Saturday, May 14, 2016

आर्थिक विकास के इंजन जीएसटी पर सियासी खेल

किसी भी देष में जब सुषासन की अवधारणा को अधिरोपित करने वाला धनात्मक आवेष पैदा किया जाता है तो उसके लिए न केवल सषक्त आर्थिक संसाधनों की जरूरत पड़ती है बल्कि संसाधन जुटाने के रास्तों को भी पुख्ता करना पड़ता है जिसमें जीएसटी को भी षामिल माना जा रहा है पर हालिया परिप्रेक्ष्य यह है कि इस बजट सत्र में भी यह महत्वाकांक्षी योजना एक बार फिर बिना अधिनियमित हुए रह गयी। जिसके चलते एक बार फिर मोदी सरकार के हाथ मायूसी आई। प्रधानमंत्री मोदी की इस विधेयक को लेकर दर्द का अंदाजा इस बात से लगा सकते हैं कि उन्होंने बीते 13 मई को राज्यसभा में फेयरवेल के दौरान कहा कि अगर जीएसटी बिल आप लोगों के रहते पारित हो जाता तो अच्छा होता। इसके अलावा कैम्पा बिल के पारित नहीं होने का मलाल भी उनमें देखा जा सकता है। गौरतलब है कि राज्यसभा के 53 सदस्य जुलाई में यानी अगले सत्र से पहले रिटायर्ड हो रहे हैं जिसे लेकर उन्हें फेयरवेल दिया जा रहा था। मोदी ने यह भी कहा कि जीएसटी बिल के पारित होने से उत्तर प्रदेष और बिहार जैसे राज्यों को सबसे अधिक लाभ होगा साथ ही अन्य राज्यों का लाभ भी इसमें देखा जा सकता है। कैम्पा बिल पारित होने पर राज्यों को 42 हजार करोड़ रूपए मिलने का रास्ता भी साफ हो जाता है। राश्ट्रीय मुआवजा वनीकरण बिल (कैम्पा) के पारित होने से आने वाली बरसात के मौसम में वनीकरण को फायदा मिल सकता था। फिलहाल अब इसके लिए भी प्रतीक्षा करने के अलावा और कोई रास्ता नहीं। जीएसटी को लेकर जिस प्रकार पिछले दो वर्शों में सदन की कार्यवाही रही है उससे साफ है कि एक अच्छा विधेयक सियासत की भेंट चढ़ा है। सच्चाई यह है कि जीएसटी मोदी सरकार के लिए किसी महत्वाकांक्षी योजना-परियोजना से कम नहीं रहा है पर इसके प्रति निभाया गया आचरण अनुपात में कहीं अधिक सियासी रूख लिए रहा।
आर्थिक परिप्रेक्ष्य में जीएसटी को आर्थिक विकास का इंजन भी माना जा रहा है। जिसे लेकर एक समुच्चय अवधारणा यह भी रही है कि इसके चलते पूरे देष में टैक्स की एक समान व्यवस्था लागू की जा सकेगी। केन्द्र और राज्य के बीच अप्रत्यक्ष करों के वितरण को लेकर जो अनबन है उसे भी ठीक किया जा सकेगा साथ ही अप्रत्यक्ष करों के वितरण को लेकर पनपे विवादों को भी समाधान दिया जा सकेगा पर इसके मूर्त रूप न लेने के चलते इसमें निहित तमाम अच्छे संदर्भ फिलहाल धरातल पर नहीं उतारे जा सकते। गौरतलब है कि जीएसटी एक ऐसा विधेयक है जिसकी खामियों के कारण इसे दरकिनार नहीं किया जा रहा है बल्कि सियासी रार के चलते यह आज भी राज्यसभा में पारित होने की बाट जोह रहा है। यहां बताते चलें कि लोकसभा में यह पहले पारित किया जा चुका है। पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी जीएसटी के मामले में यह व्यक्त कर चुके हैं कि इससे देष की आर्थिक दषा सकारात्मक होगी। बावजूद इसके उन्हीं के दल के लोग इस मामले में अपना रूख नरम नहीं कर रहे हैं। असल में बीते दो वर्शों से जब से एनडीए की सरकार आई है और नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री बने हैं तभी से देष दो ध्रुवीय राजनीति में फंस गया है जबकि ऐसा होना नहीं चाहिए था। 44 लोकसभा की सीटों पर सिमटने वाली कांग्रेस आज भी राज्यसभा में संख्या बल के मामले में कहीं बेहतर है जिसके चलते सरकार के कई विधेयक लोकसभा की दहलीज तो पार कर लेते हैं पर राज्यसभा में अटक जाते हैं। इसकी मुख्य वजहों की पड़ताल की जाए तो काफी हद तक यह राजनीतिक विरोध के चलते होता है न कि विधेयक की खामियों की वजह से। यह बात जीएसटी के मामले में सौ फीसदी सही है। संसदीय षासन प्रणाली में विरोधी को मुद्दों की सियासत और सरकार को रचनात्मक सहयोग के लिए जाना-पहचाना जाता है पर दो साल में गुजर चुके आधा दर्जन सत्र की पड़ताल यह बताती है कि 16वीं लोकसभा का विपक्ष रचनात्मकता के मामले में काफी गिरावट लिए हुए है।
