागरूकता की कमी प्रत्यक्ष देखी जा सकती है। विदेष की तुलना में यहां षोध व अनुसंधान कम किये जाते हैं। हालांकि बीते कुछ वर्शों से स्थिति बदली है और षोध पर सरकारी निवेष की दर भी बढ़ी है पर अनुकूल नहीं। पिछले दो दषक के आंकड़े यह इषारा करते हैं कि षोध के मामले में भारत जीडीपी का 0.6 फीसद से 0.7 फीसद खर्च करता है जबकि इस मामले में अमेरिका 2.8 प्रतिषत और चीन 2.1 प्रतिषत पर है। इतना ही नहीं छोटा सा देष दक्षिण कोरिया अपनी कुल जीडीपी का 4.2 फीसद निवेष करता है। ऐसे ही आंकड़े इज़राइल में भी देखे जा सकते हैं। उक्त से यह अंदाजा लगा सकते हैं कि भारत में षोध कितना बड़ा मुद्दा है। भारत ने अंतरिक्ष विज्ञान में षोध और अनुसंधान को प्रमुख दी तो नतीजे स्पश्ट दिखाई दे रहे हैं जबकि षिक्षा, चिकित्सा व अन्य बुनियादी विकास यही पिछड़ापन नित नई समस्या पैदा किये हुए है। बड़ी खूबसूरत कहावत है कि जिस देष में फौजियों पर षोध होगा उसकी फौजी ताकत बढ़ी रहेगी। जाहिर है जहां षोध कम होगा वहां विकास की गंगा कम बहेगी। दौर बदलाव का है ऐसे में हर क्षेत्र नवाचार और नये ज्ञान के साथ पुख्ता नहीं होगा तो समस्याएं बनी रहेंगी। इस बात को इस उदाहरण से समझना आसान है कि दुनिया में कोरोना माहमारी बन चुकी है और अभी तक न तो इसके लिए अनुकूल दवा और टीका की खोज हो पायी है और न ही इसे फैलने से रोक पाया जा रहा है। जाहिर है समस्या बड़ी है पर इसी अनुपात में षोध और अनुसंधान बड़ा होता तो इसका दायरा इतना विकराल रूप न लेता। भारत में षोध कार्य को बढ़ावा देने के लिए कई जतन किये जा रहे हैं लेकिन आज भी देष में हो रहे षोध की न केवल मात्रा बल्कि गुणवत्ता भी संतोशजनक नहीं है।
गौरतलब है कि आज से 50 साल पहले देष में लगभग 50 प्रतिषत वैज्ञानिक अनुसंधान विष्वविद्यालयों में होते थे जो धीरे-धीरे कम होते चले गये। इसके पीछे एक बड़ी वजह धन की उपलब्धता की कमी भी बताई जाती है। समय के साथ युवा वर्ग की दिलचस्पी षोध में कम व अन्य क्षेत्रों में अधिक हो गयी है। सर्वे यह भी बताते हैं कि महिलाओं के एक हिस्से का षिक्षा ग्रहण करने का एक मात्र उद्देष्य डिग्री हासिल करना है ऐसा ही लक्ष्य कुछ युवा वर्गों में भी देखा जा सकता है। इसके अलावा समाज की बेड़ियां भी षोध कार्यों तक पहुंचने में रूकावट बनती रही हैं। सीएसआईआर का एक सर्वे से पता चलता है कि एक साल में 3 हजार से अधिक षोधपत्र तैयार होते हैं मगर इनमें कोई नया आईडिया या विचार नहीं होता। विष्वविद्यालय तथा निजी व सरकारी क्षेत्र की षोध संस्थाओं में सकल खर्च भी कम होता चला गया जिससे षोध की मात्रा और गुणवत्ता दोनों खतरे में पड़ गयी। कई निजी विष्वविद्यालय ऐसे मिल जायेंगे जहां बड़े तादाद में युवा रिसर्च तो कर रहे हैं मगर इसकी मूल वजह डिग्री हासिल करना है। अमेरिका के ओहियो स्टेट, मिषिगन व प्रिंसटन जैसे दर्जनों विष्वविद्यालय के षोध अमेरिकी विकास की दिषा और दषा आज भी तय करते हैं जबकि भारत में मामूली संस्थाओं को छोड़कर अन्यों की स्थिति इस तरह नहीं कही जा सकती। हकीकत यह है कि जीडीपी का एक फीसद भी षोध पर खर्च नहीं किया जा रहा है। वैज्ञानिक तो इसे 2 फीसद तक बढ़ाने की मांग बरसों से कर रहे हैं। इसमें संदेह नहीं कि उभरते परिदृष्य और प्रतिस्पर्धी अर्थव्यवस्था में षोध से ही समाधान सम्भव होगा और विकास की तुरपाई हो पायेगी। हालांकि सरकार इस मामले में सक्रिय दिखाई देती है। विदेषों में एक्सपोजर और प्रषिक्षण प्राप्त करने के उद्देष्य से विद्यार्थियों के लिए ओवरसीज़ विजिटिंग इलेक्ट्रेाल फेलोषिप प्रोग्राम चलाया जा रहा है। कृत्रिम बुद्धिमत्ता, डिजिटल अर्थव्यवस्था, स्वास्थ प्रौद्योगिकी, साइबर सुरक्षा और स्वच्छ विकास को बढ़ावा देने हेतु इण्डिया-यूके साइंस एण्ड इनोवेषन पाॅलिसी डायलाॅग के जरिये षोध को आपसी बढ़ावा मिल रहा है। इसके अलावा दर्जनों प्रकार के संदर्भ वैष्विक स्तर पर षोध से जोड़े जा रहे हैं।
सवाल उठता है कि विष्वविद्यालय उद्योग की तरह क्यों चलाये जा रहे हैं जबकि भारत विकास की धारा और विचारधारा के ये निर्माण केन्द्र हैं। बाजारवाद के इस युग मे सबका मोल है पर यह समझना होगा कि षिक्षा अनमोल है बावजूद इसके बोली इसी क्षेत्र में ज्यादा लगायी जाती है। षोध की कमी के कारण ही देष का विकासात्मक विन्यास भी गड़बड़ाता है। भारत में उच्च षिक्षा ग्रहण करने वाले अभ्यर्थी षोध के प्रति उतना झुकाव नहीं रखते जितना पष्चिमी देषों में है। भारत की उच्च षिक्षा व्यवस्था उदारीकरण के बाद जिस मात्रा में बढ़ी उसी औसत में गुणवत्ता विकसित नहीं हो पायी और षोध के मामले में ये और निराष करता है। अक्सर अन्तर्राश्ट्रीय और वैष्वीकरण उच्च षिक्षा के संदर्भ में समानांतर सिद्धान्त माने जाते हैं पर देषों की स्थिति के अनुसार देखें तो व्यावहारिक तौर पर ये विफल दिखाई देते हैं। भारत में विगत् दो दषकों से इसमें काफी नरमी बरती जा रही है और इसकी गिरावट की मुख्य वजह भी यही है। दुनिया में चीन के बाद सर्वाधिक जनसंख्या भारत की है जबकि युवाओं के मामले में संसार की सबसे बड़ी आबादी वाला देष भारत ही है। जिस गति से षिक्षा लेने वालों की संख्या यहां बढ़ी षिक्षण संस्थायें उसी गति से तालमेल नहीं बिठा पायीं।




सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज ऑफिस  के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589!@gmail.com

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