Tuesday, June 22, 2021

हम समय रहते कोरोना को दबोच नहीं पाये

देश में कोरोनावायरस को एक साल से अधिक वक्त हो चुका है। पहली लहर में यह महसूस तो हो गया था कि यह जान पर भारी पड़ने वाली एक ऐसी महामारी है जहां से वापसी के लिए सारे बंदोबस्त शीघ्र कर लेना है। मगर वक्त के साथ जो प्रबंधन और प्रशासन स्वास्थ्य की दृष्टि से होने चाहिए वह नाकाफी रहे। चेतना के मापदंड पर भी बाकायदा कोताही रही और देश का जनमानस इसके प्रति मानो बेफिक्र हो गया था। अब दूसरी लहर के चलते सांसे टूट रही है और जिंदगी प्रतिदिन की दर से दावं पर लगी हुई है। प्रदेश सरकारे इससे निपटने के लिए कर्फ्यू और लॉकडाउन का सहारा ले रही हैं और करोना कि इस भीषण तबाही से बाहर निकलने का प्रयास कर रही है मगर दूसरी लहर है कि रूकती ही नहीं है। दूसरी लहर की पीक को लेकर भी अलग-अलग दावे किए जा रहे हैं, कोई कहता है कि दूसरी लहर चल रही है और कुछ जानकारी तो यह भी है की मई के तीसरे और चौथे हफ्ते में कोरोनावायरस पीक पर होगा। जाहिर है जब अभी यह हाल है तब क्या होगा अंदाजा लगाना कठिन नहीं है। इतना ही नहीं तीसरी लहर की भी संभावनाएं व्यक्त की जा चुकी है। सवाल बड़ा भी है, गहरा भी और चौड़ा भी है कि आखिर कोरोना महामारी से कब निजात मिलेगी। कब देश सुरक्षित होगा और कब इसे पूरी तरह हम दबोच पाएंगे ? गौरतलब है कि साल 2020 के 24 मार्च को जब देश में लॉकडाउन की घोषणा हुई थी तब पूरे देश में मात्र 5 सौ कोरोना संक्रमित लोग थे और पहली लहर में अधिकतम एक लाख के आसपास यह आंकडा गया था । मौजूदा समय में कोरोना पीड़ितो से जुड़े आंकड़े तीन लाख से ऊपर है और कई बार तो यह चार लाख को भी पार कर चुका है। देखा जाय तो दूसरी लहर में  कोरोना पीड़ितो की बढ़ती संख्या और मौतों का उतार-चढ़ाव सारे रिकॉर्ड को तोड़ दिया है। मगर आज से 2 महीने पहले 1 फरवरी 2021 को पूरे भारत में मात्र 8587 ही केस और 94 मृत्यु का आंकड़ा था। फरवरी के अंत तक यह आंकड़ा 15 हजार से ऊपर और की मरने वालों की संख्या सौ से ऊपर रही। मार्च समाप्त होते-होते कोरोना संक्रमितों की संख्या 68 हजार से पार जबकि 295 मौत रिकॉर्ड की गई। 4 अप्रैल को यही संख्या एक लाख पार कर गई और जब की मौत का आंकड़ा 5 सौ के आसपास पहुंच गया। अप्रैल समाप्त होते-होते आंकड़ा जहां  साढ़े तीन लाख के पार पहुंच गया वहीं मरने वालों की संख्या 3 हजार के आसपास रही। मौजूदा समय में यही चार लाख के आसपास रोजाना की दर से केस और 4 हजार के आसपास मौत का भीषण तबाही वाला आंकड़ा देखा जा सकता है। आंकड़े इशारा करते हैं कि कोरोना भारत से अलविदा हो रहा था मगर दूसरी लहर के रूप में इतनी भीषण तबाही के साथ वापसी कैसे हुई , यह प्रश्न आज सबके सामने है।

