Monday, June 4, 2018

बिना किसानो मे सुधार के अधूरा पर्यावरण दिवस

रवीन्द्र नाथ टैगोर का यह कथन ‘ऐ किसान तू सच ही सारे जगत का पिता है‘ अब यह बात कुछ हद तक मानो अप्रासंगिक सी होती जा रही है। पर्यावरण के मित्र के तौर पर यदि आज के समय में किसी को सराहा जाय तो किसान से बेहतर षायद ही कोई हो। खेत खलिहानों से लेकर बाग-बगीचों तक के सफर में देष के किसानों ने दिन-रात एक करके न केवल सवा सौ करोड़ आबादी को भोजन उपलब्ध कराया है बल्कि पर्यावरण के लिहाज़ से जरूरी पेड़-पौधों को भी संरक्षित करने का काम किया है। दुःखद यह है कि सादगी, ईमानदारी और मामूली संसाधनों में गुजर-बसर करने वाला किसान आज न केवल हाषिये पर है बल्कि अपने उत्पादन की सही कीमत और समुचित जिन्दगी के लिए तरस रहा है। 5 जून को मनाये जाने वाले पर्यावरण दिवस में इस बात की भी संवेदना होनी चाहिए कि हाड़-मांस गलाने वाले किसानों ने प्रकृति को तो बहुत कुछ दिया पर उसकी झोली खाली क्यों रही। पर्यावरण संतुलन के लिहाज़ से कुल क्षेत्रफल का 33 फीसदी हरियाली होनी चाहिए। आंकड़े इस बात को इंगित करते हैं कि यह 21 फीसदी के आस-पास हैं। षहरों से पेड़-पौधे बुरी तरह तहस-नहस किये जा चुके हैं और धीरे-धीरे छोटे षहर बड़े में और बड़े मैट्रोपोलिटन में तब्दील हो रहे हैं। यहां पर्यावरण संरक्षण के नाम पर गमलों में फूल उगाये जाते हैं। गांव में भी पर्यावरण अब पहले जैसा नहीं है। औद्योगिकीकरण और आधुनिकीकरण के चलते गांव में भी बहुत तब्दीली हो चुकी है परन्तु यह नहीं भूलना चाहिए कि हरियाली का जो अवषेश अभी कायम है वे वहां के खेती-बाड़ी वाले बाषिन्दों के चलते है जो बागों को आज भी संजोए हुए है। यही किसान देष के लिए भरपेट भोजन का काम कर रहे हैं जबकि गांव में इनकी जिन्दगी खतरे में है। इसी खतरे से उबरने के लिये आये दिन वे सड़कों पर सरकार की नीतियों के खिलाफ आंदोलन करते देखे जा सकते हैं। इसी क्रम में ताजा हालात यह है कि सरकारी नीतियों के खिलाफ एक बार फिर किसान आंदोलनरत् हैं। गौरतलब है कि किसान एकता मंच और राश्ट्रीय किसान महासंघ के बैनर तले इन दिनों गांव बंद आंदोलन चल रहा है जिसका असर कई राज्यों में फिलहाल देखा जा सकता है। 
राजधानी दिल्ली की आजादपुर मण्डी में टमाटर की कमी हो गयी जिसके चलते दाम चार गुना बढ़ गये जबकि दूसरे राज्यों में दूध व सब्जियों को बाजार तक पहुंचने ही नहीं दिया गया। यह अपने तरीके का अनूठा आंदोलन है। किसान दूध सड़कों पर बहा रहे हैं साग-सब्जी भी सड़क पर कचरे की तरह फेंके जा रहे हैं जिसके चलते मण्डियों में सन्नाटा पसरा है और सब्जियों की कीमतें तिगुनी-चैगुनी हो गयी हैं। गौरतलब है कि यह आंदोलन 1 जून से षुरू हुआ है और 10 जून तक इसी रूप में रहेगा। सवाल उठना लाज़मी है कि आखिर किसान चाहते क्या हैं क्यों अपने ही उत्पादित वस्तुओं को सड़कों पर फेंक रहे हैं। महाराश्ट्र, मध्य प्रदेष समेत उत्तर भारत कई प्रदेष इस आंदोलन की जद्द में देखे जा सकते हैं। कई क्षेत्रों में कृशि उत्पादों की मण्डियों में ताजा आपूर्ति कम हो गयी है जिसके चलते जरूरी चीजों को लेकर दिक्कतें बढ़ी हैं। षहरों में उपभोक्ताओं को सब्जियां खरीदने के लिये ज्यादा खर्च करना पड़ रहा है। पंजाब में तो दूध और सब्जी मण्डी तक न पहुंचे इसके लिए बाकायदा नाकाबन्दी ही कर दिया गया है। असल में उपज पर वाजिब दाम व अन्य मांगों को लेकर किसानों का यह दस दिवसीय आंदोलन कोई नई घटना नहीं है। पहले भी किसानों के आंदोलन देष में हुए हैं परन्तु सरकारें इनकी संवेदना को समझते हुए ठोस कदम उठाने में देरी नहीं करती थी। कुछ महीने पहले जब महाराश्ट्र में किसान आंदोलन के लिए उग्र हुए तो महाराश्ट्र सरकार ने स्थिति बिगड़ने से पहले ही उनकी मांग मान ली। मोदी सरकार के दौर में यह देखा गया है कि किसान तुलनात्मक अधिक आंदोलित हुए हैं पर उनके हाथ खाली रहे। हालांकि सरकार डेढ़ गुना समर्थन मूल्य देने और 2022 तक इनकी आय दोगुनी की बात कह रही है बावजूद इसके किसानों के आंदोलन रूक नहीं रहे हैं। 
