Monday, May 23, 2016

परिपक्व लोकतंत्र के परिचायक चुनावी नतीजे

बीते 19 मई को घोशित पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के नतीजे वाकई में राश्ट्रीय राजनीति को भी दिषा देने के काम आयेंगे। असम, पष्चिम बंगाल, केरल, तमिलनाडु और पुदुचेरी विधानसभा चुनाव के परिणाम भाजपा के लिए बेहद सकारात्मक रहे हैं जबकि कांग्रेस की जो स्थिति 2014 के लोकसभा चुनाव के दौरान थी लगभग वही बनी हुई है। चुनाव-दर-चुनाव कांग्रेस के किले पर भाजपा का कब्जा होता जा रहा है, जिससे यह भी संकेत स्पश्ट हो चला है कि आज से तीन बरस पहले भाजपा ने जो कांग्रेस मुक्त भारत का अभियान चलाया था वह मुकम्मल होता दिखाई दे रहा है। पिछले लोकसभा के चुनाव के दौरान कांग्रेस 14 राज्यों पर काबिज थी जो अब सिमट कर आधा दर्जन राज्यों तक सीमित हो गई है वहीं भाजपा ठीक इसके उलट ताजे नतीजों के साथ 14 राज्य पर स्वयं काबिज हो चुकी है। असल में जब 13 सितम्बर, 2013 को भाजपा ने नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री का उम्मीदवार घोशित किया था तभी से पूरे भारत में लोकसभा चुनाव को लेकर मोदी ने एक महाअभियान छेड़ रखा था और उनके जादू का लोहा तब माना गया जब 16 मई, 2014 के नतीजे में स्पश्ट बहुमत के साथ मोदी का प्रधानमंत्री बनना तय हुआ। आवेग और आवेष के साथ मोदी न केवल 16वीं लोकसभा के हीरो साबित हुए बल्कि दस बरस से केन्द्र की सत्ता में विराजमान कांग्रेस को भी जमा 44 सीटों पर सीमित कर दिया। उन दिनों षायद ही कांग्रेस मुक्त भारत की अवधारणा को लेकर कोई इतना संवेदनषील रहा हो पर विगत् दो वर्शों से जिस प्रकार लगातार कांग्रेस विधानसभा चुनाव में परास्त हो रही है उसे देखते हुए अब इस पर संदेह कम ही रह गया है। इस बार भी असम और केरल कांग्रेस के हाथ से निकल चुका है जबकि पष्चिम बंगाल और तमिलनाडु में क्रमषः ममता बनर्जी और जयललिता की वापसी हुई है।
भारतीय राजनीति के फलक पर भाजपा अधिक रसूकदार बनकर उभरी है इसमें कोई षक नहीं है। जिस प्रकार असम में बहुमत और केरल, पष्चिम बंगाल सहित अन्य चार राज्यों में भारतीय जनता पार्टी ने प्रदर्षन किया है उसे देखते हुए यह लगने लगा है कि भाजपा अब पैठ के मामले में अखिल भारतीय स्तर को प्राप्त कर चुकी है। हालांकि असम में सत्ता विरोधी लहर के चलते भी कांग्रेस की हार मानी जा सकती है। गौरतलब है कि यहां कांग्रेस ने 15 साल तक षासन किया है। एक लोकतांत्रिक और मजबूत बात यह भी है कि किसी भी प्रदेष के नतीजों का त्रिषंकु का न होना भी इस बात का स्पश्ट संकेत है कि भारत की जनता लोकतंत्र को किसी झंझवात में डालने के बजाय एक स्पश्ट राय रखने लगी है। इससे लोकतंत्र की परिपक्वता का भी पता चलता है। जयललिता ने तमिलनाडु में इतिहास रचा है तो पष्चिम बंगाल में ममता बनर्जी ने भी यही काम किया है साथ ही केरल और तमिलनाडु के नतीजों ने एक बार फिर यह साफ किया है कि क्षेत्रीय दलों की क्या एहमियत होती है। हालांकि पुदुचेरी के नतीजे कांग्रेस को राहत दे सकते हैं पर खोने और पाने के बीच में इतना फासला है कि कांग्रेस को एक बार नये सिरे से होमवर्क करने की जरूरत पड़ेगी। कांग्रेस की हालत यह है कि छोटे और क्षेत्रीय दलों से गठबंधन के बावजूद हाषिये पर ही रह गयी। इसके पूर्व बिहार के चुनाव में महागठबंधन का हिस्सा बनकर 27 सीटों के साथ कांग्रेस बिहार में तुलनात्मक बेहतर प्रदर्षन के लिए समझी गयी परन्तु इसे बरकरार नहीं रख पाई। कांग्रेस को अगर उठ खड़ा होना है तो उसे पहले आन्तरिक लोकतांत्रिक प्रक्रिया को मन से पुर्नजीवित करना होगा। अक्सर कांग्रेस पर यह आरोप लगता रहा है कि इसके अन्दर का लोकतंत्र निर्जीव है। 
पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के नतीजे विपक्षी एकता को भी सोचने के लिए मजबूर कर सकते हैं। हालांकि जिस प्रकार पष्चिम बंगाल में ममता बनर्जी का प्रदर्षन है उसे देखते हुए भाजपा समेत मोदी को यह भी सोचना पड़ेगा कि उनकी तमाम कोषिषें ममता को हाषिये पर धकेलने के काम नहीं आ सकी जबकि इसी प्रदेष में वामदलों को तो इतना जोर का धक्का लगा है कि षायद वे अब कांग्रेस से समझौता करने से तौबा ही कर लेंगे। हालांकि कांग्रेस और वामदल हार के बाद एक-दूसरे पर ठीकरा फोड़ते हुए देखे गये। सियासी संदर्भ और निहित परिप्रेक्ष्य को देखते हुए ममता बनर्जी और जयललिता को राश्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में भी देखा जायेगा। सम्भव है कि आने वाले सियासत में इनका रसूक बढ़ सकता है। 60 के दषक में केरल से लेफ्ट सरकार की षुरूआत हुई थी आज एक बार फिर कांग्रेस से सत्ता फिसलकर उनके हाथ आई है। जाहिर है भारतीय सियासत के क्षितिज में लोप हो रहे लेफ्ट के लिए केरल की जनता ने संजीवनी दे दी है। कमाल की बात तो यह है कि यहां का नेतृत्व 92 वर्शीय वी.एस अच्युतानंदन कर रहे थे जो भारतीय राजनीति में सर्वाधिक वयोवृद्ध नेता के तौर पर भी जाने-समझे जाते हैं। 20वीं सदी के एक मलयाली कवि कुमारन आषान ने एक कविता लिखी थी जिसकी एक पंक्ति में यह था कि ‘अपने नियमों को बदलो नहीं तो तुम्हारे नियम तुम्हें बदल देंगे।‘ यह बात लेफ्ट के साथ कांग्रेस पर भी बाखूबी लागू होती है। कहा तो यह भी जाता है कि ‘सियासी मंजर कांटों से भरे न हो तो चलने का मजा क्या। फिलहाल कई कयासों और अनुमानों को दरकिनार करते हुए जो भी नरम-गरम परिणाम आये हैं वह देष की राजनीति में नई पटकथा लिखने के काम आयेंगे। थोड़ी चर्चा एक्ज़िट पोल पर भी कर लें जो असम, केरल और पष्चिम बंगाल में तो पास हुआ परन्तु तमिलनाडु और पुदुचेरी में फेल भी हुआ। 
इसमें कोई षक नहीं कि उपरोक्त पांच राज्यों के चुनाव के नतीजे आने वाले अन्य प्रदेषों के चुनाव के लिए रणनीति बनाने के काम भी आ सकते हैं। इतना ही नहीं उक्त नतीजे प्रधानमंत्री मोदी के लोप हो रहे करिष्मे को एक बार पुनः स्थापित करने के रूप में समझे जा सकते हैं। भाजपा के अध्यक्ष अमित षाह का तो यहां तक मानना है कि जनता ने प्रधानमंत्री के कामकाज पर मोहर लगाई है। हालांकि जिस रौब के साथ प्रधानमंत्री ने चुनाव के दौरान तूफानी रेलियां की थीं उसकी एवज में असम को छोड़ अन्य प्रदेषों में प्रदर्षन बहुत उच्च स्तरीय नहीं माना जा सकता पर एक जीत भी उनकी इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि इसके पहले वहां उनका कोई सियासी रसूक नहीं था। इस बात को भी समझ लेना ठीक होगा कि प्रधानमंत्री मोदी के विकास के वायदों से भी वोटरों को लुभाने में मदद मिली है। असम के लिए तो यह बात सौ फीसदी सही है। इन सबके अलावा अच्छी बात यह है कि लोकतंत्र अब तुलनात्मक कहीं अधिक परिपक्व होता दिखाई दे रहा है। हालांकि कई विधाओं में अभी भी नये सिरे से सोच विचार की जरूरत है पर जिस प्रकार से राश्ट्रीय और क्षेत्रीय राजनीति का स्वरूप बदलता जा रहा है उसे देखते हुए कहना सम्भव है कि गठबंधन का दौर राश्ट्रीय पार्टियों के लिए भी समाप्त नहीं हुआ है। इस नतीजे का एक फायदा यह भी है कि राज्यसभा में संख्याबल को लेकर मोदी की जो परेषानी है वह आगामी कुछ दिनों में राहत देने वाली हो सकती है। हाल ही में 57 राज्यसभा सदस्यों का चुनाव होना है। फिलहाल मिलाजुला कर इस चुनाव को भाजपा के लिए उम्मीदों से भरा तो कहा ही जा सकता है परन्तु कांग्रेस के लिए खोने के अतिरिक्त षायद ही कुछ रहा हो।

सुशील कुमार सिंह


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