इसमें कोई दुविधा नहीं कि देश की राजनीतिक और प्रशासनिक नेतृत्व में कुशल रणनीति और बेहतर समर्पण हो तो चुनौतियों को कमजोर किया जा सकता है। प्रबंध और प्रशासन की पहली महिला चिंतक मेरी पार्कर फालेट का नेतृत्व पर दिया गया विचार यहां कहीं अधिक प्रासंगिक प्रतीत होता है । उन्होंने कहा है कि सबसे अधिक सफल नेता वह है जो उस चित्र को देखता है जो अभी तक यथार्थ नहीं बना है। जाहिर है कि आने वाली चिंताओं और घटनाओं के प्रति नेतृत्व को कहीं अधिक दूरदर्शी होना चाहिए । ताकि यदि समस्या उत्पन्न हो भी जाए तो उसे रोकने में सफलता शीघ्र मिल जाए। देश की स्थिति कोरोनावायरस के चलते इन दिनों भायवाह है। सांस उखड़ रही है करोना  पीड़ितों की संख्या और उससे जुड़े आंकड़े आसमान छू रहे हैं। स्वास्थ्य सामग्री, हॉस्पिटल, दवाई और ऑक्सीजन सिलेंडर सहित तमाम कमियों से देश जूझ जूझ रहा है हालांकि विदेशी मदद चौतरफा मिल रही है मगर अभी राहत नहीं मिली।  गौरतलब है कि किसी भी देश की सामाजिक आर्थिक विकास उस देश के सेहतमंद नागरिकों पर निर्भर करता है। किसी भी देश के विकास की कुंजी उस देश के स्वस्थ नागरिक हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनेक रिपोर्ट से लेकर क्षेत्र विशेष हुए अनेक सर्वेक्षण से पता चलता है कि सार्वजनिक चिकित्सा व्यवस्था के क्षेत्र में सुशासन के संदर्भ में लचीले ही रहे। हालांकि सरकार ने साल 2021- 22 के स्वास्थ्य बजट 137 फीसद की वृद्धि करते हुए यह जताने का प्रयास किया है कि स्वास्थ्य को लेकर उसकी चिंता बढ़ी है। मगर कोरोना काल में इतना व्यापक धन भी ऊंट के मुंह में जीरा है। गौरतलब है कि दुनिया के बड़े और मझोले किस्म की अर्थव्यवस्था वाले देश में स्वास्थ्य बजट के मामले में कई देश भारत से कहीं आगे हैं। भारत में स्वास्थ्य और शिक्षा का जितना बजट होता है दक्षिण अफ्रीका जैसे देश कमोवेश उतने बजट स्वास्थ्य पर ही खर्च कर देते हैं। ऐसे ही कई उदाहरण दुनिया में और मिल जाएंगे जो स्वास्थ्य सुशासन के मामले में भारत से मील आगे हैं। साल 2019 के वैश्विक स्वास्थ्य सूचकांक के अनुसार 195 देशों में भारत 57वें स्थान पर है। सूचकांक से यह भी पता चलता है कि अधिकतर देश किसी भी बड़े संक्रमण रोग से निपटने के लिए तैयार नहीं है। इस सूची में केवल 13 देश ऐसे हैं जो शीर्ष पर रहे इनमें से अमेरिका पहले स्थान पर है। हालाकि मौजूदा आंकड़ों में अमेरिका में कोरोना के चलते मरने वालों की तादाद दुनिया में सबसे ज्यादा है। जो यह दर्शाती है कि बड़े स्वास्थ्य ढांचा से युक्त देश भी कोरोना के आगे विफल रहे हैं। इसके अलावा कई यूरोपीय देश भी करोना के झंझावात में इतनी बुरी तरफ फंसे कि उनके ढांचे भी चरमरा गए। जिन्हें दुनिया में मजबूर चिकित्सा व्यवस्था के लिए जाना जाता है। यह ध्यान देने वाली बात है कि वैश्विक स्वास्थ्य सुरक्षा सूचकांक विश्व स्तर पर महामारी और महामारी के खतरों पर पहला व्यापक मूल्यांकन है।

