Monday, May 9, 2016

उत्तराखंड में एक साथ कई इतिहास

दो दिन का खेल बचा है आज यानि मंगलवार को फ्लोर टेस्ट तो कल यानि बुधवार को देष की षीर्श अदालत की यह घोशणा कि हरीष रावत सरकार पास हुई या फेल। असल में फ्लोर टेस्ट तो देहरादून की विधानसभा में होगा पर पास-फेल की घोशणा उच्चतम न्यायालय करेगा। देखा जाए तो इसके पहले एक करोड़ की जनसंख्या वाले भारत के इस 27वें राज्य में जो घटा वह पहले न देखा, न सुना गया। संविधान का इतिहास और इतिहास से संविधान का बड़ा गहरा नाता है मगर मौजूदा परिस्थिति में ऐसी संवैधानिक गुत्थी उलझी कि उत्तराखण्ड एक साथ कई इतिहास बनाने की ओर है। बीते 18 मार्च से लेकर आज तक प्रदेष के सियासी समीकरण ऐसे रास्ते अख्तियार करेंगे इसकी कल्पना न ही किसी सियासतदान को थी और न ही विष्लेशकों को। हां यह सही है कि दोनों को एक नये सिरे से सियासत समझने का अवसर जरूर मिला है। ताजा हालात यह है कि नैनीताल उच्च न्यायालय ने कांग्रेस के नौ बागी विधायकों की सदस्यता समाप्त करने वाले स्पीकर के निर्णय को बरकरार रखा है। जिसके चलते सूबे की सियासत पहले से कहीं अधिक सतरंगी हो गयी है।  हालांकि 27 मार्च को स्पीकर द्वारा कांग्रेस के इन बागी विधायकों की सदस्यता रद्द किये जाने के बाद से ही यह कयास लगाये जा रहे थे कि इनकी वापसी निहायत कठिन है। आनन-फानन में हाईकोर्ट के फैसले को तुरन्त सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गयी। सुप्रीम कोर्ट ने भी हाईकोर्ट के निर्णय को बरकरार रखते हुए इस मामले में 12 जुलाई को अगली सुनवाई की तारीख तय कर दी। इस प्रकरण के चलते हरीष रावत को बहुमत साबित करने में जहां आसानी हो सकती है वहीं भाजपा की उम्मीदें पहले की भांति फिर तार-तार हुई हैं। यहां यह भी स्पश्ट करते चलें कि न्यायालयों के फैसले से भले ही हरीष रावत के लिए रास्ते समतल हुए हों पर स्टिंग की दोहरी मार ने इनके सियासी रसूक को रसातल में ले जाने का काम भी किया है। प्रदेष में 27 मार्च से राश्ट्रपति षासन लगा है। आरोप-प्रत्यारोप के दौर के बीच यहां की सियासत में लोकतंत्र बचाओ की अवधारणा भी बीते डेढ़ माह से जोर पकड़े हुए है। इन सबके बीच विधायकों के खरीद-फरोख्त की खबरें भी उत्तराखण्ड के पहाड़ी वातावरण में छाई रहीं। इसके अलावा अब नया समीकरण यह है कि बसपा के दो विधायक समेत कांग्रेस के कुछ विधायकों का हरीष रावत से मोह भंग हुआ है। यदि ऐसा टेस्ट फ्लोर पर भी हुआ तो हाईकोर्ट, सुप्रीमकोर्ट का फैसला भी इनके किसी काम का नहीं होगा।
 फिलहाल सियासत का ऊंट किस करवट बैठेगा बदल रही राजनीति के बीच पूरा आंकलन करना अभी सम्भव नहीं है परन्तु इन सबके बीच यह भी संकेत मिल रहा है कि या तो प्रदेष में हरीष रावत की वापसी होगी या फिर समय से पहले उत्तराखण्ड चुनाव में झोंक दिया जायेगा। संकेत तो इस बात के भी हैं कि हो न हो उत्तर प्रदेष की तर्ज पर जैसा कि 2001 में समाजवादी पार्टी के सौ विधायकों ने एक साथ इस्तीफा देकर विधानसभा भंग करने का दबाव बनाया था ठीक उसी भांति भाजपा के 28 विधायक भी ऐसा कर सकते हैं। इससे यह भी स्पश्ट हो रहा है कि इस कड़वी हो चुकी सियासत का स्वाद बीजेपी षायद सत्ता के रूप में नहीं लेना चाहती पर इसे और कसैला बनाने में वह कोई कोर-कसर भी नहीं छोड़ना चाहती। काफी हद तक बीजेपी भी दो अर्थों में फंसी दिखाई देती है। पहला यह कि हरीष रावत की वापसी नहीं होने देना है यदि हो गयी तो इनकी मेहनत का क्या होगा। दूसरे यदि हरीष रावत बहुमत सिद्ध नहीं कर पाते हैं तो बीजेपी स्वयं सरकार बनाने के मामले में तत्पर नहीं दिखती है क्योंकि वह जानती है कि जिस प्रकार प्रदेष की सियासत डैमेज हुई