Monday, May 30, 2016

भारत-ईरान : पुराने सम्बन्ध, नए पढ़ाव

आधुनिक परिप्रेक्ष्य में भारत की पष्चिम की ओर देखो नीति दषकों पुरानी है जबकि इतिहास में झांका जाये तो यह सदियों पुरानी है। जिसमें ईरान के मामले में तो भारत काफी संजीदा रहा है। हालांकि इस दौरान कई मौके दुविधा से युक्त तो कई अनुभव कड़वे भी रहे हैं पर इन सबके बीच भारत यह जानता है कि ईरान एक बड़ी क्षेत्रीय षक्ति है तथा उसकी भौगोलिक स्थिति उसे पड़ोसी क्षेत्रों जैसे पर्सिया की खाड़ी, पष्चिम एषिया, काॅकेषस, कैस्पियन तथा दक्षिण व मध्य एषिया में उसे महत्वपूर्ण बनाती है। गौरतलब है कि विष्व के प्राकृतिक गैस का 10 फीसदी भण्डार रखने वाला ईरान ओपेक देषों में दूसरा सबसे बड़ा तेल उत्पादक है जिसके चलते भारत और ईरान के बीच ऊर्जा क्षेत्र में सहयोग के व्यापक अवसर देखे जा सकते हैं। हालांकि भारत-पाकिस्तान-ईरान गैस पाईपलाइन समझौता लम्बे समय तक कागजी ही रहा और अब तो नाउम्मीदी के ही संकेत हैं। प्रधानमंत्री मोदी वैष्विक पटल पर दुनिया के तमाम देषों के साथ भारत को सजीव तरीके से जोड़ने की कवायद में पिछले दो बरस से लगे हैं। जून, 2014 से भूटान से षुरू यह कारवां 22 मई, 2016 को दो दिवसीय यात्रा पर ईरान पहुंचा। जहां दोनों देषों के षीर्श नेताओं ने महत्वपूर्ण समझौते किये। जिसमें भारत ने पाकिस्तान को दरकिनार कर अफगानिस्तान और यूरोप तक अपनी पहुंच सुनिष्चित करने वाले बेहद अहम चाबहार समझौते पर सहमति की मोहर लगाई। भारत और ईरान के बीच हुए इस करार को रणनीतिक और कारोबारी दृश्टि से अहम माना जा रहा है जबकि चीन और पाकिस्तान के लिए यह समझौता खटकने वाला है। दरअसल इस समझौते के चलते भारत, ईरान और अफगानिस्तान के बीच सीधे बन्दरगाह सम्पर्क स्थापित हो जायेंगे साथ ही इस इलाके में बढ़ते चीन और पाकिस्तान के असर कम हो जायेंगे। ऐसे में चीन और पाकिस्तान की बेचैनी बढ़ना लाज़मी है। फिलहाल भारत-ईरान के बीच सांस्कृतिक आदान-प्रदान कार्यक्रम, थिंक टैंक के बीच चर्चाएं, विज्ञान एवं तकनीक में परस्पर सहयोग, पुराने मुद्दों के मामले में जानकारियों का आदान-प्रदान तथा सांस्कृतिक आदान-प्रदान आदि समेत चाबहार बन्दरगाह के विकास के लिए और स्टील रेल आयात करने के लिए 3373 करोड़ रूपए का ऋण देने पर सहमति के साथ कुल जमा 12 समझौते पर हस्ताक्षर हुए हैं। 
जानकारों की राय में ईरान से हुए ये समझौते भविश्य के लिए फायदे वाले सिद्ध होंगे। गौरतलब है कि चाबहार समझौते के चलते ओमान की खाड़ी में स्थित इस बंदरगाह के विकसित होने से भारत की जो निर्भरता पाकिस्तान पर है वह समाप्त हो जायेगी और मध्य एषिया तक भारत की सीधी पहुंच हो जायेगी। ऐसे में मध्य एषिया की दौड़ लगाने में भारत को कोई रूकावट नहीं आयेगी साथ ही रूस तक भी अपनी पहुंच बना सकेगा। ध्यानतव्य है कि वर्श 2003 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल के दौरान चाबहार को विकसित करने में सहमति बनी थी जिसके चलते भारत ने अफगानिस्तान को ईरान से जोड़ने वाली सड़क का निर्माण किया है पर ईरान के अलग-थलग पड़ने के चलते परियोजना कमजोर पड़ गयी। इसके अलावा देखा जाए तो भारत लम्बे समय से ईरान तथा पाकिस्तान से होकर गैस पाईपलाइन लाने का प्रयास भी कर रहा था पर यह भी परवान नहीं चढ़ सकी और यह मामला लगभग तब समाप्त हो गया जब पिछले महीने ईरान के राजदूत ने 27 सौ किलोमीटर लम्बी समुद्र के भीतर की इस परियोजना के नेस्तोनाबूत होने का संकेत दे दिये। जाहिर है 2003 से खटाई में पड़े चाबहार समझौते को एक बार संजीदा बनाकर मोदी ने ईरान के साथ एक सकारात्मक कूटनीति का परिचय दिया है साथ ही पड़ोसी चीन और पाकिस्तान को झटका भी। हालांकि ईरान के राश्ट्रपति हसन रूहानी बीते 25 और 26 मार्च को पाकिस्तान की यात्रा पर थे। जो दोनों देषों के ऊर्जा, संचार