Monday, May 21, 2018

सामाजिक बदलाओ मे युवाओं की भूमिका

वास्तव में सामाजिक परिवर्तन का मतलब है किसी भी समाज के ढांचे में सभी के हिस्से में बदलाव का होना। स्वाधीनता प्राप्ति से लेकर अब तक इस दिषा में कमोबेष सरकार और समाज दोनों ने मिलकर कोषिष की है पर यह कितना कामयाब रहा पड़ताल का विशय है। किसी भी देष की कुंजी मानव संसाधन होता है और उसमें भी उस देष की बुनियाद युवा होते हैं। युवा ही देष का आधार होता है ऐसा इसलिए क्योंकि वह अधिकतम ऊर्जावान और बेषुमार सम्भावनाओं से भरा रहता है। भारत एक युवा देष है और आंकड़े भी यह बताते हैं कि जहां 2020 तक अमेरिका की औसत आयु 45 वर्श और चीन की 37 वर्श समेत पष्चिमी यूरोप और जापान की 48 वर्श होगी वहीं भारत में यह मात्र 29 वर्श की होगी। तथ्य भी और सत्य भी यह इषारा करते हैं कि आने वाला वक्त युवाओं का है और दुनिया भी भारत की इस युवा प्रतिभा को देखना चाहेगी। भारत में लगभग 65 फीसदी जनसंख्या इस समय 35 वर्श से कम आयु की है। मौजूदा मोदी सरकार भी युवाओं पर कुछ अधिक भरोसा दिखा रही है। सरकार का पूरा ध्यान युवाओं के माध्यम से विकास लाने पर भी केन्द्रित है पर पूरा उपयोग अभी भी सम्भव नहीं हो सका।
कुल मिलाकर देखा जाय तो सामाजिक परिवर्तन में युवाओं की भागीदारी को हम दो स्तरों पर देख सकते हैं। पहला सत्ता के भीतर भविश्य की नीतियों में भागीदार बनाकर, दूसरा सत्ता के खिलाफ उन मामलों में भागीदार बनाकर जो देष रचना में रूकावट बन रहे हैं। सत्ता के भीतर जो युवा हैं वे कुछ हद तक कठपुतली के तौर पर इस्तेमाल होते हैं और जो बाहर हैं वो सरकारी तंत्र के सामने टिक नहीं पाते हैं। सवाल है कि युवा की ऊर्जा का उपयोग कैसे सम्भव हो ताकि राश्ट्र और समाज निर्माण में इनकी भागीदारी का दर बढ़ सके। मोदी सरकार द्वारा पेष की गयी राश्ट्रीय युवा नीति 2014 का उद्देष्य युवाओं की क्षमताओं को पहचानना और उसके अनुसार उन्हें अवसर प्रदान कर सषक्त बनाना और इसके माध्यम से विष्व भर में भारत को इसका सही स्थान दिलाना है पर यह बात जितना कहने में सुगम है, असलियत से यह कोसो दूर है। रोज़गार को लेकर युवा सड़क पर भटक रहा है और साथ ही ऊर्जा को दिषाहीन किये हुए है। आंकड़े भी यह समर्थन करते हैं कि देष में सरकारी नौकरियां सिकुड़ रही हैं और निजी सेक्टर कहीं अधिक संकुचित हो चले हैं। ऐसे में इनकी खपत बहुत मुष्किल अवस्था में है। निराष करने वाले आंकड़े तो यह भी हैं कि देष का हर चार में से तीन इंजीनियर काम के लायक नहीं है जबकि सामान्य स्नातक की भी स्थिति योग्यता के मामले में कहीं अधिक बुझी हुई है पर इनकी भूमिका को तो समझना ही होगा। कुछ युवा राजनीति के षिकार हो रहे हैं तो कुछ सही दिषा के अभाव में राह से भटके हैं जबकि समाज निर्माण में इतनी बड़ी ऊर्जा का दोहन न कर पाना हमारी, आपकी तथा सरकार का फेल होना भी कहा जायेगा। 