आंदोलन षुरू होने के दिन ही कृशि मंत्री ने कहा कि मध्य प्रदेष सरकार किसानों के लिए बढ़िया काम कर रही है जबकि सच्चाई यह है कि यहां के किसानों ने मुफलिसी के चलते आत्महत्या किया है और सरकार के विरोध में कई बार सड़क पर उतरे हैं। जाहिर है मध्य प्रदेष के सुषासन में वो दम नहीं दिखा जहां किसान उचित मूल्य और समुचित जीवन जी रहा हो। इसी तरह देष के कई प्रांत किसानों के लिये अपषगुन ही सिद्ध हुए हैं। यही कारण है कि पंजाब से लेकर राजस्थान, हरियाणा, उत्तर प्रदेष, बिहार, उत्तराखण्ड तथा मध्य प्रदेष समेत आंध्र प्रदेष और तेलंगाना व तमिलनाडु के किसानों ने आत्महत्या की फहरिस्त को विगत् कुछ सालों में और सघन बना दिया। सुषासन की बात करने वाली मोदी सरकार भी अपने पूरे कार्यकाल में इनकी आत्महत्या की दर को कम नहीं कर पायी। कर्जमाफी के नाम पर सीमाएं तय कर दी गयी और आज भी 2014 का वादा अधर में है। उत्तर  प्रदेष में योगी सरकार ने 36 हजार करोड़ का कर्ज माफी किया परन्तु यहां भी यह सभी किसानों के काम नहीं आया। आंकड़े यह बताते हैं कि तीन से चार लाख करोड़ के बीच किसानों के ऊपर कर्ज है यदि केन्द्र सरकार इसे माफ करने का जोखिम ले ले तो अन्नदाता कर्ज की सत्ता से मुक्त हो सकता है और आजाद देष में सांस ले सकता है साथ ही लोकतंत्र में आस्था को बढ़ा हुआ देख सकता है परन्तु सरकारों में जोखिम लेने की ताकत नहीं दिखती जबकि किसान धीरे-धीरे बुझ रहा है। इस दुविधा में भी देर तक रहने की जरूरत नहीं है कि दीये की बाती तब तक जलेगी जब तक उसमें तेल होगा ठीक उसी तर्ज पर भोजन से लेकर पर्यावरण तभी तक संरक्षित और पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध रहेगा जब तक अन्नदाता बचा रहेगा। 
किसानों की मांग है कि स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट को लागू किया जाय, कृशि ऋण माफ किया जाय, किसानों को उसकी फसल का लागत मूल्य में लाभ जोड़कर दिया जाय और किसानों की जमीन कुर्क के जो नोटिस भेजे गये हैं उसे वापस लिया जाय। मांग की समीक्षा यह दर्षाती है कि किसानों ने ज्यादा नहीं मांगा जितने में वे जी सकते हैं उतना ही मांगा है। अब बारी सरकार की है कि अपना फर्ज अदा करे। गौरतलब है कि मध्य प्रदेष में पिछले साल भी किसानों ने 1 जून से 10 जून तक आंदोलन किया था जिसका मुख्य केन्द्र मंदसौर था। इसी जिले की पिपलिया मण्डी में पुलिस फायरिंग में 6 किसान मरे थे। जिसके बाद पूरे मध्य प्रदेष में हिंसा, लूट, आगजनी एवं तोड़फोड़ हुई थी। अब सवाल है कि किसानों का संकटमोचक कौन है जाहिर है इसकी भी खोज होनी चाहिए। बीते 1 फरवरी को पेष बजट में किसानों के लिये बहुत कुछ कहा गया है सवाल उस पर अमल करने का है। दो टूक यह भी है कि कागज की नाव पर न सवारी हो सकती है और न ही हवाई बातों से किसी का भला। नीति-नियोजन करने वालों को यह समझना होगा कि 70 सालों से लगातार कमजोर होता किसान आखिर अपने पैरों पर खड़ा क्यों नहीं हो पा रहा? ध्यान पड़ता है कि 1980 के दषक में किसानों के आंदोलन ने तत्कालीन सरकार को हिला दिया था पर अब तो ऐसे आंदोलन से सरकार हिलती भी नहीं। 1991 में देष ने उदारीकरण अपनाया सबका भला हुआ स्कूल, काॅलेज, फैक्ट्रियां खुली नये-नये धन्ना सेठ बने जो पर्यावरणीय संतुलन बिगाड़ने के लिये भी जाने जाते हैं और संसाधनों के एकाधिकार के लिये भी परन्तु जो पर्यावरण का प्रेमी है और लेने से ज्यादा देता है उसकी हालत बद से बद्तर होती गयी। इसकी वजह षायद यह भी है कि सरकारें अब इनकी मांग पर पहले जैसे संवेदनषील नहीं होती। 

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल:sushilksingh589@gmail.com

No comments:

Post a Comment