Monday, May 21, 2018

राष्ट्रीय राजनीति मे बेअसर नहीं कर्नाटक

राजनीतिक समझ रखने वाले सभी जानकारों का यह कयास तो था कि कर्नाटक विधानसभा के चुनाव में भाजपा बड़ी पार्टी के रूप में उभरेगी पर षायद यह उम्मीद नहीं रही होगी कि मुख्यमंत्री जनता दल (एस) के कुमार स्वामी बनेंगे। चुनाव से पहले 17 ओपीनियन पोल में 13 ने त्रिषंकु की स्थिति बतायी थी जबकि 4 में कुछ ने भाजपा को तो कुछ ने कांग्रेस की ताजपोषी की बात कही थी। फिलहाल बीते 15 मई को जब कर्नाटक विधानसभा चुनाव के नतीजे घोशित हुए तो 222 विधानसभा सीट में भाजपा 104 सीट पर काबिज हुई और  कांग्रेस 78 पर जबकि जनता दल (एस) 38 सीटों पर सिमट गयी। हालांकि यहां कुल सीटें 224 हैं। नतीजों से साफ है कि ओपीनियन पोल के संकेत सही सिद्ध हुए परन्तु सभी का कयास कमोबेष यही था कि जनता दल (एस) के कुमार स्वामी किंग मेकर की भूमिका में रह सकते हैं मगर यहां राजनीतिक पण्डित कुछ हद तक गच्चा खाते दिख रहे हैं क्योंकि जिसे किंग मेकर समझा जा रहा था असल में वह किंग निकला। चुनावी विष्लेशण के दौरान बीते 14 मई को परिणाम घोशित होने के ठीक एक दिन पहले एक टीवी चैनल में वरिश्ठ स्तम्भकार के नाते परिचर्चा में मेरी भी उपस्थिति थी जिसमें मेरा मत था कि त्रिषंकु की स्थिति में कांग्रेस भाजपा को रोकने के लिए जनता दल (एस) को समर्थन दे सकती है और हुआ भी वही। हालांकि 17 मई को भाजपा 104 स्थानों के साथ ही सत्ता हथिया चुकी थी यह कहते हुए कि बहुमत सिद्ध कर देंगे परन्तु न्यायपालिका के निर्णयों ने बहुमत के लिये जो समय निर्धारित किया उसमें वह खरी नहीं उतरी और येदियुरप्पा इस्तीफा देते हुए मात्र ढ़ाई दिन के मुख्यमंत्री बन कर रह गये।
कर्नाटक की राजनीति में तमाम पेंच के बावजूद जिस तरह के नतीजे आये उसे कई लोकतंत्र के लिए बेहतर तो कई खतरा बता रहे हैं। जबकि एक बड़ी सच्चाई यह है कि अभी भी इस ओर दृश्टि नहीं जा रही है कि एक क्षेत्रीय दल ने एक राश्ट्रीय दल से समर्थन प्राप्त कर सत्ता हथिया ली है जो कहीं न कहीं राश्ट्रीय राजनीति पर दौर को देखते हुए बेअसर नहीं कहा जा सकता। बेषक जेडीएस का प्रदर्षन तीसरे नम्बर पर हो पर सियासत को उसने एक नई राह तो दी है। राजनीतिक इतिहास की पड़ताल बताती है कि तमाम कमजोरियों के बावजूद अच्छे खासे राश्ट्रीय दलों को अपने आगे स्थानीय दलों ने बरसों तक नचाया है। 1989 के आम चुनाव से लेकर 2014 के 16वीं लोकसभा के गठन तक क्षेत्रीय दलों की उपादेयता को क्षितिज में बगैर रखे देष की सियासत को नहीं समझा जा सकता। जब भाजपा ने अक्टूबर 1990 में केन्द्र की वीपी सिंह सरकार से समर्थन वापस लिया था तब दो खाकों में बंटा जनता दल में एक का नेतृत्व चन्द्रषेखर के हाथों में आया जो कांग्रेस के समर्थन से वे देष के प्रधानमंत्री बने। उन दिनों कांग्रेस 543 लोकसभा सीट के मुकाबले 197 पर जीत हासिल की थी। 1996 में केन्द्र की सियासत में स्थानीय दलों का ही प्रभाव था। नतीजन वाजपेयी सरकार मात्र 13 दिन ही चल पायी थी। स्थानीय दलों की एकजुटता के चलते ही 11-11 महीने के लिए देवगौड़ा और गुजराल प्रधानमंत्री बने जिन्हें कांग्रेस का समर्थन था। इतना ही नहीं 1998 व 1999 में क्रमषः 13 महीने और 5 साल की वाजपेयी सरकार दर्जनों स्थानीय दलों के चलते ही चली। प्रसंग यह दर्षाता है कि छोटे दलों को राश्ट्रीय दलों ने समर्थन देकर पहले भी प्रधानमंत्री तक बनाया है और छोटे दलों ने भी राश्ट्रीय दलों को यही ओहदा दिलाया है। 
