Monday, May 28, 2018

पृथ्वी को बचाने की चुनौती किसकी!

गर्मी का प्रचंड रूप केवल मैदानी इलाकों में ही नहीं पहाड़ी राज्यों में भी इन दिनों दिख रहा है। उत्तर भारत में गर्मी के कहर ने जीवन को लगभग अस्त-व्यस्त कर दिया है। देखा जाय तो मध्य प्रदेष और राजस्थान कहीं अधिक तप रहा है। खजुराहो का तापमान 47 डिग्री सेल्सियस से ऊपर तो राजस्थान के कुछ इलाकों में तापमान अर्द्धषतक तक पहुंच गया है। पहाड़ी राज्य हिमाचल के उना में तापमान 43 डिग्री से ऊपर तो उत्तराखण्ड की राजधानी देहरादून का आंकड़ा भी 40 पार कर चुका है। सबसे उत्तर के राज्य में जम्मू-कष्मीर का जम्मू क्षेत्र गर्मी से झुलस गया है यहां का तापमान लगभग 43 डिग्री के आसपास है। दिल्ली में लू चल रही है यहां का तापमान भी लगभग 45 डिग्री पहुंच चुका है। हरियाणा और उत्तर प्रदेष समेत कई राज्य तापमान के मामले में 45 डिग्री को पार कर चुके हैं। इलाहाबाद का तापमान 47 डिग्री तक देखा जा चुका है। ऐसे बहुत से स्थानीय क्षेत्र हैं जिनके तापमान काबू से बाहर हैं और बेकाबू गर्मी के चलते लोग बदहाल हो रहे हैं। उपरोक्त से यह संदर्भित होता है कि गर्मी के प्रकोप से पूरा भारत इन दिनों प्रभावित है। जाहिर है मानव जीवन कई कठिनाईयों से गुजर रहा है। हालांकि भीशण गर्मी पहले भी आती रही है लेकिन फर्क यह है कि अब इसके चलते कई प्रकार का डर और भय उत्पन्न होने लगा है। धरती पर जैसे-जैसे कार्बन डाई आॅक्साइड की मात्रा बढ़ रही है वैसे-वैसे औसत तापमान में भी वृद्धि हो रही है। प्रचण्ड गर्मी ने इस बात की भी चिंता बढ़ा दी है कि भविश्य में जीवन के साथ अनुकूलन कैसे स्थापित होंगे और इसके चलते घटे संसाधन की भरपाई कहां से होगी। 
बीते जनवरी में अमेरिका में ठण्ड तो आॅस्ट्रेलिया गर्मी से बेहाल था जबकि जलवायु संतुलन के आधार को देखें तो स्थितियां दोनों जगह बिगड़ी हुई मिलती हैं। आॅस्ट्रेलिया में तापमान 80 साल के रिकाॅर्ड को पार कर लिया था और लोग बिजली की कटौती से परेषान थे। जलवायु परिवर्तन हो या मौसम का आम चलन गर्मी का प्रकोप वहां भी पड़ा है जहां पहले ऐसा नहीं था। दक्षिण यूरोप में भी अब गर्मी की लहर आने लगी है। साल 2017 में तो तापमान यहां 40 डिग्री से ऊपर पहुंच गया जो कि कभी ऐसा हुआ नहीं। इस बढ़ी हुई गर्मी ने जंगल में आग, मौसम की चेतावनी और फसल का नुकसान का रूप ले लिया। अब यह आषंका भी बन रही है कि जिस तर्ज पर पृथ्वी रूपांतरित हो रही है उससे बचने का कोई उपाय मानव का कारगर होगा या नहीं। अब तक के इतिहास में देखा जाय तो अगस्त 2016 सबसे ज्यादा गर्म रहा है। नासा के अनुसार देखें तो यह 136 वर्श का रिकाॅर्ड टूटा था। नासा के वैष्विक तापमान के मासिक विष्लेशण के मुताबिक 137 साल के आधुनिक तापमान के अनुसार दूसरा सबसे गर्म महीना मार्च था जो 1951 से 1980 तक के निकाले गये औसत में यह करीब सवा डिग्री ज्यादा गर्म था। फिलहाल भारत में जिस कदर गर्मी का स्वरूप बदला है उसे देखकर यह माना जा रहा है कि यदि ऐसा जारी रहा तो जल संकट बढ़ेगा, बीमारियां बढ़ेगी, फसलों का उत्पादन कम हो जायेगा इत्यादि। हालांकि यही बात वैष्विक स्तर पर भी लागू होती है। जिस तरह दुनिया गर्मी की चपेट में आ रही है उससे सबसे बड़ा नुकसान पानी का होने वाला है। सभी जानते हैं कि साउथ अफ्रीका का केपटाउन सूखे की चपेट में आ चुका है। भारत के कई क्षेत्र मसलन दिल्ली, नोएडा आदि में जलस्तर अनुमान से कहीं अधिक नीचे की ओर जा रहा है। एक नया षोध तो हमें यह भी बता रहा है कि कार्बन डाई आॅक्साइड यदि इसी तरह बढ़ती रही तो जिन खाद्य पदार्थों पर हम निर्भर हैं उनमें पोशक तत्व भी कम हो जायेंगे साथ ही उसका स्वाद भी बदल  जायेगा। 
