Wednesday, May 9, 2018

मुद्दा वही, विपक्ष बादल गया!

अगर महंगाई और आमदनी के अनुपात में बहुत अंतर आ जाये तो जीवन असंतुलित रहता है और यदि देष के नौजवान बेरोजगार हों और किसान आभाव में मौत को गले लगा रहा हो तो भी संतुलन नहीं बन सकता। इतना ही नहीं जब सत्ताधारी वायदे करें और इरादे जतायें और वक्त के साथ उसका मटियामेट भी कर दें तब तो जनता की सारी उम्मीदें पानी-पानी होना लाजमी हैं। दो टूक यह कि गरीबी, बीमारी और बेरोजगारी समेत कालाधन, भ्रश्टाचार, महिलाओं पर अत्याचार और डगमगाते सुषासन की चिंता आखिर किसे होनी चाहिए। जाहिर है चुनी हुई सरकार इसकी खेवनहार होती है और समस्याओं से निजात दिलाने की बड़ी मषीनरी भी। बावजूद इसके सरकारों के कार्यकाल निकल जाते हैं जनता फिर एक बार नये सिरे से सरकार चुनने की ओर आ जाती है पर क्यों ऐसा लगता है कि मुद्दे वहीं ठहरे रहते हैं। ऐसी ही तमाम समस्याओं से मुक्ति दिलाने को लेकर मई 2014 में मोदी सरकार सत्ता में आयी थी और 5 साल की सत्ता में से 4 वर्श खर्च हो चुके हैं अब कुल जमा एक वर्श बचा है। जनता अभी भी सुषासन और अपने हिस्से के विकास को लेकर टकटकी लगाये हुए है जबकि सरकारें मुद्दों से कब मुंह मोड़ लेती हैं यह जनता समझ ही नहीं पाती।
सब्जी, फल, अण्डा, चीनी और दूध समेत डीजल और पेट्रोल इस दौर में महंगाई के चरम पर हैं जो किसी भी सरकार के लिए अच्छा संकेत नहीं है। डीजल, पेट्रोल का हाल तो यह है कि यह 55 महीने का रिकाॅर्ड तोड़ दिया है। इस पर कोई चर्चा नहीं है बल्कि चुनाव पर सियासत परवान लिये है। हर चैथा व्यक्ति यहां अषिक्षित है, हर चैथा ही गरीबी रेखा के नीचे है। 65 फीसदी युवा रोजगार की कतार में है। काला धन के लिए नोटबंदी के माध्यम से मास्टर स्ट्रोक लगाया गया पर अभी गिनती पूरी नहीं हुई है। सरकार निर्णय ले रही है जनता की भलाई के लिए पर न जाने क्यों जनता जिन्दगी के लिए हांफ रही है? सुषासन लोक विकास की कुंजी है इसको लेकर भी मोदी सरकार में खूब कसरत हुई पर सत्ता पुराने डिजाइन से षायद ही बाहर निकल पायी हो। संवैधानिक संस्थायें मसलन न्यायपालिका आदि की भी छवि कुछ हद तक नकारात्मक की ओर गयी हैं। सामाजिक-आर्थिक तानाबाना भी संकरी गली से ही गुजर रहे हैं कुछ दो जून की रोटी के चक्कर में दो-चार हो रहे हैं तो कुछ कानून, नियम और निर्णयों से असहज महसूस कर रहे हैं। बैंकों में पैसा नहीं है और एटीएम के षटर गिरे रहते हैं। नोटबंदी का साईड इफैक्ट खत्म नहीं हुआ कि लोग जीएसटी की चपेट में आ गये। कुछ पुराने मुद्दों के हल न मिलने से जनता परेषान रही कुछ नये निर्णयों ने झाड़ का काम कर दिया। इन सबके बीच यदि कुछ हुआ है तो यह कि कांग्रेस देष से सिमटती गयी और भाजपा फैलती गयी। किसी का सिमटना और किसी का फैलना सियासत में हो सकता है पर असल जिन्दगी में तो नियोजित बदलाव लाने से ही बदलाव आयेगा। हालांकि सरकार इसे लेकर प्रयासरत् है परन्तु उक्त के चलते ऐसा लगता है कि 4 साल पहले भी मुद्दे वही थे और आज भी कमोबेष वही है। यदि कुछ बदला है तो विपक्ष में बदलाव आया है। पहले कांग्रेस सत्ता में थी अब भाजपा सत्ता में है पर देष के सामने जो प्रमुख निर्णायक प्रष्न खड़े थे वे आज भी मानो जस के तस पड़े हों।