विश्व भर में कोरोना के लगातार बढ़ते प्रकोप के बीच इसके संक्रमितो की संख्या लगभग 16 के आसपास हो गई है और 32 लाख से ज्यादा लोगों की मौत हुई है। अमेरिका के एक विश्वविद्यालय के आंकड़े के अनुसार 192 देशों और क्षेत्रों में संक्रमितो की  की संख्या बढ़कर लगभग 16 करोड़ हो गई है। वैसे देखा जाए तो कोरोनावायरस के खिलाफ लड़ाई में भारत को शुरुआती स्तर पर जो बढ़त मिली थी वह उसे गंवा चुका है। चिकित्सा से जुड़ी एक अंतरराष्ट्रीय पत्रिका लान्सेट ने अपने संपादकीय में दूसरे लहर के कहर पर टिप्पणी करते हुए कहा है कि संक्रमण पर काबू पाने के लिए सरकार को अपने प्रयास तेज करने होंगे। गौरतलब है कि इसी पत्रिका ने यह भी कहा है कि दूसरी लहर के खतरों की बार बार चेतावनी दी जाती रही बावजूद इसके भारत में धार्मिक आयोजनों की अनुमति दी गई राजनीतिक रैलियों का आयोजन किया गया। इनमें कोरोना संक्रमण को रोकने के उपायों का सही ढंग से पालन भी नहीं किया गया। इसमें कोई दो राय नहीं कि कोरोनावायरस मार्च-अप्रैल में जिस गति के गति के साथ भारत को चपेट में ले रहा था उसे गति के साथ चुनावी रैलियों और कुंभ का आयोजन भी देखा जा सकता है।हो न हो ऐसे आयोजनो की कीमत आज देश की जनता कमोबेश चुका तो रही है। समावेशी विकास की दृष्टि से देखें तो स्वास्थ्य सुशासन को मौजूदा स्थिति को देखते हुए अब चार कदम आगे होना चाहिए। स्वास्थ्य सुशासन कहता है समस्या को आने से पहले आकलन कर लेना सबसे बड़ी बुद्धिमानी है। यदि यहां चूक हो भी जाए तो उसे चिकित्सीय सुविधा के माध्यम से समाप्त कर देना चाहिए। मगर जब दोनों में चूक हो तब व्यवस्था रामभरोसे होती है ऐसे में लड़ाई जीतना अत्यंत कठिन होता है और इन दिनों देश में यही स्थिति बनी हुई है। एक तरफ बढ़ते कोरोनावायरस को रोकने में व्यवस्था कमजोर रही तो दूसरी तरफ स्वास्थ्य व्यवस्थाएं मसलन चिकित्सालय और मेडिकल सुविधाएं इस पैमाने पर खरी नहीं थी कि सभी बीमारों को दबोच सके। फिलहाल इस हाहाकार के बीच में यह बात आसानी से समझ में आती है कि जिस तरह भारत पहली लहर से निपटने में दुनिया के लिए एक उदाहरण था आज वही दुनिया की ओर देख रहा है।                                                                                                                                          
 (10  मई, 2021)


डॉ. सुशील कुमार सिंह 
वरिष्ठ स्तम्भकार एवं प्रशासनिक चिन्तक

बड़े ढांचागत सुधार की आवश्यकता

ढांचागत सुधार की अपनी एक कसौटी होती है। इसी ढांचे के बूते किसी भी समस्या को समाधान देने के हेतु प्रक्रियागत दृष्टिकोण और व्यावहारिक परिप्रेक्ष्य का नि र्वहन होता है। देश इन दिनों कोरोना संक्रमण से जूझ रहा है । चारों तरफ हाहाकार मचा हुआ है और समस्या विकराल रूप लिए हुए है। जनमानस में भय का वातावरण है और देश के भीतर एक अलग तरीके का दर्शन फलक पर है। दृष्टिकोण और परिपेक्ष्य दोनों इस ओर इशारा कर रहे हैं कि स्वास्थ्य जनित इस समस्या ने सरकार और सिस्टम को हाशिए पर तो ला दिया है।
गौरतलब है कि समस्या से निपटने व कूवत झोंकने के लिए मजबूत संरचना होनी चाहिए। असल में क्या ऐसा है। विगत वर्षों के आंकड़े तो यह बताते हैं कि समस्याओं के साथ देश ढांचागत सुधार उस स्तर को प्राप्त नहीं कर पाया। जैसा कि समय के साथ होना चाहिए। हालांकि मौजूदा दौर सवाल उठाने का नहीं है लेकिन इस बात की खोज का जरूर है कि आखिर जब हम बड़ा देश चलाते हैं, बड़े शासन और सुशासन की हुंकार भरते हैं तो फिर बीमारी के आगे कमतर क्यों पड़ते हैं? भारत के आजादी के 75 साल पूरे होने एक साल बचा है परंतु आज भी चिकित्सा के क्षेत्र में पर्याप्त सुविधाओं का घोर अभाव बना हुआ है । भारत तीसरी दुनिया का देश है और अनेक बीमारियां यहां अभी भी व्याप्त है मसलन तपेदिक, मलेरिया, कालाजार डेंगू बुखार, चिकनगुनिया, जल जनित बीमारियां जैसे हैजा, डायरिया आदि। गौरतलब है कि
 एक साल से अधिक समय से देश कोरोनावायरस से जूझ रहा है। जिसका तोड़ अभी तक नहीं खोजा जा सका है । हालाकि इससे निपटने हेतु टीका निर्माण में भारत सफलता हासिल कर चुका है और 16 जनवरी 2021 से टीकाकरण का अभियान भी तेजी लिए हुए। आंकड़े बताते हैं कि 16 करोड़ों भारतीयों को अब तक टीकाकरण हो चुका है। टीकाकरण को कोरोनावायरस से बचने के बेहतर उपाय के रूप में देखा जा रहा है मगर अभी भी इसे पूरी तरह प्राप्त करने में महीनों का सफर तय करना होगा। कहीं टीके की कमी तो कहीं टीके के प्रति उदासीनता का भाव भी देखा जा सकता है और कहीं-कहीं तो टीके की बर्बादी भी हो रही है ।

