Monday, May 28, 2018

तेल की कीमत नियंत्रित करे सरकार!

बेषक पेट्रोल और डीजल की कीमतों ने पुराने रिकाॅर्ड तोड़ दिये हों और रिकाॅर्ड ऊँचाई पर पहुंचकर तेल लोगों के लिए मुसीबत बन गया हो पर सरकार की हालिया स्थिति को देखते हुए तो यही प्रतीत होता है कि वे तेल भी देख रहे हैं, तेल की धार भी देख रहे हैं मगर बेफिक्री के साथ। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में एनडीए सरकार के केन्द्र में आने से पहले थोक के भाव में वायदे किये गये थे जिसमें महंगाई भी केन्द्र में थी पर अब सरकार इसे बेमतलब समझ रही है। लगभग चार साल से सत्तासीन मोदी सरकार पेट्रोल, डीजल में आई महंगाई को लेकर षिखर पर है जबकि इससे निपटने के मामले में सिफर है। गौरतलब है कि पेट्रोल के दाम 80 रूपए प्रति लीटर को पार कर रहे हैं जो बीते 56 माह के उच्चत्तर स्तर पर है जबकि डीजल 70 रूपए के आसपास का रिकाॅर्ड स्तर लिये हुए है। कयास तो यह भी है कि कहीं पेट्रोल सौ रू. प्रति लीटर के स्तर को भी न छू ले। तेल के दाम में जिस कदर वृद्धि हुई है उससे पूरा जन जीवन महंगा हो गया है। सब्जी, फल, अण्डा और दूध सहित कई ऐसे खाने-पीने की चीजों पर महंगाई की चोट देखी जा सकती है। यह बात सभी समझते हैं कि तेल महंगा होने का मतलब वस्तुओं का महंगा होना है। ढुलाई महंगी हो जाती है, आवागमन महंगा हो जाता है साथ ही बुनियादी आवष्यकताएं भी पूरी करने में व्यक्ति हांफने लगता है। सबका साथ, सबका विकास के ष्लोगन से युक्त मोदी सरकार इस मामले में कितनी खरी है मौजूदा हालात देख कर जनता इसका निर्णय स्वयं कर सकती है। तेल कम्पनियां कहती हैं कि अन्तर्राश्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतों की वजह से ये बढ़ोत्तरी हुई है पर यहां बता दूं कि जब कच्चा तेल मौजूदा समय के दर से जब आधे से भी कम कीमत का था तब भी इन कम्पनियों ने तेल की कीमतों में कोई खास अंतर नहीं किया था। उन दिनों इन्होंने जमकर जनता की जेब काटी और अब क्रूड आॅयल महंगा होने का रोना रो रहे हैं। सवाल दो हैं सरकार का नियंत्रण इस पर कितना है और क्या सरकार तेल की बढ़ती कीमतों को लेकर फिक्रमंद भी है।
बढ़ती हुई कीमतों को देखते हुए एक्साइज़ ड्यूटी में कटौती का केन्द्र सरकार पर दबाव बढ़ना लाज़मी है। गौरतलब है कि बीते चार सालों में जब से मोदी सरकार बनी है 9 बार एक्साइज़ ड्यूटी बढ़ाई जा चुकी है और कटौती केवल एक बार हुई है। दक्षिण एषिया के देषों में भारत तुलनात्मक रईस देष है पर पेट्रोल और डीजल के दामों के मामले में कहीं अधिक फिसड्डी है। पड़ोसी देषों में यह सस्ता क्यों है यह भी समझने वाली बात है। सरकारी संगठन पीपीएसी के अनुसार पाकिस्तान में पेट्रोल के दाम प्रति लीटर 47 रूपए थे, श्रीलंका में यही 49 रूपए, नेपाल में लगभग 65 रूपए जबकि बांग्लादेष में 68 रूपए लीटर था। भारत में लगभग 80 रूपए और कहीं-कहीं इससे ज्यादा में पेट्रोल का बिकना चिंता का विशय है। कमोबेष डीजल की भी स्थिति लोगों के पसीने निकाल रही है। सवाल उठना लाज़मी है कि मोदी सरकार ने जीएसटी लागू करके खजाने को वहां से भरने की कोषिष की जहां से उसे खूब फायदा दिखा जबकि डीजल और पेट्रोल को इससे बाहर रखकर जनता का पैसा कम्पनियों से लुटवा रही है। पेट्रोल की कीमत करीब पांच साल के उच्चत्तम स्तर पर पहुंचने और डीजल की कीमत सर्वकालिक उच्चत्तम स्तर पर पहुंचने के बावजूद सरकार इसे जीएसटी में षामिल न करके गुड गवर्नेंस के अपने कथन को कमजोर कर रही है। अब तो जीएसटी प्रणाली में षामिल करने के तत्काल आसार भी न के बराबर है। हालात को देखते हुए यह माना जा रहा है कि केन्द्र सरकार के पास इसे लेकर कोई प्रस्ताव नहीं है परन्तु जनता की जेब पर डकैती बढ़ गयी है। 