रोचक तथ्य तो यह भी है कि जीएसटी मोदी सरकार की ही कवायद नहीं है। पहली बार सन् 2000 में जीएसटी सम्बन्धी एम्पावर्ड कमेटी बनायी गयी उस समय भी एनडीए की सरकार थी जिसका नेतृत्व अटल बिहारी वाजपेयी कर रहे थे। यह अप्रत्यक्ष कर ढ़ाचे में सुधार लाने के लिए थी। इसी कमेटी के जिम्मे जीएसटी का माॅडल तैयार करना तथा आईटी से सम्बन्धित ढांचे को भी रूपरेखा देना था। केन्द्रीय स्तर पर एक्साइज़ ड्यूटी और सर्विस टैक्स तथा प्रांतीय स्तर पर वैट और स्थानीय कर इसके लागू होने के बाद समाप्त करने का लक्ष्य रखा गया। मतलब साफ था कि कर ढांचे को तर्कसंगत बनाना और देष को एक एकीकृत व्यवस्था देना था। जिसे यूपीए सरकार के कार्यकाल के दौरान पेष किया गया परन्तु राज्यों से असहमति के कारण यह पास नहीं हो सका जिसकी मुख्य वजह पेट्रोलियम, तम्बाकू और षराब पर लगने वाला टैक्स था। ये टैक्स जीएसटी के चलते समाप्त हो जाते। इसके चलते राज्यों ने भारी राजस्व नुकसान को देखते हुए इसका विरोध किया। गौरतलब है कि कई राज्यों के कुल राजस्व का यह दो-तिहाई होता है। एक दषक से यूपीए सरकार से लेकर एनडीए सरकार तक जीएसटी को लेकर गम्भीरता दिखाई जा रही है पर अधिनियम के रूप में इसे ला पाने में कोई सरकार सफल नहीं दिखती। इस मामले में मोदी सरकार की गम्भीरता तो दिखती है मगर राज्यसभा में इनकी संख्याबल की कमी और कांग्रेस के एकमत न होने से मामला जस का तस बना हुआ है।
 गौरतलब है कि केन्द्र और राज्य के बीच विवाद झेल रहा जीएसटी विधेयक जिसे वर्श 2014 में 122वें संविधान संषोधन के तहत षीत सत्र में पेष किया गया था और प्रधानमंत्री मोदी ने इसे 1 अप्रैल, 2016 में लागू करने की बात कही थी। इस बार भी अधिनियमित होने से वंचित रह गया और प्रधानमंत्री की घोशणाओं का भी कोई मतलब नहीं हर गया। मौजूदा बजट सत्र में भी जीएसटी एक भी कदम आगे नहीं बढ़ पाया। देखा जाए तो केन्द्र और राज्य के बीच टैक्स बंटवारे को लेकर विवाद पहले ही खत्म हो चुके हैं। मौजूदा केन्द्र सरकार के वित्त मंत्री अरूण जेटली ने पहले ही कह दिया था कि इसके आने के बाद राज्यों को जीएसटी पर होने वाले घाटे पर पांच साल तक क्षतिपूर्ति मिलेगी। षुरूआती तीन साल पर षत् प्रतिषत, चैथे साल 75 प्रतिषत और पांचवे साल 50 फीसदी का प्रावधान किया गया। जीएसटी काउंसिल में राज्यों के दो-तिहाई जबकि केन्द्र के एक-तिहाई सदस्य होंगे साथ ही यह भी कहा गया कि राज्यों को एंट्री टैक्स, परचेज़ टैक्स तथा कुछ अन्य तरह के करों से जो घाटे होंगे उसकी भरपाई के लिए दो वर्श के लिए एक फीसदी के अतिरिक्त कर का प्रावधान किया गया है। उक्त संदर्भ को देखते हुए स्पश्ट है कि जीएसटी को लेकर सरकार ने कांटों को दूर करने की पूरी कोषिष की है। नेषनल काउंसिल आॅफ एप्लाइड इकोनोमिक रिसर्च के मुताबिक इसके लागू होने के पष्चात् जीडीपी में 0.9 से 1.7 तक का इजाफा किया जा सकता है। अनुमान तो यह भी है कि भारत की मौजूदा जीडीपी में 15 से 25 फीसदी का विकास दर बढ़ सकता है। बहरहाल आर्थिक दिषा के सुधार में महत्वपूर्ण समझे जा रहे इस विधेयक को लेकर पुनः आगे सम्भावनाएं तलाषी जायेंगी पर इसकी खासियत को देखते हुए इस पर एकमत होना यदि आर्थिक ढांचे का सबल पक्ष है तो विरोधियों को देर से ही सही इस पर मोहर लगा देनी चाहिए।

   
सुशील कुमार सिंह

No comments:

Post a Comment