 किसी भी देश के सामाजिक-आर्थिक विकास उस देश के सेहतमंद नागरिकों पर निर्भर करता है किसी भी देश के विकास की कुंजी उस देश के स्वस्थ नागरिक हैं । विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनेक रिपोर्ट से लेकर इस क्षेत्र में हुए अनेक सर्वेक्षण से पता चलता  हैं कि सार्वजनिक चिकित्सा व्यवस्था के क्षेत्र में सुशासन के संदर्भ लचीले ही रहे हैं हालांकि सरकार ने साल 2021-22 के स्वास्थ्य बजट में 137 फीसद की वृद्धि करते हुए यह जताने का प्रयास किया है कि स्वास्थ्य को लेकर उसकी चिंता बढ़ी है मगर कोरोना काल में इतना व्यापक धन भी ऊंट के मुंह में जीरा ही है। गौरतलब है कि दुनिया के बड़े और मौझोले किस्म की अर्थव्यवस्था वाले देश में स्वास्थ्य बजट के मामले में भारत से कहीं आगे हैं । भारत में स्वास्थ्य और शिक्षा का जितना बजट होता है दक्षिण अफ्रीका जैसे देश कमोवेश उतने बजट स्वास्थ्य पर ही खर्च कर देते हैं। ऐसे ही कई उदाहरण दुनिया से और मिल जाएंगे जो स्वास्थ्य बजट के मामले में भारत से मीलों आगे हैं। साल 2019 के वैश्विक स्वास्थ्य सुरक्षा सूचकांक के अनुसार 195 देशों में भारत 57वे स्थान पर है। सूचकांक से यह भी पता चलता है कि अधिकतर देश किसी भी बड़े संक्रामक रोग से निपटने के लिए तैयार नहीं है । इस सूची में केवल 13 देश ऐसे हैं जो शीर्ष पर रहे इनमें से अमेरिका पहले स्थान पर है । हालांकि मौजूदा आंकड़े में अमेरिका में कोरोना के चलते मरने वालों की तादाद दुनिया में सबसे ज्यादा है जो यह दर्शाती है कि बड़े ढांचागत वाले देश भी कोरोना के आगे विफल रहे है। इसके अलावा कई यूरोपीय देश भी कोरोना के झंझावात में इतनी बुरी तरह फंसे कि उनके ढांचे भी चरमरा गए जिन्हें दुनिया में मजबूत चिकित्सीय व्यवस्था के लिए जाना जाता है। यह ध्यान देने वाली बात कि वैश्विक स्वास्थ्य सुरक्षा सूचकांक विश्व स्तर पर महामारी और महामारी के खतरों का पहला व्यापक मूल्यांकन है। साल 2018 मेडिकल जर्नल लैंसेट के एक अध्ययन के अनुसार स्वास्थ्य सेवाओं की गुणवत्ता और लोगों तक उनकी पहुंच के मामले में भारत विश्व के 195 देशों में 145 में पायदान पर है। चौकाने वाला पक्ष यह भी है कि भारत 195 देशों की सूची में अपने पड़ोसी देश चीन बांग्लादेश श्रीलंका और भूटान से भी कहीं पीछे रहा। तुलनात्मक परिप्रेक्ष्य यह भी है कि साल 2016 में स्वास्थ्य सुविधाओं तक पहुंच और गुणवत्ता के मामले में भारत को 41.2 अंक मिले थे जबकि साल 1990 में केवल 24.7 अंक थे। जाहिर है कि समय के साथ उत्थान तो हुआ है मगर जितना चाहिए शायद उतना नहीं ।  बावजूद इसके सरकार को एक सीमा के बाद कोसना सही नहीं होगा मगर उम्मीद भी जब उन्हीं से हो तो सवाल लाजमी है।

