Friday, May 6, 2016

शिक्षा के व्यापारीकरण के बीच उत्कृष्टता की चिंता

विगत् कुछ वर्शों से षिक्षा के मामले में भी ऐसा देखा गया है कि उच्चतम न्यायालय के हस्तक्षेप के बगैर मामला पटरी पर नहीं आ पा रहा है। चाहे मसला इंजीनियरिंग एवं मेडिकल काॅलेजों में सीटों के निर्धारण का रहा हो या फिर फीस पर अंकुष लगाने की, देष की षीर्श अदालत को इस मामले में भूमिका निभानी ही पड़ी है। अभी एक पखवाड़ा भी नहीं हुआ था कि उच्चतम न्यायालय ने दूसरी बार ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए निजी मेडिकल काॅलेजों को अपने निर्णयों के चलते एक बार फिर झटका दिया है जिसमें मेडिकल काॅलेजों में भरी जाने वाली 85 फीसदी सीटें सरकारी कोटे के तहत होंगी जबकि इसके पूर्व 42 फीसद सीटें ही इसके अन्तर्गत आती थीं। इस आदेष से देष के 600 से अधिक निजी मेडिकल काॅलेज प्रभावित होंगे। जाहिर है कि इन्हें सुप्रीम कोर्ट के इस निर्देष के चलते आर्थिक चिंता सताने लगी होगी। बीते दिन षीर्श अदालत ने यह भी कहा था कि षिक्षा व्यापार नहीं बल्कि उत्कृश्ट कार्य है। ऐसे में यह साफ है कि उच्चतम न्यायालय की सोच पैसे के तोल-मोल में फंसी षिक्षा व्यवस्था को पटरी पर लाने की है। अचरज और हैरत तो यह भी है कि दिन दूनी रात चैगुनी की तर्ज पर षैक्षणिक संस्थाएं उद्यम में तब्दील हो रही हैं। देखा जाए तो वर्श 1991 के आर्थिक उदारीकरण के बाद से भारत की षैक्षणिक संस्थाओं का बाकायदा उद्यमीकरण षुरू हुआ। षनैः षनैः समाज में आदर्ष स्थापित करने वाली ये संस्थाएं व्यवसाय के अड्डे बनते चले गये जिसका खामियाजा आर्थिक रूप से ऊंच-नीच की खाई में फंसे भारतीय समाज को बाखूबी चुकाना पड़ा। आंषिक तौर पर ही सही यह बात सच है कि षिक्षा में पनपी आर्थिक खाई ने उसकी उत्कृश्टता को भी जोखिम में डाल दिया। विगत् दो दषकों से अनायास ही एक नई अवधारणा यह भी विकसित हो गयी कि मानो महंगी षिक्षा का मतलब ही बेहतर षिक्षा हो, जिसे समुचित विचारधारा का कोई भी व्यक्ति स्वीकार नहीं करेगा।
मेडिकल काॅलेजों के लिए पूरे देष में एक प्रवेष परीक्षा नीट कराने के निर्देष के बाद षीर्श अदालत का ऐसे काॅलेजों के लिए सरकारी कोटें से 85 फीसदी सीटें भरने का निर्देष यकीनन कलेजे को ठण्डक पहुंचाने वाला है। बताते चलें कि इसके पूर्व 43 फीसदी सीटें डीमेट के जरिये स्वयं निजी मेडिकल काॅलेज भरते थे। असल में कहा जाए तो इस कोटे में काॅलेज सीटों की बिकवाली करते थे और इसकी एवज में मोटी रकम वसूलते थे। उच्चतम न्यायालय की पांच जजों की बेंच ने मध्य प्रदेष द्वारा निजी मेडिकल एवं डेंटल काॅलेजों के षुल्क एवं सीटों के आबंटन के सम्बंध में बनाये गये मध्य प्रदेष व्यावसायिक षिक्षण संस्थान प्रवेष एवं फीस विनिमय अधिनियम, 2007 को उचित ठहराते हुए एक अनुचित व्यवस्था पर विराम लगा दिया है। इस अधिनियम के निर्मित होने के चलते ऐसे निजी मेडिकल काॅलेजों के फीस और सीटें तय करने का अधिकार एएफआरसी (प्रवेष एवं षुल्क विनियामक आयोग) के पास आ गया था। हालांकि इस अधिनियम को मध्य प्रदेष हाई कोर्ट में चुनौती दी गयी थी पर अदालत ने इसे खारिज कर दिया था और अब सुप्रीम कोर्ट ने भी इसके पक्ष में निर्णय देते हुए यह साफ कर दिया है कि मेडिकल एवं डेंटल काॅलेजों को लेकर काॅलेज धारकों को उत्कृश्टता और गुणवत्ता के मामले में कोई रियायत नहीं दी जायेगी। जाहिर है कि सुप्रीम कोर्ट के हालिया निर्देष के चलते ऐसे काॅलेजों में होने वाली मनमानी पर न केवल लगाम लगेगा बल्कि उन्हें निर्धारित फीस पर प्रवेष भी देना होगा साथ ही सीटों पर होने वाली सौदेबाजी भी बन्द हो जायेगी। इस प्रकरण से डोनेषन के नाम पर बदनाम हो रहे षिक्षण संस्थाओं को भी सुकून का सांस लेने का अवसर मिलेगा। हांलाकि नीट के मामले में कई प्रदेष संतुश्ट नहीं हैं क्योंकि इसमें परीक्षा का माध्यम महज हिन्दी और अंग्रेजी भाशा है जबकि केरल और तमिलनाडु समेत कई प्रांत इसे स्थानीय भाशा में सम्पन्न कराने की मांग कर रहे हैं। संसदीय कार्यमंत्री वैंकेया नायडू ने इससे उपजी चिंता को लेकर कहा कि इससे जुड़े मामले को स्वास्थ्य मंत्री को अवगत करायेंगे। देखा जाए तो देष के सभी प्रान्तों को एक परीक्षा प्रणाली में ढालना स्वयं में एक चुनौतीपूर्ण कृत्य तो कहा जायेगा।
