Tuesday, May 3, 2016

एक उद्यमी का सियासी वजूद

देश की जमा सात दशक  की सियासत में कई उतार-चढ़ाव देखे जा सकते हैं। चाहे सदन उच्च हो या निम्न राजनीति हमेषा रोचक और हैरत से भरी रही है पर ऐसा पहली बार हो रहा है जब कर्ज से डूबे षराब के कारोबारी और राज्यसभा के सदस्य रहे विजय माल्या पर षिकंजा कसने के चलते सदन की सदस्यता से इस्तीफा देना पड़ा हो। नौ हजार करोड़ से अधिक के कर्जदार विजय माल्या फिलहाल देष छोड़ चुके हैं और तभी से उन पर षिकंजा कसने की कवायद जोर पकड़ने लगी पर नतीजे ढाक के तीन पात ही रहे हैं। दरअसल स्टेट बैंक आॅफ इण्डिया समेत 17 बैंकों ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल कर कहा था कि लोन के मामले में देष की षीर्श अदालत उन्हें कोर्ट में पेष होने के लिए कहे। हालांकि इस बीच माल्या का पास्टपोर्ट भी रद्द कर दिया गया और उनके खिलाफ गैर जमानती वारंट भी जारी किया गया परन्तु मामला एकतरफा ही रहा और विजय माल्या की ओर से कोषिषों पर कोई खास प्रतिउत्तर नहीं मिला। मार्च के प्रथम सप्ताह से ही माल्या देष छोड़ चुके हैं और उनकी वापसी की सारी कवायदे धरी की धरी रह गयी हैं। माल्या ने भी बीते दिनों पत्र लिखकर जो हालिया बयान किया है वो भी अचरज वाले ही जाहिर होते हैं पत्र के माध्यम से कहा है कि मुझे निश्पक्ष सुनवाई या न्याय नहीं मिलेगा इसलिए मैं राज्यसभा की सदस्यता से इस्तीफा देता हूं। पत्र के आलोक में यह भी परिलक्षित होता है कि माल्या को देष की न्यायिक व्यवस्था पर मानो भरोसा ही न हो। सवाल है कि रसूकदार और कई आदतों के चलते चर्चित उद्यमी माल्या को भारत छोड़ने के लिए आखिर किसने मजबूर किया? लंदन में लैण्डिंग के बाद से ही कयास लगाये जाने लगे थे कि माल्या की वापसी षायद ही हो जो अब सही प्रतीत होती है।
कारोबारी दुनिया में प्रवेष करने वाले माल्या को बीस बरस की उम्र में उद्यम के नुस्खे विरासत में मिले थे और 60 साल की उम्र आते-आते कारोबार के क्षेत्र में ऐसा पेंग बढ़ाया कि उन्हें देष ही छोड़ना पड़ गया। तथाकथित परिप्रेक्ष्य यह भी है कि दिन दूनी रात चैगुनी की तर्ज पर विकास करने वाले कारोबारी सही विष्लेशण और विवेचना के आभाव में कभी-कभी ऐसे ही कठिनाइयों में फंस जाते हैं। दुनिया भर में अकूत दौलत इकट्ठा करने वाले माल्या देष के बैंकों का कर्ज चुकाये बिना ही देष को छोड़ना ही बेहतर समझा और अब लंदन में बैठकर निश्पक्ष न्याय नहीं मिलेगा जैसे वक्तव्य दे रहे हैं। वर्श 2002 में कर्नाटक विधानसभा के माध्यम से राजनीति में कदम रखने वाले माल्या राज्यसभा तक की यात्रा में भी काफी उतार-चढ़ाव रहे हैं। फिलहाल उनके इस्तीफे के साथ उनका राजनीतिक सफर भी यहीं पर विराम लेता है और इसके पीछे किंगफिषर की उस उड़ान को षामिल किया जा सकता है जिसके कर्ज की गठरी इतनी भारी हो गयी कि चुकाना मुनासिब नहीं समझा गया। वर्श 2003 में किंगफिषर एयरलाइंस की षुरूआत की गयी थी। जिस रखरखाव और साजो-सामान के साथ किंगफिषर को धरातल से आसमान पर उड़ाने की परिकल्पना की गयी थी वह हवाई यात्रा की दुनिया में काफी नायाब हो सकती थी परंतु उसका हश्र इतना बुरा होगा इसकी कल्पना षायद ही किसी को रही हो। 2012 आते-आते एयरलाइंस वित्तीय घाटे में आ गयी और यहां से कहानी बदल गयी। विरासत में व्यवसाय संभालने वाले माल्या सर्वश्रेश्ठ सेलिंग वाला यदि कोई कार्य किया है तो वह किंगफिषर बियर है जिसे उनकी असली उड़ान कही जा सकती है परन्तु किंगफिषर के मामले में उनकी एक ऐसी घातक लैण्डिंग हुई कि एक बड़े कर्जदार के रूप में भारत में प्रतिश्ठित हो गये। गौरतलब है कि विजय माल्या का उद्यमी इतिहास भी किसी फिल्मी कहानी से कम नहीं है।