इस प्रसंग से बात को आगे और समझना शायद आसान रहेगा। एक विद्वान डी.डी. कोसांबी ने भारतीय सामंतवाद के संकट को स्पष्टता देने के लिए एक उदाहरण का प्रयोग किया था और वह उदाहरण पानीपत की तीसरी लड़ाई से जुड़ा है। 1761 में पानीपत की तीसरी लड़ाई में एक पक्ष के सैनिक के पास खाने के लिए पर्याप्त भोज्य व्यवस्था नहीं थी जबकि दूसरे पक्ष के सैनिक पड़ोस के गांव को लूट कर अपनी भूख मिटाने में कामयाब रहे। उक्त उदाहरण से स्पष्ट है कि किसी भी पक्ष ने सैनिकों के भोजन का कोई इंतजाम नहीं किया था । महामारी के इस दौर में जिस तरह अस्पताल के अंदर और अस्पताल के बाहर स्वास्थ्य सामग्री और संसाधन की कमी है उसे देखते हुए यह लगता है कि ढांचागत कमियां बाकायदा विद्यमान है और कमजोरी दोनों जगह व्याप्त है । संक्रमित अस्पताल के अंदर हो या बाहर इलाज की कोताही भरपूर है। ऑक्सीजन सेलेन्डर,  वेंटिलेटर और दवाई समेत बेड मिलने तक की जो मारामारी देखने को मिल रही हैं उससे साफ है के ढांचा तो कमजोर है ही, चिकित्सीय व्यवस्था भी बड़े संकट से गुजर रही है। आंकड़े बताते हैं कि भारत में 11हजार से अधिक व्यक्तियों पर एक डॉक्टर की व्यवस्था है जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार यह व्यवस्था एक हजार व्यक्ति पर होनी चाहिए । इससे अंदाजा लगा सकते हैं कि हम डॉक्टर्स के मामले में कहां खड़े हैं । बिहार में तो स्थिति और खराब है वहां 28 हजार से अधिक पर एक डॉक्टर है । उत्तर प्रदेश, झारखंड, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ में भी हालत इस मामले में अच्छी नहीं है

 डब्ल्यूएचओ ने तो साल 2016 की एक रिपोर्ट में कहा था कि एलोपैथ के प्रैक्टिस करने वाले एक तिहाई डॉक्टर के पास मेडिकल की कोई डिग्री नहीं है । मगर एक सच्चाई यह भी है कि महामारी के इस सुनामी में यही झोलाछाप डॉक्टर अब कईयों के लिए इलाज के बड़े माध्यम बन गए हैं । ऐसी सूचनाएं टीवी और अखबार के माध्यम से आसानी से देखा जा सकती है । मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया के अनुसार देश में साल 2017 में करीब 10 लाख 41 हजार  डॉक्टर पंजीकृत थे जिसमें सवा लाख डॉक्टर ही सरकारी अस्पतालों में काम करते हैं जबकि बाकी बचे हुए निजी अस्पतालों में प्रैक्टिस करते हैं। इससे स्पष्ट है कि एक तो देश में डॉक्टर की कमी है दूसरे अधिकतर डॉक्टर का निजी अस्पतालों में काम करना। जाहिर है चिकित्सा का महंगा होना लाजमी है। जिस तरीके से भारत के चिकित्सा पद्धति में असंतुलन है। उक्त संदर्भ यह भी दर्शाता है कि ढांचागत बहुत बड़ी कमी है । गौरतलब है कि जब 2014 में मौजूदा सरकार पहली बार सत्ता में आई थी तो चार एम्स अर्थात अखिल भारतीय चिकित्सा संस्थान स्थापित करने की बात कही थी । 2015 में 7 और 2017 में 2 ऐसे ही और अस्पतालों की स्थापना की बात हुई थी। मगर क्या यह सब पूरे हुए हैं। 2018 में अपनी चौथी सालगिरह के समय 20 नए एम्स की भी बात हुई थी ।  यहां बता दें कि कि मनमोहन सिंह के कार्यकाल में 2011 में 6 एम्स बनाए गए थे दिल्ली के अलावा रायपुर, पटना, जोधपुर, भोपाल, ऋषिकेश और भुवनेश्वर इसमें शामिल है । समझने वाली बात यह भी है कि घोषित किए गए अनेक एम्स के बनने की तारीख अप्रैल 2021 बताई गई । अब आंकड़े यह भी बताते हैं कि बिहार के दरभंगा और हरियाणा के मनेठी में एम्स के लिए जो घोषणा हुई थी उसके लिए जमीन भी निर्धारित नहीं की गई है। झारखंड के देवघर में बनने वाले एम्स में एक चौथाई ही काम हुआ है। गुवाहाटी में एक तिहाई जबकि पश्चिम बंगाल के कल्याणी में इस मामले में देरी चल रही है । गुजरात के राजकोट में महज एम्स की घोषणा ही हो पाई है। वैसे तो रायबरेली में भी एम्स की बात रही हैं पर यहां जमीन पर क्या उतरा ? उपरोक्त संदर्भ बताते हैं कि जब ढांचागत कमियां हैं तो आफत के समय में चिकित्सीय व्यवहार पूरी तरह कैसे फलित होंगे । 