है उसे देखते हुए मतदाताओं के मन में अपने लिए सत्ता के साथ जगह बना पाना सम्भव नहीं होगा पर एक सच यह है कि जिस प्रकार हरीष रावत की छवि डैमेज हो रही है उसका फायदा बीजेपी को जरूर मिलेगा। इन सबके बीच लोकतंत्र की गौरवगाथा किस इतिहास को अमल करने वाला है इसका खुलासा भी आगामी दो दिन में हो जायेगा। ऐसे में प्रदेष की राजनीति का पहिया तेजी से घूम रहा है। यह राजनीति का तकाजा ही है कि बड़े से बड़ा धुरंदर यदि सियासी बुराईयों से जकड़ लिया जाए तो ढ़ाक के तीन पात हो जाता है और यदि इसकी ऊँचाईयों को प्राप्त कर ले तो कई पीढ़ियों की गौरवगाथा बन जाता है।
फिलहाल उथल-पुथल के इस दौर में सोमवार को हरीष रावत को सीबीआई के सामने भी होने का अल्टीमेटम था। एक रोचक और अद्भुत प्रसंग यह भी है कि 10 मई को साढ़े दस बजे से लेकर 1 बजे के बीच प्रदेष में राश्ट्रपति षासन को विराम दिया जायेगा। ऐसा सात दषकों में कभी नहीं हुआ कि राश्ट्रपति षासन इस तरह लगाया और हटाया गया हो। इसी विराम के बीच फ्लोर टेस्ट किया जायेगा। जाहिर है कि 9 बागी को हटाने के बाद मनोनीत सहित 62 के मुकाबले 32 विधायकों का समर्थन बहुमत के लिए चाहिए जो कि हरीष रावत के लिए कठिन नहीं है परन्तु बदले हालात के चलते कांग्रेस का घर एक बार फिर टूट सकता है। ऐसे में सत्ता दूर की कौड़ी हो सकती है। सुप्रीम कोर्ट ने बीते 6 मार्च को जब फ्लोर टेस्ट का निर्णय दिया था तब साथ में यह भी कहा था कि यदि हाईकोर्ट बागियों की सदस्यता बहाल करता है तो मतदान में वे भी भागीदारी कर सकेंगे। साफ है कि हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के फैसले से परास्त बागी न घर के हुए न घाट के। एक बात और अक्सर स्पीकर के बर्खास्तगी वाले निर्णय के मामले में न्यायालयों के निर्णय बहुत देर से आये हैं जिसका कोई खास मतलब सिद्ध होता नहीं दिखाई दिया है। मसलन दो दषक के आस-पास जब उत्तर प्रदेष में बसपा के मामले में स्पीकर केसरी नाथ त्रिपाठी के निर्णय को इलाहाबाद हाईकोर्ट में चुनौती दी गयी थी और जब तक दल-बदल को लेकर अन्तिम निर्णय आया कल्याण सिंह सरकार के पांच साल का कार्यकाल पूरा हो चुका था। हालांकि उत्तराखण्ड के मामले में ऐसा नहीं हुआ।
दल-बदल कानून पहली बार 1985 में आया था जिसके लिए संविधान में दसवीं अनुसूची जोड़ी गयी तत्पष्चात् एसआर बोम्मई, केस 1994 में उच्चतम न्यायालय की इस मामले में एक गाइडलाइन आई जिसमें कई बिन्दु थे साथ ही इसे और पुख्ता बनाने के लिए 2003 में नये सिरे से संषोधन भी हुआ। इसके पीछे मंषा थी कि किसी भी सूरत में दल-बदल कानून को पुख्ता किया जाए और दल बदलुओं को बख्षा न जाये। उच्चतम न्यायालय के हालिया निर्णय से यह और साफ होता है कि दल बदलुओं के प्रति रत्ती भर उदारता नहीं दिखाई जायेगी। अक्सर यह भी रहा है कि अन्तिम विकल्प के रूप में प्रयोग किया जाने वाला अनुच्छेद 356 केन्द्र सरकारों की बिना खास होमवर्क किये राज्य सरकारों को उखाड़ने के लिए पहले विकल्प के तौर पर ही इस्तेमाल कर दिया गया है। आज हरीष रावत विधानसभा में बहुमत सिद्ध कर पाते हैं या नहीं परन्तु अनुच्छेद 356 के मामले में भाजपा कांग्रेस का रास्ता अख्तियार करते हुए ही दिखाई दे रही है। सियासत में महत्वाकांक्षा का गैर सीमित होना संविधान और प्रजातंत्र दोनों के लिए खतरा होता है। इन्हीं खतरों को भांपते हुए नैनीताल हाईकोर्ट समेत देष की षीर्श अदालत ने निर्वचन के मामले पटरी से उतर चुकी सियासत के बीच अपनी निरपेक्ष ताकत झोंकने की कोषिष की है जो भविश्य में लोकतंत्र के लिए मील का पत्थर सिद्ध होगा।

   
सुशील कुमार सिंह

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