षानो-षौकत और चमक-दमक जीवनषैली जीने के लिए जाने जाने वाले माल्या बैंकों के साथ सैटलमेंट करने के बजाय डिफाॅल्टर होना कहीं बेहतर समझा। जब से माल्या ने देष छोड़ा है सांसदों के एथिक्स को लेकर भी प्रष्न उठे हैं। देखा जाए तो विगत् कुछ वर्शों से जनप्रतिनिधियों के आचरण और नैतिकता को लेकर काफी गिरावट आती जा रही है। लगातार प्रतिनिधियों की अपराधिक छवि को लेकर देष की षीर्श अदालत ने अपने एक अहम फैसले में 10 जुलाई 2013 को जनप्रतिनिधि अधिनियम की धारा 8(4) को यह कहते हुए खारिज कर दिया था कि यह संविधान के अनुच्छेद 14 में प्रदत्त समानता के अधिकार में खरी नहीं उतरती। इस फैसले पर क्या सत्ता क्या विपक्ष दोनों में खलबली मची। दरअसल देष की संसद में बैठे जनप्रतिनिधियों की ऐसी कोई छानबीन नहीं हो पाती है जिनकी छवि को लेकर कोई साफ-सफाई सामने आ सके। आंकड़ें यह बताते हैं कि लाख जतन करने के बावजूद भी कमजोर आचरण वाले 25 से 30 प्रतिषत सदस्य मिल ही जाते हैं। विजय माल्या जैसे लोग भी इसके एक अंग हैं। विजय माल्या के आचरण को लेकर भी 11 सदस्यी एथिक्स कमेटी ने इस पर मार्च से ही काम करना षुरू कर दिया था। कमेटी के अध्यक्ष भाजपा के वरिश्ठतम् लाल कृश्ण आडवाणी हैं। 25 अप्रैल की अपनी बैठक में आम राय से फैसला किया था कि माल्या को अब सदन का सदस्य नहीं रहना चाहिए। जिसे लेकर 3 मई को होने वाली अगली बैठक में उन्हें निश्कासित करने की योजना बन रही थी। उसके ठीक पहले ही माल्या ने स्वयं इस्तीफा देकर एथिक्स कमेटी से यह मौका छीन लिया।
हमेषा यह अपेक्षा रही है कि देष के सर्वोच्च सदन में बैठे प्रतिनिधि बेहतर उदाहरण पेष करें। बावजूद इसके विजय माल्या जैसे नीति निर्माता समस्याओं का डटकर सामना करने के बजाय देष छोड़ने को वाजिब समझते हैं। यह चिंताजनक है कि अरबों के व्यापारी माल्या देष के बैंकों को बट्टा लगाकर देष छोड़ चुके हैं। राज्यसभा के सदस्य के तौर पर यह निहायत संवेदनषील मुद्दा है कि भारत सरकार के पास वर्तमान में ऐसी कोई जोड़-जुगाड़ नहीं है जिससे बैंकों को राहत और देष छोड़ चुके माल्या को वापस लाया जा सके। हालांकि इंग्लैंण्ड की सरकार से इस मामले में बातचीत चल रही है पर अंतिम सफलता किस हद तक होगी अभी कहना कठिन है पर ऐसा देखा गया है कि औपचारिक रूप से प्रत्यर्पण को लेकर देषों के बीच आपसी गाइड लाइन होती है जिसके मद्देनजर देर-सवेर विजय माल्या की वापसी भी तय मानी जा सकती है। ध्यान्तव्य है कि आज से तीन बरस पहले माल्या ने कर्ज लौटाने के लिए कर्ज मांगा था तब यूपीए की सरकार ने कोई खास तवज्जो नहीं दिया था। गौरतलब है कि बजाज के चेयरमैन राहुल बजाज ने उस दौरान यह भी कहा था कि जो डूब रहा है उसे डूबने दिया जाय। यह बात समझना थोड़ा मुष्किल है कि किसी बड़े कारोबारी को वित्तीय संकटों से उभारने के लिए देष में कैसी नीतियां हैं पर यह समझना आसान है कि कर्ज वापसी के रास्ते बिना समझे कर्ज देना पैर पर कुल्हाड़ी मारने जैसा है। पूर्व वित्त मंत्री पी. चिदम्बरम भी कह चुके हैं कि बैंकों के कर्ज गरीब चुकाने में अव्वल रहते हैं। जाहिर है जिन 17 बैंकों ने 9 हजार करोड़ रूपए से अधिक का कर्जदार विजय माल्या को बनाया है उनकी भी कुछ गलतियां हैं। बिना विवेचना और व्याख्या के बेषुमार कर्ज देना कितना उचित था? फिलहाल एक उद्यमी का एक बड़े कर्जदार के रूप में होना साथ ही देष छोड़ने तक की नौबत से देष का ही नुकसान हुआ है। रही बात राज्यसभा से इस्तीफा का तो व्यवस्था में लोग आते-जाते रहते हैं, चिंता तो घर वापसी की है।


  
सुशील कुमार सिंह

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