और सुरक्षा चिंता से जुड़ी थी। इस यात्रा से पाकिस्तान को ईरान से बड़ी आस भी थी पर भारत से ईरान की नज़दीकी को देखते हुए उसका चिंता में आना स्वाभाविक है। फिलहाल चाबहार विकसित होने से ईरान से प्राकृतिक गैस और कच्चा तेल लाना आसान होगा। परिप्रेक्ष्य और दृश्टिकोण यह भी संदर्भित करते हैं कि यदि भारत अपनी उपस्थिति अफगानिस्तान तथा मध्य एषिया में बढ़ाना चाहता है तो भारत के लिए ईरान की भूमिका प्रमुख हो जाती है। जिसे देखते हुए मोदी के दो वर्शीय षासनकाल के अन्तिम पहर में इस दो दिवसीय यात्रा को प्रमुखता से देखा जा रहा है। 
वैसे भारत-ईरान के बीच मौर्य तथा गुप्त षासकों के काल से ही ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक सम्बंध रहे हैं। दोनों देषों के बीच संस्कृति, कला, वास्तुकला तथा भाशा के क्षेत्र में भी अन्तःक्रियाएं होती रही हैं। भारत में उत्पन्न हुए बौद्ध धर्म ने पूर्वी ईरानी क्षेत्रों को भी प्रभावित किया। आध्यात्मिक अन्तःक्रिया के चलते सूफीवाद का उदय भी माना जाता है। विष्व के सात आष्चर्य में षामिल ताजमहल का वर्णन प्रायः भारतीय षरीर में ईरानी आत्मा के प्रवेष के रूप में किया जाता है। स्वतंत्रता के षुरूआती दिनों में दोनों देषों के बीच 15 मार्च, 1950 को एक चिरस्थायी षान्ति और मैत्री सन्धि पर हस्ताक्षर भी हुए थे। हालांकि षीत युद्ध के दौरान दोनों के बीच अच्छे सम्बंध नहीं थे ऐसा ईरान का अमेरिकी गुट में षामिल होने के चलते था जबकि भारत गुटनिरपेक्ष बना रहा जबकि आज हालात उलट दिखाई देते हैं। अब भारत और अमेरिका के बीच सम्बंध पिछले सात दषकों की तुलना में कहीं अधिक मजबूत हो चले हैं। विज्ञान और प्रौद्योगिकी के मामले में भी भारत-ईरान का आपसी सहयोग बना रहा। वर्श 2003 में ईरानी राश्ट्रपति खातमी के भारत दौरे के दौरान इस मामले में संयुक्त समझौता भी हुआ था। तत्कालीन प्रधानमंत्री वाजपेयी ने 2001 में ईरान दौरे के समय आधारभूत संरचनात्मक परियोजना के लिए ईरान को दो सौ मिलियन डाॅलर ऋण उपलब्ध कराये जाने की घोशणा भी की थी। सब कुछ ठीक ठाक चल रहा था पर भारत एवं अमेरिका के बीच नाभिकीय समझौता 2005 ने दोनों देषों के बीच तनाव उत्पन्न कर दिया। यदि भारत ईरान और अमेरिका में से किसी एक को चुनता तो यह उसके लिए निहायत कठिन था। हालांकि ईरान के लिए भी यह चुनौती रही है कि वह भारत और पाकिस्तान को लेकर संतुलन कैसे बनाये रखे। वर्शों पूर्व भारत से ईरान का गतिरोध तब हो गया जब उसने कष्मीर में स्वषासन की बात कह दी जो भारत को नागवार गुजरा था। 
फिलहाल मोदी के ईरान दौरे ने एक बार फिर दोनों देषों के बीच नई किस्म की विचारधारा को एकरूपता दे दी है जैसा कि प्रधानमंत्री मोदी ने भी कहा है कि भारत और ईरान की दोस्ती उतनी ही पुरानी है जितना पुराना इतिहास। मोदी ने यह भी दोहराया कि दोनों देषों के बीच अतीत के गौरव को हासिल करने का समय है। वैसे मोदी जिस भी देष का दौरा करते हैं वहां के तमाम सम्बंधों के अलावा सांस्कृतिक सम्बंधों से देष को जोड़ना नहीं भूलते, ईरान में भी इसकी भरपाई हुई है। मोदी का यह कहना कि क्षेत्र में षान्ति, स्थिरता और समृद्धि बनाये रखने में भारत और ईरान की अहम भूमिका है यह स्वयं में सम्बंधों को नई धरातल देने की कोषिष है। बीते 22 मई को ईरान पहुंचे मोदी का जादू वहां भी चला। पिछले 15 सालों में वाजपेयी के बाद ईरान जाने वाले पहले प्रधानमंत्री का गौरव भी इन्हें ही मिलता है। मोदी सरकार के ठीक 26 मई को दो साल पूरे हो रहे हैं और दो साल के दरमियान यह अन्तिम विदेषी यात्रा होगी जिसे निहायत सफल करार दिया जायेगा। कुल मिलाकर संदर्भित पक्ष यह है कि मध्य एषिया में भारत की पहुंच पहले की तुलना में आसान होने जा रही है।
सुशील कुमार सिंह


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