Monday, May 28, 2018

काँग्रेस हारी पर जीती तो बीजेपी भी नहीं

यह बात गैरवाजिब नहीं है कि कर्नाटक विधानसभा चुनाव के नतीजे कईयों के सपने को चकनाचूर कर गया। पांच साल से सरकार चला रही कांग्रेस को यहां उम्मीद से कहीं कम सीटें मिली जबकि बहुमत का सपना पालने वाली बीजेपी भी इस मामले में कमतर ही रह गयी। हालांकि 2013 की तुलना में बीजेपी का प्रदर्षन बहुत अच्छा था पर सत्ता का जादुई आंकड़ा हाथ न लगने से सियासत की अठखेलियां राज्य की फिजा में खूब तैर रही हैं। रोचक राजनीतिक प्रसंग यह भी है कि बीजेपी को सत्ता से दूर रखने के लिए कांग्रेस ने नतीजे का बिना इंतजार किये जनता दल (एस) को अपना समर्थन देकर सियासी पासा ही पलट दिया। फिलहाल कर्नाटक त्रिषंकु का षिकार हुआ है जिसकी सम्भावना पहले भी व्यक्त की जा चुकी है पर किंग मेकर जनता दल (एस) के कुमार स्वामी को किंग बनने का इतना आसान मौका मिलेगा इसकी सम्भावना कम ही आंकी गयी थी। यह सियासत का ही मिजाज़़ है कि जनता को लुभाने में कुछ तो कोसों दूर रह जाते हैं तो कुछ मील का पत्थर गाड़ देते हैं। जब एक मई को प्रधानमंत्री मोदी कर्नाटक पहुंचे और ताबड़तोड़ 21 रैलियां कर डाली तो चुनाव प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता था। मोदी की रैली का प्रभाव 169 विधानसभा क्षेत्रों पर रहा। जाहिर है कि 224 के मुकाबले यह बहुत बड़ा क्षेत्र है। ऐसे में मोदी मैजिक का चलना लाज़मी भी था और चला भी था। बावजूद इसके सत्ता का आंकड़ा जो 112 था उससे 8 सीट कम रहते हुए 104 पर आकर बीजेपी थम गयी। गौरतलब है कि चुनाव 222 सीटों पर हुआ था जिसमें कांग्रेस 78, जनता दल (एस) 38 और अन्यों ने 2 पर बाजी मारी। 
देखा जाये तो कर्नाटक के नतीजे ने कांग्रेस को सियासी तौर पर और पीछे धकेल दिया है। वोट प्रतिषत के मामले में भाजपा से कांग्रेस आगे रही पर सीट कब्जाने में बहुत पीछे। वैसे जनता दल (एस) को समर्थन देकर न केवल उसने अपनी हार को छुपा लिया बल्कि कर्नाटक के सियासत को भी गरम कर दिया। वैसे हर हार के बाद राहुल गांधी पर सवाल उठते रहे हैं। जाहिर है यहां भी उठना था सो उठा। इस चुनावी नतीजे से कई सवाल उठते हैं एक यह कि कांग्रेस की हार कब तक जारी रहेगी, दूसरा 2019 के लोकसभा में क्या कांग्रेस अपनी राजनीतिक हैसियत तुलनात्मक बढ़ा पायेगी। सियासत स्थानीयता से ओत-प्रोत होती है। इसमें कोई दो राय नहीं कि भाजपा के अमित षाह और प्रधानमंत्री मोदी को इसकी नब्ज पकड़े में महारत हासिल है। हिन्दी में बोलते हैं और कन्नड़ के वोटरों को वोट के लिये उकसाते हैं और सत्ता हथियाने के करीब पहुंचते हैं। कांग्रेस ने भी स्थिति को समझने में बहुत गलती नहीं की है पर मौजूदा मुख्यमंत्री सिद्धरमैया के फैसले हवा हवाई जरूर सिद्ध हुए हैं। लिंगायात कार्ड फेल हो गया और कांग्रेस मोदी का काट नहीं खोज पायी। अमित षाह का चुनावी प्रबंधन भी कांग्रेस की लुटिया डुबो दी। हालांकि राहुल गांधी ने साॅफ्ट काॅर्नर लिया पर हिन्दुत्व कार्ड उनका भी फेल हो गया, उनका मठों और मन्दिरों में मत्था टेकना भी काम नहीं आया। हालांकि हार तो बीजेपी की भी हुई है इसलिए क्योंकि एक तो बहुमत से वे दूर हैं दूसरे मंत्री, सांसद, मुख्यमंत्री और स्वयं प्रधानमंत्री समेत सभी ने जोर लगाया तब भी एक तरफा जीत हासिल नहीं कर पाये और कर्नाटक मौजूदा समय में गठबंधन की अवस्था में चला गया। स्थिति को देखते हुए सियासी मेले से कुछ दूर खड़ी सोनिया गांधी ने ऐन मौके पर देवगौड़ा को फोन कर कुमार स्वामी को मुख्यमंत्री बनाने की पेषकष की। कांग्रेस का यह आखिरी दांव ऐसे समय में चला गया जहां बीजेपी भी समझ नहीं पायी कि इतना ताबड़तोड़ कैसे हो गया। यह कौटिल्य अमित षाह पर सत्ता को उंगलियों पर नचाने वाली सोनिया का सियासी प्रहार था जिसमें सत्ता अभी भी उलझी हुई है। 