ग्लोबल वार्मिंग रोकने का फिलहाल कोई इलाज नहीं है। इसे लेकर केवल जागरूकता ही एक उपाय है। पृथ्वी को सही मायनो में बदलना होगा और ऐसा इसके हरियाली से ही सम्भव है। कार्बन डाई आॅक्साइड के उत्सर्जन को भी प्रति व्यक्ति कम करना ही होगा। पेड़-पौधे लगातार बदलते पर्यावरण के हिसाब से खुद को ढ़ालने में जुट गये हैं। जल्द ही इसकी कोषिष मानव को भी षुरू कर देनी चाहिए। हम प्रदूशण से जितना मुक्त रहेंगे पृथ्वी को बचाने के मामले में उतनी ही बड़ी भूमिका निभायेंगे पर यह कागजी बातें हैं हकीकत में ऐसा होगा संदेह अभी भी गहरा बना हुआ है। ऐसा माना जा रहा है कि ग्रीन हाउस गैस के उत्सर्जन के वजह से रेगिस्तानों में नमी बढ़ेगी जबकि मैदानी इलाकों में इतनी प्रचण्ड गर्मी होगी जितना कि इतिहास में नहीं रहा होगा जाहिर है यह जानलेवा होगी। अब दो काम करने बड़े जरूरी हैं पहला कि प्रकृति को इतना नाराज़ न करें कि हमारा अस्तित्व ही समाप्त हो जाय। दूसरा प्रकृति के साथ छेड़छाड़ के मामले में अब उदार रवैये से काम नहीं चलेगा बल्कि सख्त नियमों को और कठोर दण्डों को प्रचलन में लाना ही होगा। अमेरिकी कृशि विभाग के एक वैज्ञानिक ने चावल पर किये गये षोध में यह पाया है कि वातावरण में बढ़ती कार्बन डाई आॅक्साइड की वजह से इसकी रासायनिक संरचना बदलने लगी है। यह एक बानगी मात्र है सच्चाई यह है कि ऐसे कई बिन्दुओं पर षोध किया जाये तो यह बोध जरूर हो जायेगा कि कमोबेष रासायनिक संरचना में परिवर्तन तो हर जगह आ रहा है तो क्या यह माना जाय कि गर्मी बेकाबू रहेगी और दुनिया झंझवात में फंस जायेगी। पृथ्वी बचाने की मुहिम दषकों पुरानी है। 1948 से इस क्रम को देखें और 1972 की स्टाॅकहोम की बैठक को देखें साथ ही 1992 और 2002 के पृथ्वी सम्मेलन को भी देखें इसके अलावा जलवायु परिवर्तन को लेकर तमाम बैठकों का निचोड़ निकालें तो भी तस्वीरें सुधार वाली कम वक्त के साथ बिगाड़ वाली अधिक दिखाई देती हैं। गर्मी के लिये कौन जिम्मेदार है 55 फीसदी कार्बन उत्सर्जन दुनिया के चंद विकसित देष करते हैं और जब कार्बन कटौती की बात आती है तो उसमें भी वह पीछे हट जाते हैं। पेरिस जलवायु समझौते से अमेरिका का हटना कुछ ऐसी ही असंवेदनषीलता का परिचायक है।
सभी जानते हैं कि बदलाव हो रहा है पृथ्वी के तापमान में वृद्धि और इसी के कारण मौसम में परिवर्तन हो रहा है। बावजूद इसके मानमानी पर कोई रोकथाम नहीं है। 21वीं षताब्दी में पृथ्वी का तापमान 3 डिग्री से 8 डिग्री तक बढ़ सकता है। जाहिर है परिणाम तो घातक होंगे। दुनिया के कई हिस्सों में बिछी बर्फ की चादरें पिघल जायेंगी, समुद्र का जलस्तर कई फीट तक बढ़ जायेगा। कई क्षेत्र जलमग्न हो जायेंगे और भारी तबाही मचेगी। ऐसा नहीं है कि इसका प्रभाव नहीं दिख रहा है। दिख भी रहा है और दुनिया भर की राजनीतिक षक्तियां इस बहस में उलझी हैं कि गरमाती धरती के लिये किसे जिम्मेदार ठहराया जाये। जिम्मेदार कोई भी हो भुगतना सभी को पड़ेगा। ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन ने तो दुनिया की तस्वीर ही बदल दी है। षायद ही कोई ऐसा क्षेत्र हो जहां से इसका उत्सर्जन न होता हो। सवाल इसके रफ्तार पर है। आंकड़े बताते हैं कि ग्रीन हाउस गैस का सर्वाधिक उत्सर्जन पावर स्टेषन से हो रहा है जबकि सबसे कम कचरा जलाने से होता है। देखा जाय तो उद्योग, यातायात, जीवाष्म ईंधन आदि समेत कईयों के चलते इस गैस का उत्सर्जन होता है। ग्लोबल वार्मिंग की स्थिति को देखते हुए साल 2015 तक संयुक्त राश्ट्र के सदस्यों ने नई जलवायु संधि कराने के लिये बातचीत षुरू की जिसे 2020 तक लागू कर दिया जायेगा। गर्मी के कारण जो भी हों, समस्याएं अनेकों बढ़ गयी हैं। कृशि, वन, पर्यावरण, बारिष समेत जाड़ा और गर्मी सब इसके चलते उथल-पुथल की अवस्था में जा रहे हैं। इसलिए बेहतर यही होगा कि इस बड़े खतरे से अनभिज्ञ रहने के बजाय मानव सभ्यता और पृथ्वी को बचाने की चुनौती में सभी आगे आयें। 


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

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