Wednesday, May 11, 2016

भारत-नेपाल संबंधों में कसैलापन

विगत् कुछ माह से भारत और नेपाल के बीच रिष्तों में पड़ी दरार देखने को मिल रही है परन्तु स्थिति नियंत्रण से बाहर नहीं कही जा सकती। ताजे घटनाक्रम में नेपाल के प्रधानमंत्री केपी ओली की सरकार ने अपने देष के राश्ट्रपति की भारत यात्रा रद्द कर दी जो 9 मई से षुरू होने वाली थी जबकि इसके पहले बीते 7 मई को अपने राजदूत को भी दिल्ली से वापस बुला लिया था। यह फैसला ऐसे वक्त में आया है जब ओली ने अपने साथियों, माओ का समर्थन प्राप्त कर लिया। साफ है कि सरकार का संकट खत्म होने के साथ फैसले भी सख्त हुए हैं। देखा जाए तो नेपाल के अंदरूनी मामले में भारत कभी भी किसी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं किया है बल्कि मुष्किल वक्त में एक बेहतर पड़ोसी की भूमिका अदा करने में पीछे नहीं रहा है। मसलन अप्रैल, 2015 के भूकम्प में भारत ने वह सब किया जो कोई देष अपने देष के लिए करता है पर काठमाण्डू से दिल्ली की दूरी उन दिनों से बढ़ी है जब से नेपाल में नया संविधान अंगीकृत किया गया। लगभग सात साल की मषक्कत के बाद 2015 के सितम्बर माह की 20 तारीख को नेपाल में नया संविधान प्रतिस्थापित हुआ मगर बखेड़ा तब खड़ा हो गया जब देष की बहुसंख्यक आबादी वाले मधेसियों ने इसे ठुकरा दिया। आरोप था कि संविधान के माध्यम से उन्हें अधिकार विहीन बनाते हुए हाषिये पर धकेला गया है। यह संदर्भ भारत को भी काफी हद नागवार गुजरा था। भारत ने अपने रूख से नेपाली संविधान के प्रति चिंता का इज़हार किया था। नेपाल को जहां इसे एक प्रतिक्रिया के रूप में देखना चाहिए था उसने षायद इसे दखल के रूप में मान लिया। यहीं से सम्बन्धों की गांठ ढीली पड़ती दिखाई देती है। भारत पर अनाप-षनाप आरोप लगाते हुए नेपाल ने मुंह मोड़ने की कोषिष की। आरोप तो यहां तक थे कि भारत सीमा पर रसद सामग्री समेत कई जरूरी सामान को आगे नहीं बढ़ने दे रहा है जबकि सच्चाई यह थी कि ऐसा उन्हीं के देष में रहने वाले मधेसियों के चलते हो रहा था। नेपाल ने मामले को तूल देते हुए यह भी धमकी दी कि यदि भारत का रवैया सकारात्मक नहीं होता है तो वह चीन की तरफ जा सकता है। चीन के लिए नेपाल का इतना झुकाव होना काफी था जिसे लेकर चीन ने नेपाल को अपने स्तर पर राहत पहुंचा कर भारत से यह दूरी बढ़ाने में कुछ हद तक मदद करने का काम ही किया ही किया है।
हालांकि भारत-नेपाल के रिष्ते में एक बार फिर मिठास घुलते हुए तब देखी जा सकती है जब नेपाल के प्रधानमंत्री ओली विगत् दिनों अपनी पहली विदेष यात्रा पर नई दिल्ली पहुंचे और उन्होंने यहां छः दिन गुजारे। यह इस बात का भी संकेत है कि भले ही नेपाल का झुकाव चीन की तरफ रहा हो पर उनकी पहली पसंद तो भारत ही है। इतना ही नहीं भारत भी उन्हें यह भरोसा दिलाने में सफल रहा कि नेपाल में सरकार किसी की भी हो वह उसका अहित नहीं सोच सकता। ओली ने भी कहा कि भारत के बारे में उनकी सारी षंकाएं निराधार और निर्मूल थी। स्पश्ट है कि भारत और नेपाल के बीच की दोस्ती एक बार फिर पटरी पर आते हुए दिखाई दी थी परन्तु हाल ही में राजदूत वापस बुलाने समेत राश्ट्रपति का दौरा रद्द करने के चलते एक बार फिर सम्बंधों में कसैलापन आ गया। यहां यह भी समझना जरूरी है कि दोनों देषों के बीच बिगाड़ इस स्तर तक का कभी नहीं रहा कि खटास को मिठास में बदलना दोनों के लिए कठिन रहा हो। प्रधानमंत्री ओली अगले माह चीन के दौरे पर जा रहे हैं उसके पूर्व भारत में की गयी ओली की यात्रा में यह संदेष छुपा रहेगा कि नेपाल की नई सरकार चीन के साथ सम्बंधों को लेकर जो भी रास्ता अख्तियार करे पर भारत के मामले में सदियों पुराने सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक रिष्तों को लेकर आंच नहीं आने देगा। प्रधानमंत्री ओली यह भी वादा करके गये हैं कि नेपाल हमेषा से भारत का भरोसेमंद देष रहा है और आगे भी रहेगा।