भारत की जनसंख्या 136 करोड़ है लगभग 8 लाख बिस्तर वाले कुल 20 हजार के आसपास सरकारी अस्पताल यहां देखे जा सकते हैं। हालिया स्थिति को देखते कई सरकारी और निजी चिकित्सालय के साथ कई अन्य प्रारूप में चिकित्सीय व्यवस्था को इन दिनों मजबूती दी जा रही है जाहिर इससे पिछले आंकड़े के तुलना में ढांचागत सुधार थोड़ा सुधरा हुआ जरूर दिखेगा। गौरतलब है कि भारत की 65 फीसद से अधिक जनसंख्या गांव में रहती है जिनके इलाज के लिए स्वास्थ्य केंद्र , प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र और सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र व अनेक स्वास्थ्य उपकेन्द हैं मगर ये भी कम है और जो हैं वहां भी बुनियादी सुविधाओं का अभाव है । वैसे यह कहना गलत ना होगा कि भारत में स्वास्थ्य सेवा मानो एक अभिजात्य वर्ग विशेष के लिए है। सरकारी चिकित्सालय गरीबो की उम्मीद होते हैं मगर सुविधा के आभाव में आस टूटती रहती है और निजी उसके बूते में नहीं है। हालांकि कोरोना महामारी ने गरीब और अमीर किसी को नहीं बख्शा है। ढांचागत चिकित्सीय सुधार के अभाव में यह बीमारी सभी पर भारी है। सरकार की ओर से प्रयास तेज किए गए हैं मगर जिस तरीके से स्वास्थ्य सामग्री और संसाधनों की मांग के अनुपात में आपूर्ति का आभाव है और न्यायालय की डांट लगातार पड़ रही है उसे देखते हुए तो यही लगता है की स्वास्थ्य के सुशासन के मामले में शासन-प्रशासन हाशिए पर है। भारत की हालिया स्थिति को देखते हुए दुनिया के तमाम देशों ने सहायता के लिए हाथ आगे बढ़ाएं जाहिर है इससे राहत तो मिलेगी। वैसे इसे वैश्विक बीमारी या आपदा का नाम देकर साफगोई से सिस्टम या सरकार को बचाया जा सकता है। मगर सुशासन को अपनी दिनचर्या समझने वाली  सरकार की जिम्मेदारी यहां कम नहीं हो सकती। सुशासन एक लोक प्रवर्धित अवधारणा है जिसका एकमात्र उद्देश्य जन विकास है और यह जन विकास भूख से लेकर शिक्षा और स्वास्थ्य के मार्ग से गुजरते हुए उस फलक तक जाती है, जहां से एक सभ्य समाज और विकसित देश का निर्माण होता है। देश इन दिनों जीवन बचाने की होड़ में है, जनता इसमें बुरी तरह फंसी है और सरकार इस महामारी से बाहर निकलने की तमाम कोशिशें कर रही है ऐसे में पूरी जिम्मेदारी केवल सरकार पर डाल कर पल्ला झाड़ लेना सही नहीं होगा । समस्या बढ़ी है तो सभी को मिलकर इसका हल निकालना होगा। हालांकि सरकार के गाइड लाइन पर देश की जनता चल रही है। ऐसे में सरकार की यह बडी जिम्मेदारी है कि स्वास्थ्य सुशासन के पूरे मापदंड को शीघ्रता से विकसित करे ताकि इस महामारी से शीघ्र निजात मिल सके।                                             
 (6 मई 2021)


