Tuesday, May 3, 2016

जलते वन के बीच उगते सवाल

कहावत है कि अनियंत्रित आग और बेतरजीब तरीके से पानी की बर्बादी जीवन विन्यास में अस्तित्व मिटने जैसा है पर विडम्बना यह है कि देष इन दिनों इसी दौर से गुजर रहा है एक ओर महाराश्ट्र, दिल्ली एवं राजस्थान सहित एक दर्जन से अधिक राज्यों में पानी को लेकर हाहाकार मचा हुआ है तो दूसरी ओर उत्तराखण्ड, हिमाचल और जम्मू-कष्मीर जैसे हिमालयी राज्य बुरी तरह आग की चपेट में हैं। इन सभी में वनाग्नि को लेकर उत्तराखण्ड की स्थिति निहायत भयावह है। इसके अलावा गाद-गदेरों से भरे प्रदेष में जल संकट भी गहराया हुआ है। माना जा रहा है कि यदि जल्द ही आग पर काबू नहीं पाया गया तो पानी का संकट और भी गहरा सकता है। वैसे तो वनों में आग लगने की घटना कोई नई बात नहीं है परन्तु इस बार की स्थिति काफी भिन्न एवं चिंताजनक है। बीते सात सालों की तुलना में उत्तराखण्ड में वनाग्नि की यह सबसे बड़ी घटना है। देखा जाए तो जंगल की आग से धधका समूचा उत्तराखण्ड एक बड़ी परेषानी से घिर चुका है। प्रदेष के दो मण्डलों गढ़वाल एवं कुमायूँ के पूरे के पूरे 13 जिले इसकी चपेट में हैं। गढ़वाल मण्डल में तो जंगलों में भड़की आग अब बेकाबू हो चुकी है। यहां अब तक आग की सैकड़ों घटनाओं में हजारों हेक्टेयर से अधिक क्षेत्रफल की वन सम्पदा जल कर राख हो चुकी है जबकि कुमायूँ मण्डल में भी कमोबेष स्थिति कुछ ऐसी ही है। यहां स्थित कार्बेट नेषनल पार्क का करीब 300 हेक्टेयर क्षेत्रफल भी इसकी भेंट चढ़ चुका है। आग बुझाने में हजारों फायरकर्मी के साथ गांव के हजारों प्रषिक्षित लोग भी षामिल हैं। बावजूद इसके अभी भी वनाग्नि विकराल रूप लिए हुए है जिसकी चपेट में आने के चलते कईयों की जान भी जा चुकी है और कई झुलस चुके हैं।
बेकाबू हो चुकी आग पर कैसे काबू पाया जाय, कैसे इस भीशण तबाही से बचा जाए साथ ही भारी वन सम्पदा को कैसे बचाया जाए जैसे तमाम सवाल जलते वन में अनायास ही उग गये हैं। षान्त और षीतल उत्तराखण्ड की वादी इन दिनों तपिष से घिर चुकी है। हालांकि उत्तराखण्ड षासन ने यह दावा किया है कि भड़की आग पर काबू पाने में काफी हद तक उसे सफलता मिल चुकी है। एनडीआरएफ, एचडीआरएफ, वन, राजस्व आदि के करीब 10 हजार कर्मियों को आग बुझाने के काम में लगाया गया है। सेना के एमआई-17 हेलीकाॅप्टरों से धधक रहे जंगलों पर पानी छिड़का जा रहा है जिसके चलते आग की घटनाओं में कमी आई है। षासन का यह भी दावा है कि पहले की तुलना में आधे से अधिक पर काबू पाया जा चुका है पर सवाल तो यह भी है कि महीनों से जंगल में छोटे स्तर पर लगी आग को लेकर षासन क्यों सोया रहा? क्यों नहीं इसे लेकर पहले ही तत्परता दिखाई गयी? अचरज और आष्चर्य तो यह भी है कि प्रत्येक वर्श जंगलों में आग लगने की घटनाएं होती हैं और वन सम्पदा स्वाहा होती रहती है बावजूद इसके इसे लेकर सरकारों में संवेदनषीलता न के बराबर ही रही है। हद तो यह भी है कि आग लगने के कारणों पर षायद ही पूरी पड़ताल होती हो। षायद पहली बार ऐसा भी हो रहा है कि जब उत्तराखण्ड के