असल में जब सत्ताओं का रूपान्तरण होता है तब अभिरूचियों, नीतियों और कूटनीतियों में भी व्यापक फेरबदल होते हैं। प्रधानमंत्री सुषील कोइराला के बाद केपी ओली के प्रधानमंत्री बनने के साथ नेपाल इसी प्रकार की धारणा में बदलता हुआ दिखाई देता है पर एक बढ़िया बात यह रही है कि भारत ने नेपाल के अनाप-षनाप आरोपों को लेकर कभी अतिउत्तेजना नहीं दिखाई। भारत जानता है कि नेपाल की आन्तरिक और बुनियादी समस्या का सर्वकालिक समाधान भारत के माध्यम से ही सम्भव है। बावजूद इसके भारत ने कभी नेपाल को झुका हुआ राश्ट्र या कमजोर राश्ट्र की हैसियत से नहीं निहारा और न ही कभी सामरिक दृश्टि से नेपाल को पोशित करने की कोषिष की, जबकि चीन नेपाल को लेकर कुछ इसी प्रकार की सोच रखता है। देखा जाए तो नेपाल भारत के लिए एक बफर स्टेट का भी काम करता है। चीन नेपाल में किसी भी तरीके से भारत को पीछे छोड़ते हुए स्वयं को स्थापित करना चाहता है। ऐसे में चीन से उसकी प्रगाढ़ दोस्ती भारत के लिए कहीं से बेहतर नहीं कही जायेगी परन्तु सदियों से जो सम्बन्ध भारत का नेपाल के साथ है चीन के चलते षायद ही प्रभावित हो। फिलहाल सम्बंधों में विगत् कुछ माह से आई दरार से मोदी के विदेष नीति के लिए एक बड़ा धक्का तो है पर प्रधानमंत्री मोदी जानते हैं कि आतुरता में समाधान नहीं है। गौरतलब है कि मधेसी आंदोलन के दैरान जब नेपाल के राजनयिक से लेकर नेता तक भारत को खरी-खोटी सुना रहे थे तो उस दौरान भारत संयम बरतते हुए स्थिति को संभालने की कोषिष में लगा रहा। जाहिर है कि मोदी पड़ोसी नेपाल की समस्या को न केवल समझते हैं बल्कि उपचार के लिए भी तत्पर हैं। यह तो नेपाल की समझदारी है कि भारत की महत्ता को कितनी प्रमुखता देता है।
प्रधानमंत्री की पड़ोसवाद की अवधारणा को इस कथन से भी आंका जा सकता है जब उन्होंने अगस्त, 2014 में नेपाल यात्रा के दौरान यह कहा था कि दो पड़ोसी देषों के बीच सीमा को पुल का काम करना चाहिए न कि बाधा का। साफ है कि भारत बचकानी हरकत के मामले में न केवल कोसों दूर है बल्कि मोदी जैसे प्रधानमंत्री के वैदेषिक नीति में ऐसों के लिए कोई स्थान भी नहीं है। एक बात और मोदी विगत् दो वर्शों से नेपाल के प्रति जो रूख रखा है षायद ही किसी प्रधानमंत्री ने रखा हो जो निहायत सद्भावना से भरा, लोचषील और अपनत्व से युक्त है। कहा जाए तो भारत और नेपाल के बीच के सम्बन्ध कूटनीतिक होने के बजाय सुविधा प्रदायक नीति से अधिक प्रभावी रहे हैं। मोदी की प्रधानमंत्री के तौर पर यात्रा 26 मई, 2014 से षुरू हुई थी तभी से उन्होंने पड़ोसी देषों पर नये सिरे से ध्यान देना षुरू किया। पहली विदेष यात्रा भूटान से षुरू करते हुए 17 साल बाद किसी प्रधानमंत्री का नेपाल पहुंचना पड़ोसियों के प्रति मोदी की प्राथमिकता ही झलकती है साथ ही बेहतर इच्छाषक्ति भी। गौरतलब है कि दोनों देषों के सम्बन्धों में जो चाषनी घुली थी अब वो थोड़ी कड़वी हो चुकी है पर इसके कसैलेपन को दूर करने की जिम्मेदारी भारत से कहीं अधिक नेपाल की है।
   
 

सुशील कुमार सिंह

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