डॉ. सुशील कुमार सिंह 
वरिष्ठ स्तम्भकार एवं प्रशासनिक चिन्तक

Wednesday, April 14, 2021

कोरोना, कर्फ्यू और सुशासन

मौजूदा समय की वास्तविक उपलब्धि क्या है? इसका जवाब आसानी से नहीं मिलेगा मगर दो टूक यह है कि इसका उत्तर कोरोना से मुक्ति है। देष में कोविड-19 का संक्रमण पहली लहर की तुलना में काफी तेजी से फैल रहा है। प्रत्येक दिन डेढ़ लाख से अधिक नये मामले सामने आ रहे हैं। मार्च के अंत में जहां एक्टिव केस भारत में एक लाख से कम थे वहीं अब यह 10 लाख के आंकड़े को पार कर गया है। केन्द्र सरकार की तरफ से अभी किसी प्रकार के व्यापक कदम की सूचना नहीं है मगर राज्यों ने लाॅकडाउन और कफ्र्यू की ओर कदम बढ़ा दिया है। महामारी की इस फिज़ा में एक बार फिर भारत बंद की षंका उभर गयी है। हालांकि इसकी सम्भावना कम ही है पर कोरोना ग्राफ इस षंका को तूल दे रहा है। कोरोना ने एक बार फिर छोटे कारोबार को बंदी के कगार पर खड़ा कर दिया है, नौकरी पर खतरा मंडरा रहा है और अर्थव्यवस्था संकट के भंवरजाल में फिर उलझ सकती है। सार्वजनिक स्थानों पर क्या होगा इसके नियम तय किये जाने लगे हैं। षादी-विवाह के लिए गाइडलाइन जारी की जा रही है। जिस तरह का माहौल इन दिनों है वह डराने वाला है। गौरतलब है कि जब दुनिया कोरोना की दूसरी लहर में थी तब भारत पहली लहर को आसानी से निपटने में कामयाब होता दिख रहा था मगर अब दूसरी लहर की स्थिति तो मानो सारे रिकाॅर्ड तोड़ने की ओर है। कोरोना कब जायेगा, कितनी कीमत लेकर जायेगा इसका अंदाजा किसी को नहीं है। एक ओर जहां भारत में टीकाकरण तेजी लिए हुए है तो दूसरी तरफ कोरोना पीड़ितों की संख्या भी रिकाॅर्ड बढ़ोत्तरी न केवल चिंता को बढ़ाता है बल्कि देष नई बर्बादी की ओर भी धकेल रहा है। 

सवाल षासन पर भी उठ रहा है। विपक्षी कोरोना से निपटने के मामले में सरकार की नीतियों को असफल बता रहे हैं। इतना ही नहीं कोरोना के टीके की मांग और आपूर्ति में असंतुलन देखा जा रहा है। भारत में कई राज्यों से कोरोना वैक्सीन की कमी की बात हो रही है। कई टीका केन्द्र वैक्सीन के आभाव में तालाबंदी के षिकार हो गये हैं और ऐसी सूचनाएं महाराश्ट्र, ओडिषा, आन्ध्र प्रदेष, तेलंगाना, समेत छत्तीसगढ़ आदि प्रान्तों से है। हालांकि केन्द्र सरकार वैक्सीन की कमी को नकारते हुए इसे राजनीति बता रही है। यदि वास्तव में वैक्सीन की कमी हो रही है तो यह चिंताजनक है क्योंकि एक ओर जहां 11 से 14 अप्रैल के बीच वैक्सीनेषन फेस्टिवल मनाने की अपील प्रधानमंत्री मोदी कर चुके हैं वहीं दूसरी ओर टीके की कमी षासन पर बड़ा सवाल खड़ा करता है। फिलहाल देष में कोरोना की दूसरी लहर फिर से एक नई राह पर चलने के लिए मजबूर कर दिया है। भारत के कई राज्य नाइट कफ्र्यू और लाॅकडाउन के आंषिक असर से इन दिनों दो-चार हो रहे हैं जिसमें उत्तर प्रदेष, उत्तराखण्ड, मध्य प्रदेष, गुजरात, दिल्ली, राजस्थान, ओडिषा आदि षामिल हैं। इस प्रकार के निर्णय से यह बात आसानी से समझ आती है कि सरकारों के पास रात में कफ्र्यू और वीक एण्ड लाॅकडाउन के अलावा कोई और सरल तरीका षायद नहीं है। हालांकि ऐसे तरीकों को पहले भी प्रयोग में लाया गया था जाहिर है कोरोना चेन तोड़ने में कमोबेष यह मददगार सिद्ध हुआ होगा। मगर इसकी अपनी कई जटिलतायें हैं जिस पर पूरा षोध बाकी सा लगता है। गौरतलब है कि इन दिनों कोरोना पूरी दुनिया को चपेट में ले लिया है। इटली, पोलैंड, फ्रान्स, हंगरी, बेल्जियम, ब्राजील समेत मध्य एषिया व अमेरिकी देषों में वीकेंड लाॅकडाउन और कफ्र्यू का प्रयोग देखा जा सकता है। फ्रांस में तो देषव्यापी लाॅकडाउन का ऐलान किया गया है जबकि फिलीपीन्स जैसे देष आंषिक लाॅकडाउन के अन्तर्गत हैं। 