अच्छे दिन का नारा देने वाली मौजूदा सरकार प्रतिवर्श 2 करोड़ रोजगार देने का वायदा किया था पर यह किसी भी वर्श पूरा नहीं हुआ। सरकार ने तो रोजगार के अर्थ ही बदल दिये। मुद्रा बैंकिंग के तहत लगभग 10 लाख खाता धारकों को ही रोजगार युक्त बता दिया। प्रधानमंत्री तो पकौड़ा तलने वालों को भी इसी प्रारूप में ढ़ाल चुके हैं। संयुक्त राश्ट्र श्रम संगठन की रिपोर्ट भी यह कहती है कि साल 2018 में भी बेरोजगारी की दर बढ़ सकती है। हालांकि सरकार ने बीते 1 फरवरी के बजट में 70 लाख रोजगार देने की बात कही है। मनमोहन सिंह के षासनकाल में भी 54 करोड़ लोगों को स्किल युक्त बनाने की बात हुई थी पर पूरा समय निकलने के बाद भी यह मामला लाखों में ही रह गया था। वैसे आंकड़े तो यह भी कहते हैं कि यूपीए सरकार ने वर्श 2010 में लगभग 10 लाख नौकरियां दी थी जबकि मोदी सरकार तो बीते चार सालों में भी यह आंकड़ा नहीं छू पायी है। आलम यह है कि बेरोजगार युवा तो बेपटरी हैं ही, भर्ती एजेन्सियां भी सरपट दौड़ नहीं लगा पा रही हैं। परीक्षाएं समय से नहीं हो रही है, यदि हो भी गयीं तो परिणाम समय से नहीं आ रहे हैं। यदि सब कुछ भी हो गया तो नियुक्ति नहीं मिल रही। राज्यों के लोक सेवा आयोग से लेकर कर्मचारी चयन आयोग में ऐसी समस्याएं खूब देखी जा सकती हैं। साल 2018 के सिविल सेवा परीक्षा में निर्धारित 882 स्थान पिछले 10 साल की तुलना में सबसे कम हैं। समीक्षात्मक संदर्भ यह है कि सरकारी रोजगार घट रहे हैं ये बात और है कि दफ्तर लोगों की कमी से जूझ रहे हैं।
देष में कालाधन को लेकर नोटबंदी हुई और विदेष में जमा कालाधन को लेकर बड़ी कसरत की गयी पर परिणाम अभी भी सिफर ही है। विपक्ष में रहते हुए भाजपायी कालाधन की रट् लगाते थे। चुनावी भाशण में मोदी कालाधन को मानो चुटकियों में लाने की बात करते थे और हर किसी के खाते में 15 लाख पहुंचाने की बात किये। यहां भी मामला फिसड्डी रहा। देष में जीएसटी लागू हुआ और पूरी कसरत कानून को अंजर-पंजर ठीक करने में ही होती रही। यहां भी सरकार के मन-माफिक अप्रत्यक्ष कर की उगाही षायद ही हो पायी हो। किसानों की हालत सुधारने के लिए सरकार ने बड़ा मन तो दिखाया पर अन्नदाताओं को मौत की डगर से वापस नहीं खींच पायी। 90 के दषक से महाराश्ट्र के विदर्भ के पटसन की खेती करने वाले किसानों की आत्महत्या से षुरू कहानी पूरे देष भर में नासूर की तरह फैल गयी। मोदी सरकार भी इस पर अल्प विराम तक नहीं लगा पायी। इनके कार्यकाल में भी 2014 से 2016 के बीच 36 हजार किसानों ने आत्महत्या की जबकि अब तक यह आंकड़ा 4 लाख पार कर चुका है। महिलाओं के उत्पीड़न के मामले में भी बात बनती नहीं दिखती है। राश्ट्रीय अपराध रिकाॅर्ड ब्यूरो द्वारा जारी आंकड़ा 2016 में हर घण्टे महिलाओं से जुड़े अपराध के 39 मामले बताये गये जबकि 2007 में यही आंकड़ा 21 का था। अन्ततः गांधी का यह कथन याद आता है कि मजबूत सरकारें जैसा करते हुए दिखाती हैं असल में वैसा करती नहीं है। फिलहाल सरकारें कमजोर हों या मजबूत, मुद्दों से मुंह न मोड़े तो जन भलाई यदि मुंह मोड़े तो केवल सियासत।



सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

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