भले ही वक्त के साथ वामपंथ उजड़ गया हो, क्षेत्रीय दल कमजोर हुए हों साथ ही कांग्रेस निस्तोनाबूत हुई हो और वर्श 2014 में 30 वर्शों के बाद देष में एक पार्टी की पूर्ण बहुमत की सरकार बनी हो परन्तु इसी भारत में अभी भी क्षेत्रीय पार्टियां सत्ता चला रही हैं मसलन तमिलनाडु में एआईडीएमके और पष्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस हालांकि ये पूर्ण बहुमत की सरकारें हैं और तृणमूल का पष्चिम बंगाल के बाहर भी अस्तित्व है। ऐसे दलों का राश्ट्रीय राजनीति में बाकायदा दखल देखा जा सकता है। इसी क्रम में कर्नाटक के जेडीएस को भी इन दिनों समझा जा सकता है। वैसे खास यह भी है कि कर्नाटक की सियासत में एक बार फिर क्षेत्रीय दलों को उकसा दिया है और मन में यह भी विष्वास पैदा कर दिया कि एकजुटता से मोदी सरकार के रथ को रोका जा सकता है। यही वजह है कि रूझान साफ होने पर पष्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का एक ट्विट यह भी आया कि कांग्रेस ने जेडीएस के साथ गठबंधन कर लिया होता तो नतीजे अलग आते। कहा तो यह भी जा रहा है कि तब भाजपा 70 और गठबंधन 150 सीटों पर होता। फिलहाल सियासत में कयास हो सकते हैं पर आईना तो नतीजे ही दिखाते हैं। भाजपा ने जिस जल्दबाजी में सरकार बनाने को लेकर यह रास्ता अख्तियार किया उसे न्यायपालिका के रास्ते उल्टी चोट मिली। प्रत्येक राज्य में सरकार की महत्वाकांक्षा से ओत-प्रोत भाजपा की कल्पनाओं में भी नहीं रहा होगा कि कर्नाटक उसके हाथ से ऐसे ही फिसल जायेगा। इसमें कोई दो राय नहीं कि कर्नाटक के मतदाताओं ने भाजपा को सत्ता देने की कोषिष की पर छोर पर आते-आते चीजे अधूरी रह गयी। इसी का फायदा कांग्रेस और जेडीएस ने उठाया। वैसे सत्ता हथियाने को लेकर भाजपा ने राजभवन तक को अपनी ओर कर लिया पर सर्वोच्च न्यायालय ने वही किया जो लोकतंत्र और संविधान के लिए कहीं अधिक समुचित था।
वर्तमान में देष की राजनीतिक स्थिति क्या है जाहिर है दक्षिण-पूर्व तटवर्ती इलाकों को छोड़ दिया जाय तो लगभग पूरे भारत पर भाजपा छायी हुई है। पंजाब भाजपा के झंझवात से बच गया जो कांग्रेस की सत्ता का मजबूत द्वीप बना हुआ है मगर उसके बारी-बारी से किले ढहते गये हैं। तो क्या सचमुच भारत कांग्रेस मुक्त हो गया या क्षेत्रीय दल गौण हो गये। गुजरात में कांग्रेस की हार के बावजूद स्थिति और कर्नाटक में नम्बर 2 पर रहते हुए सत्ता की घेराबंदी कर लेना इस बात को पुख्ता करते हैं कि कांग्रेस मुक्त नहीं बल्कि युक्त हो रही है। हालांकि कर्नाटक की सत्ता हाथ से गयी है पर जेडीएस के साथ कुछ हद तक बची है। जेडीएस का कर्नाटक में सत्ताधारी होना क्षेत्रीय दलों को भी मजबूती दे गया। अन्य प्रान्तों को भी यह फार्मूला दे गया कि क्षेत्रीय दल मिल जायें तो राश्ट्रीय दल मुख्यतः भाजपा से निपटना सरल हो जायेगा। भाजपा के अध्यक्ष अमित षाह 2019 के लोकसभा चुनाव में अपने घटक दलों के साथ 350 सीट जीतना चाहते हैं जबकि तेलुगू देषम पार्टी इनके घटक से अब हट चुका है और षिवसेना की स्थिति भी संदेह से युक्त है। गोरखपुर और फूलपुर की लोकसभा सीट का उपचुनाव में हारना भी यह पहले ही इंगित कर चुका है कि सपा और बसपा जैसे यूपी के मजबूत राजनीतिक दल भाजपा के जड़ में मट्ठा डालने का काम कर सकते हैं। ऐसी स्थिति बिहार या अन्य जगहों पर हो सकती है। मायावती, चन्द्रबाबू नायडू, षरद पंवार तथा ममता बनर्जी समेत कईयों ने कर्नाटक की सफलता पर गठबंधन को बधाई भी दिया है। इसमें कोई दुविधा नहीं कि क्षेत्रीय दल तुलनात्मक पहले से सजग हो रहे हैं और हाषिये पर जा रही राश्ट्रीय पार्टी कांग्रेस भी इनके साथ होना चाह रही है। तो क्या यह मान लिया जाय कि भाजपा एवं उनके सहयोगियों के विरूद्ध सभी दल लामबंध हो रहे हैं। यदि ऐसा है तो आगामी लोकसभा चुनाव में भाजपा को कड़ी टक्कर जरूर मिलेगी। फिलहाल सियासत का पहिया वहीं घूमता रहता है बस फर्क यह है कि उसका रूकने वाला कोण क्या है। जाहिर है कि यही पहिया 6 दषक तक कांग्रेस के हक में रूका और कुछ समय तक क्षेत्रीय दलों के हिस्से में भी आया। बीते चार वर्शों से यह अनवरत् भाजपा के पक्ष में रहा है पर कर्नाटक की कहानी कुछ और इषारा कर रही है।



सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
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