अप्रैल के पहले हफ्ते में डीजल, पेट्रोल को जीएसटी के दायरे में लाने की दिषा में धीरे-धीरे आम सहमति बनाने का प्रयास मंत्रालय ने कही थी पर इस पर भी हजार अड़ंगे बताये जा रहे हैं। उत्पाद षुल्क घटाने का दबाव तो है पर वित्त मंत्रालय ऐसा कोई इरादा नहीं रखता है। गौरतलब है कि सरकार यदि बजटीय घाटा कम करना चाहती है तो उत्पाद षुल्क घटाना सम्भव नहीं है। खास यह भी है कि एक रूपए प्रति लीटर  की कटौती मात्र से ही 13 हजार करोड़ रूपए का घाटा हो जायेगा। जाहिर है कि सरकार यह जोखिम क्यों लेगी, भले ही जनता क्यों न पिसे। याद एक बार फिर दिला दें कि सरकार का एक नारा अच्छे दिन आयेंगे का भी रहा है परन्तु क्या इसे ही अच्छे दिन कहेंगे। सरकार तेल की कीमत घटाने के मामले में न तो जोष दिखा रही है और न ही कोई तकनीक सुझा रही है। ऐसे में जनता की उम्मीदें तो धूमिल होंगी। सरकार ने कच्चे तेल की कीमत कम होने के दौरान नवम्बर, 2014 से जनवरी 2016 के बीच 9 बार उत्पाद षुल्क बढ़ाया था जबकि अक्टूबर में पहली बार इसमें 2 रूपए की कटौती की थी। अब वक्त आ गया है कि तेल के भस्मासुर वाले दाम से लोगों को राहत देने के लिए सरकार तत्काल उत्पाद षुल्क घटाये। वैसे सरकार को यह भी उम्मीद है कि सीरिया, ईरान, और उत्तर कोरिया जैसे मुद्दों पर वैष्विक आधार सुधरेगें और अमेरिकी सेल आॅयल से भी असर पड़ेगा पर यह अंधेरे में झक मारने वाली बात है। सरकार को जहां मुनाफा लेना है तो वहां रोषनी दिखती है और जहां जनता को नुकसान हो रहा वहां उसकी नजर नहीं पड़ती है। सरकार की बेबसी यह भी है कि कम्पनियों पर उसका अंकुष नहीं है। सभी जानते हैं कि पेट्रोल पम्प पर हर कोई पहले ये पूछता है कि आज तेल की कीमत क्या है क्योंकि अब दाम रोजाना की दर से तय होते हैं। सरकार नहीं चाहती कि रोजाना पेट्रोल और डीजल के दाम तय करने की आजादी पर अंकुष लगे। दुविधा बढ़ जाती है कि सरकार जनता की है या व्यापारियों की। 
बीते 12 मई को कर्नाटक विधानसभा का चुनाव और 15 मई को परिणाम घोशित हुए थे। जाहिर है भाजपा यहां सरकार बनाने के मामले में बड़े दल के बावजूद विफल हुई। चुनाव के दिनों में 15 दिन के लिए तेल के दाम स्थिर कर दिये गये थे लेकिन नतीजों के बाद इसमें एक बार फिर बेहिसाब छलांग लगी है। साफ है कि सरकार अपने अवसर के हिसाब से तेल के साथ खेल कर रही है। सरकार को यह नहीं भूलना चाहिए कि डीजल, पेट्रोल और प्याज की महंगाई भी देष की सत्ता को नई करवट दे देता है। विषेशज्ञों का भी मानना है कि तेल से केन्द्र और राज्य खूब कमायी करते हैं भले ही अन्तर्राश्ट्रीय बाजार में प्रति बैरल कच्चे तेल की कीमत में बढ़त्तरी को जिम्मेदार ठहराया जा रहा हो लेकिन ये दोनों सरकारें अपना मुनाफा लेने से नहीं चूकती हैं। महंगाई के इस हाहाकार के बीच भी केन्द्र सरकार एक लीटर पेट्रोल पर 19 रूपए 48 पैसे प्रति लीटर कमाती है जबकि डीजल में 15 रूपए 33 पैसे एक लीटर पर कमा रही है। राज्य सरकार भी पीछे नहीं है 15 रूपए 64 पैसा प्रति लीटर पेट्रोल इनकी भी कमायी है और 10 प्रति लीटर डीजल पर भी कमा रहे हैं। क्या महंगाई से सरकार को डर नहीं लगता। क्या सरकार एक माई-बाप होने के नाते जनता को बेहाल छोड़ सकती है और बढ़े हुए दामों और बढ़ती हुई महंगाई को लेकर कोई चिंता नहीं है यदि ऐसा है तो लोकतंत्र में कुछ ठीक नहीं हो रहा है। चुनाव जीतना ही सरकार की योग्यता नहीं है बल्कि यह नहीं भूलना है कि लोक कल्याण उसकी योग्यता है। 

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
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