कहा जाता है कि अगर राश्ट्र को जानना है तो सर्वप्रथम वहां के युवाओं को जानना चाहिए। पथ से वंचित व विचलित युवाओं का साम्राज्य खड़ा करके कोई भी सरकार दूर तक दौड़ नहीं लगा सकती। औपनिवेषिक काल में अंग्रेजी सत्ता से मुक्ति के लिए युवाओं को संगठित करने का काम किया गया था। नेताजी सुभाश चन्द्र बोस से लेकर कई युवाओं की फहरिस्त इसमें देखी जा सकती है। कहने की आवष्यकता नहीं कि युवा के आधार पर ही भारत अपनी परम्परागत छवि का आवरण उतारकर नई पहचान बनायी है। स्टार्टअप इण्डिया एण्ड स्टैण्डअप इण्डिया से लेकर न्यू इण्डिया तक युवाओं के माध्यम से ही पूरा हो सकता है। इसके अलावा भी देष से लेकर वैष्विक स्तर तक होने वाले सामाजिक परिवर्तन में भी ये बड़े कारक हैं। आर्थिक सुधारों से लेकर राजनीति, खेल और व्यवस्था परिवर्तन के आंदोलन में इनकी भूमिका वाकई समझी जा सकती है। दुनिया के उदाहरण भी इस बात को पुख्ता करते हैं कि चीजों को परिवर्तित करने में इनकी कोई सानी नहीं। अरब देषों में हुए व्यवस्था परिवर्तन के आंदोलन, अमेरिका में वल स्ट्रीम आंदोलन और भारत में हुए जेपी आंदोलन से लेकर 21वीं सदी में हुए अन्ना हजारे का भ्रश्टाचार विरोधी आंदोलन साथ ही निर्भया के साथ हुए अमानवीय व्यवहार के खिलाफ उमड़ा आक्रोष जैसे तमाम उदाहरण देखे जा सकते हैं। असल बात यह भी है कि आज का युवा संक्रमण के दौर से गुजर रहा है और सत्ता भी ऐसा परिवेष विकसित कर देता है जिससे वह स्वयं को बुरी तरह फंसा हुआ पाता है। सवाल है उसे दिषा कौन दे और प्रष्न है कि उसकी उर्जा का इस्तेमाल कौन करे?
युवा किसी भी समाज की रीढ़ है आज का युवा भ्रम और यथार्थ के बीच भी फंसा हुआ है। समय भी चरम पूंजीवाद का है जबकि युवा नरमपंथी भी है, समाजवादी भी है और जरूरत पड़ने पर गरमपंथी भी हो जाता है। बस आधुनिक परिवेष में उसका मूल्य कुछ लोगों ने खोटे सिक्के की तरह कर दिया है। कुछ ने तो खारिज ही कर दिया है। बाजारवाद में युवा की कीमत गिर रही है जबकि सच्चाई यह है कि बिना दुविधा के वह आज भी समाज और सरकार के लिए बेषुमार दौलत की तरह है। कुल मिलाकर देखा जाय तो युवाओं ने भी अपने को बेखबर किया हुआ है। परम्परा भंजक बना हुआ है, मनमौजी पीढ़ी हो गयी है, अनैतिक और क्षणवादी के आरोप से भी मढ़ा हुआ है लेकिन ऐसे आरोपों से पहले हमें इनके सामाजिक और आर्थिक कारणों के साथ राजनीतिक परिप्रेक्ष्य को भी परख लेना चाहिए। हाथ में काम नहीं है, योग्यता की कीमत नहीं है, आलोचना और मजाक का विशय यदि युवा को बनायेंगे तो समस्याएं इसी किस्म की होंगी। समाज में इनकी भूमिका को कोई नकार नहीं सकता। सवाल अवसर देने का है। आज लाभ और पूंजी के दरमियान युवा भी पिस रहे हैं केवल युवाओं को दोश देना उचित नहीं है। हमें सरकारी नीतियों पर भी गौर करना चाहिए। सरकार ने वायदे किये पर निभाये नहीं। सत्ता की आधारभूत नीतियां युवाओं के पक्ष में कितनी बनी हैं इसे भी समझना होगा। दुनिया में सबसे ज्यादा बेरोजगार युवा भारत में हैं जिसमें 60 प्रतिषत षहरी और 45 फीसदी ग्रामीण युवा बेरोजगार है। सवाल है कि हम किन युवाओं के बल पर राश्ट्र और समाज को षक्ति बनाने जा रहे हैं। फिर भी परिवर्तन के इस दौर में युवाओं को साथ लेना ही होगा पर सवाल यह रहेगा कि भूमिका की सही तलाष कैसे होगी। यदि यह सही हो गयी तो समाज भी बदलेगा और भारत न्यू इण्डिया भी बनेगा साथ ही देष के युवा संसाधन की दुनिया में जय-जयकार भी होगी।

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

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