फिलहाल उक्त परिप्रेक्ष्य की पूरी विवेचना यह भी दर्षाती है कि सरकारी और प्राइवेट काॅलेजों में होने वाले मेडिकल दाखिलों की कमान देष की सबसे बड़ी अदालत ने संभाल ली है। इस मामले में फैसला सुनाते हुए न्यायालय ने संविधान में निहित अनुच्छेद 142 का इस्तेमाल कर न केवल पूर्व न्यायाधीष आर. एम. लोढ़ा कमेटी का गठन किया गया बल्कि यह भी कहा कि मेडिकल दाखिले की प्रक्रिया सरकार की देखरेख में ही सम्भव होनी चाहिए साथ ही मेडिकल काउंसिल आॅफ इण्डिया पर भी षीर्श अदालत ने जमकर निषाना साधा है जबकि इसके पहले वर्श 2013 में न्यायालय की पीठ के बहुमत के फैसले में यह भी कहा गया था कि एमसीआई को नीट के आयोजन का कोई अधिकार नहीं है यह केवल मेडिकल षिक्षा का नियमन करती है। प्राइवेट काॅलेजों पर सख्त उच्चतम न्यायालय एक ऐसी पारदर्षी व्यवस्था कायम करना चाहता है जिससे मेधावी और कमजोर वर्ग के छात्र दाखिले से वंचित न रह जायें। भले ही समाज में आर्थिक खाई पनपी हो पर डाॅक्टर बनने का सपना गरीबों का भी पूरा हो सके। यह बात सही है कि मेडिकल काॅलेजों समेत इंजीनियरिंग काॅलेजों में बीते दो दषकों में जिस कदर बेतहाषा वृद्धि हुई है और कमाई की जो होड़ मची है उससे देष में व्यावसायिक षिक्षा का स्तर बहुत कमजोर हुआ है। निहित संदर्भ यह भी है कि बरसों से पटरी से उतर रही उच्चतर षिक्षा व्यवस्था को सषक्त और मजबूत बनाने के लिए कुछ कठोर कदम उठाने की आवष्यकता तो है पर इस पर भी ध्यान हो कि सुधार केवल प्रवेष परीक्षा तक ही नहीं बल्कि माध्यमिक एवं उच्चतर माध्यमिक पर भी हो ताकि इसे और अधिक व्यावहारिक बनाया जा सके।
देखा जाए तो सरकारी और निजी षैक्षणिक संस्थान देष में दो ध्रुवों के समान हो गये हैं और दो ध्रुवों में बंटे ये संस्थान षिक्षा लेने वालों की आर्थिक हैसियत का आंकलन भी खूब करवा देते हैं। देष में 17 आईआईटी समेत दर्जनो मैनेजमेंट के संस्थान आईआईएम हैं। इसके अलावा हजारों की संख्या में इंजीनियरिंग एवं डेंटल और मेडिकल काॅलेज हैं जिसमें सर्वाधिक संख्या निजी की है और यहीं पर पारदर्षी नियम का बाकायदा आभाव भी है। जाहिर है कि सुप्रीम कोर्ट के ताजे निर्देष के चलते काफी हद तक ऐसी चिंता दूर हो सकेगी परन्तु बीते कुछ वर्शों से सरकारी संस्थानों में भी फीस बढ़ोत्तरी को लेकर व्यापक प्रसार किया जा चुका है। आईआईटी से इंजीनियरिंग करने वालों की फीस 90 हजार से तीन लाख करने की बात बीते कुछ माह पूर्व  कही गयी है जबकि आईआईएम में कुछ समय पूर्व फीस में बढ़ोत्तरी हो चुकी है। इसके अलावा प्रतिभा होने के बावजूद निजी इंजीनियरिंग और मेडिकल काॅलेजों की फीस उनके बूते के बाहर है। निजी मेडिकल काॅलेजों के हालात तो इस कदर पटरी से उतरे हैं कि यहां की भारी भरकम फीस तो है ही साथ ही डोनेषन सोच कर अभिभावकों के पसीने छूटने लगते हैं। उपरोक्त संदर्भ के चलते देष की तकनीकी और स्वास्थ्य सम्बंधी षिक्षा कहीं न कहीं चरमराई प्रतीत होती है। बरसों से लाख जतन करने के बावजूद अनुकूल व्यवस्था व्याप्त नहीं हो पाई पर सुप्रीम कोर्ट के ताजे फैसले से बेहतर होने की उम्मीद जगी है।


   
सुशील कुमार सिंह

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