कांग्रेस जानती थी कि गोवा, मणिपुर और मेघालय में बीजेपी ने सत्ता हथियाने का कौन सा खेल खेला था। गौरतलब है कि यहां कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी होने के बावजूद हाषिये पर रही जबकि कोसो दूर खड़ी बीजेपी सत्ताधारी बनी और ऐसा अवसर कांग्रेस के ढुलमुल रवैये के कारण ही भाजपा को मिला था पर कर्नाटक में ऐसा नहीं हुआ। फिलहाल उतार-चढ़ाव से भरी कर्नाटक की सियासी पारी में राज्यपाल की भूमिका कहीं अधिक अहम हो गयी। गौरतलब है कि जब भी त्रिषंकु की स्थिति होती है तो केन्द्र में राश्ट्रपति और राज्य में राज्यपाल की यह जिम्मेदारी होती है कि उस दल को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित करे जिसमें बहुमत सिद्ध करने की पूरी सम्भावना हो। सम्भावना तो यह भी व्यक्त की गयी है कि भाजपा 104 विधानसभा सीट के साथ सर्वाधिक स्थान पर है ऐसे में सरकार बनाने का उसे अवसर मिलना चाहिए। सभी भाजपा नेता और समर्थक ऐसा मानते हैं जबकि कांग्रेस यह दलील दे रही है कि जब जनता दल (एस) के साथ समर्थन जुटा लिया गया है तो अवसर कुमार स्वामी को दिया जाना चाहिए। इस दलील पर भाजपा नहीं टिक रही है जबकि इसके पहले भाजपा उपरोक्त प्रांत में यही किया है। कहा तो यह भी जा रहा है कि यदि कांग्रेस जनता दल (एस) को सरकार बनाने का अवसर नहीं मिला तो वह सुप्रीम कोर्ट जा सकती है। गौरतलब है कि गोवा मामले में भी कांग्रेस सुप्रीम कोर्ट गयी थी तब षीर्श अदालत ने कहा था कि यदि चुनाव के बाद का गठबंधन बहुमत सिद्ध करने में सक्षम है तो उसे सरकार हेतु आमंत्रित करना संविधान सम्वत् है। जाहिर है अदालत एक ही तथ्य पर दो निर्णय नहीं होगे। ऐसे में इस बार पलड़ा कांग्रेस और जनता दल (एस) गठबंधन का भारी है। यह भी समझने योग्य बात है कि भाजपा के येदियुरप्पा मुख्यमंत्री बनते हैं तो बहुमत कहां से जुटायेंगे। इसमें कोई दो राय नहीं कि विधायकों की खरीद-फरोख्त होगी और एक बार फिर राजनीति हाॅर्स ट्रेडिंग की षिकार होगी। गठबंधन दल के मुख्यमंत्री के दावेदार कुमार स्वामी भी कह चुके हैं कि उनके विधायकों को सौ करोड़ में भाजपा खरीदने की बात कर रही है। हालांकि इसका कोई पुख्ता प्रमाण उनके पास भी नहीं है।
कर्नाटक चुनाव में यह इतिहास रहा है कि किसी भी दल को बीते 1985 के बाद दोबारा सत्ता नहीं मिली है। गौरतलब है कि राम कृश्ण हेगड़े यहां सत्ता दोहरा चुके हैं। कर्नाटक की सियासत में लिंगायत को बिना समझे पूरी राजनीति नहीं समझी जा सकती। येदियुरप्पा के रूप में स्थानीय लिंगायत चेहरा पीएम मोदी के मैजिक और अमित षाह के बेहतर प्रबंधन की बदौलत भाजपा ने पिछले चुनाव के मुकाबले इस बार 65 सीट ज्यादा और करीब 17 फीसदी अतिरिक्त वोट हासिल किये। हालांकि यह वोट लोकसभा की तुलना में करीब साढ़े छः फीसदी कम है। यहां लिंगायतों का 17 फीसदी वोट है इस पर भी अलग धर्म बनाने को लेकर सियासत गरम हुई थी। गौरतलब है कि ये भाजपा के वोटर हैं लेकिन कांग्रेस को भी इनका वोट मिला है इसकी एक वजह लिंगायत को लेकर कांग्रेस का साॅफ्ट काॅर्नर रहा है। उत्तर प्रदेष में वजूद तलाष रही बसपा का भी यहां 24 साल बाद खाता खुला है। सियासी धरातल पर मतलब राजनीतिक ही निकाले जाते हैं। मोदी अपने भाशणों में पूर्व प्रधानमंत्री देवगौड़ा को भी साधने की कोषिष की। इतना ही नहीं राहुल गांधी पर भी देवगौड़ा को लेकर निषाना साधा। मोदी भी समझ रहे थे कि त्रिषंकु की स्थिति में उनके साथ की जरूरत पड़ सकती है इसीलिए उनका वक्तव्य जनता दल (एस) के मामले में काफी सधा हुआ थ। सबके बावजूद स्थिति त्रिषंकु ही बनी परन्तु कुमार स्वामी की किंग की भूमिका में आने से भाजपा के इरादे धरे के धरे रह गये और अब नजरे राजभवन की ओर हैं।


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
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