वनों में लगी आग को लेकर राश्ट्रपति भवन चिंतित हुआ हो। प्रधानमंत्री की तरफ से आग पर नियंत्रण के प्रयास को लेकर प्रभावी मदद की अपील की गयी हो और उच्च न्यायालय इस मामले में सख्त हुआ हो। उपरोक्त के परिदृष्य में यह भी साफ होता है कि समस्याओं को छोटी समझने की गलती बड़ी-बड़ी सरकारें भी करती रही हैं जिसके नतीजे यह होते हैं कि जंगल में भड़की छोटी सी चिंगारी तबाही के बड़े सबब बन जाते हैं।
 फिलहाल जलते वन के बीच सवालों का उगना लाज़मी है जो इन दिनों उत्तराखण्ड की वादियों में तैर रहे हैं। वनाग्नि से जुड़े कई सवालों के जवाब भी अब धीरे-धीरे मिलने लगे हैं। षायद आने वाले दिनों में ये और स्पश्ट हो जायेंगे। हालांकि इस मामले में 46 ऐसे लोगों को गिरफ्तार किया जा चुका है जिन पर जानबूझकर जंगल में आग लगाने का आरोप है। हो-न-हो ऐसी करतूतों के पीछे वन माफिया का भी हाथ हो सकता है। हालांकि जंगलों में आग लगने के बहुत से कारण बताये गये हैं जिसमें मानव जनित समेत कई षामिल हैं। सबके बावजूद लाख टके का सवाल यह है कि आग कैसे भी लगी हो इस पर काबू पाने के लिए समय रहते सरगर्मी क्यों नहीं दिखाई गयी। क्या वनाग्नि के चलते जंगलों की भीशण तबाही और ग्लोबल वार्मिंग जैसी समस्याएं बढ़त नहीं बना रही हैं? क्या तपिष और धुंए के चलते हिमालय के पर्यावरण सहित खेती-बाड़ी एवं तमाम औशधियों को नुकसान नहीं पहुंचा है? ऐसे तमाम क्या और क्यों के बीच फिलहाल उत्तराखण्ड काफी बड़े नुकसान की ओर जा चुका है।
ताजे आंकड़े में यह पता चलता है कि तीन हजार हेक्टेयर से अधिक जंगल अब तक खाक हो चुके हैं और खाक होने का यह सिलसिला अभी जारी है। करीब 1500 आग लगने की घटनाएं भी सामने आई हैं। फिर वही सवाल कि आग ने इतना भयावह रूप कैसे ले लिया। ध्यानतव्य हो कि मार्च का अन्तिम पखवाड़ा और पूरा अप्रैल सियासत और राजनीति के जोड़-तोड़ में फंसा रहा और जल रहे जंगल पर किसी ने ध्यान ही नहीं दिया। कचोटने वाला सवाल तो यह भी है कि एक ओर जहां देष में वनीकरण के लिए पूरी कूबत लगाई जा रही है, करोड़ों-अरबों इसकी योजनाओं-परियोजनाओं पर खर्च किया जा रहा है वहीं छोटी-छोटी लापरवाही के चलते बड़े-बड़े पेड़-पौधें और जंगल स्वाहा हो रहे हैं। इस मामले में किसी को एक तरफा जिम्मेदार ठहराना थोड़ा मुष्किल तो है परन्तु इससे बड़ी मुष्किल यह है कि आखिर इसका जिम्मेदार कौन है? इन दिनों उत्तराखण्ड राश्ट्रपति षासन के दौर से गुजर रहा है। गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने जहां वनाग्नि को लेकर चिंता जताई है वहीं केन्द्रीय वन पर्यावरण मंत्रालय ने देष के 14 राज्यों को 20 जून तक आग लगने जैसी घटना के बाबत एलर्ट कर एहतियात बरतने को कहा है। फिलहाल उत्तराखण्ड की वनाग्नि ने एक बार फिर इस मामले में सरकारी मषीनरी की पोल खोल दी है साथ ही कई संगठनों को नये सिरे से इस मामले में राहत और बचाव सम्बन्धी अन्वेशण और खोज के लिए उकसाने का काम किया है।


   
सुशील कुमार सिंह

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