कोरोना से बिगड़ती स्थिति को संभालने में क्या वाकई केन्द्र सरकार विफल है जैसा कि कांग्रेस के नेता राहुल गांधी कह रहे हैं या फिर राज्यों ने स्थिति को समझने में कोई चूक की या जनता इसके भयावह स्थिति से अनभिज्ञ रही। जो भी हो देष बड़ा है और कोरोना से निपटने में काफी संजीदगी दिखानी होगी। मुंह पर मास्क और दो गज की दूरी लोगों से दूर हो जाना कतई उचित नहीं है। हालांकि जिस तरह बिहार चुनाव से मौजूदा समय में जारी चुनावी रैलियों में इस नियम का उल्लंघन दिखा उससे भी जन मानस को ऐसा करने का बल मिलता है। इन दिनों इस मामले में प्रषासन भी सख्त है और बड़े पैमाने पर चलान काटे जा रहे हैं पर यह समस्या का पूरा समाधान नहीं है। जाहिर है इसे लेकर जनता को स्वयं जागरूक होना होगा। एक ओर टीकाकरण का लगातार बढ़ना और दूसरी ओर कोरोना के ग्राफ का ऊँचा होना। षासन और जनता दोनों के लिए किसी संकट से कम नहीं है। षासन करने वाले मजबूत इच्छा षक्ति के होते हैं और उनमें जनता की ताकत होती है जिसका उपयोग जन सुरक्षा और लोक विकास में किया जाता है। मगर इस महामारी ने दोनों को खतरे में डाल दिया। बीते कुछ वर्शों से देष सुषासन की राह पर तेजी से दौड़ लगा रहा था। हालांकि आर्थिक संकट और बेरोज़गारी से देष परेषान भी था और रही-सही कसर कोरोना ने पूरी कर दी। नतीजन एक बहुत बड़े जन मानस के समक्ष रोटी की समस्या खड़ी हो गयी। सुषासन सामाजिक-आर्थिक न्याय है,  लोकतंत्र की पूंजी है और सभी के लिए सर्वोदय का काम करता है मगर इन दिनों यह भी संकट से जूझ रहा है। पहली लहर में मध्यम वर्ग की कमर टूट गयी थी इस बार वह छिन्न-भिन्न हो सकता है। ऐसे में सरकार को चाहिए कि सुषासन की सुसंगत व्यवस्था के लिए बढ़ी हुई ताकत से कोरोना से निपटे और आर्थिक संकट से जूझ रहे लोगों के लिए कोई जमीनी रणनीति भी सुझाये। हालांकि प्रधानमंत्री मोदी पूरे देष में लाॅकडाउन को लेकर कोई संकेत नहीं दिया है मगर रणनीति कब बदल जायेगी यह तो आने वाली समस्या बतायेगी। कोरोना और कफ्र्यू सुषासन को चुनौती दे रहे हैं। सुषासन को चाहिए कि इनका देष निकाला करे ताकि लोकतंत्र में लोक और तंत्र दोनों को राहत मिले।


डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 

लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर

देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)

मो0: 9456120502

ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com


Thursday, April 8, 2021

धधकते दावानल, सुलगते सवाल

जब गर्मी चरम पर नहीं है तब आग का यह बेकाबू दृष्य माथे पर बल डालता है। कैसे इस भीशण तबाही से बचा जाये साथ ही भारी वन सम्पदा को कैसे बचाया जाये तमाम ऐसे सवाल जलते वन में अनायास ही उग गये हैं। हालांकि सवाल पुराना है मगर हर बार नया बनकर क्यों उभरता है यह सभी को समझने की आवष्यकता है। जो आग मई-जून में भड़कती थी उसका मार्च-अप्रैल में होना कहीं ग्लोबल वार्मिंग से सीधा सरोकार तो नहीं। वैसे रियो पृथ्वी सम्मेलन 1992 में जंगल में फैलने वाली आग से उत्पन्न होने वाली विभिन्न समस्याओं पर दषकों पहले चर्चा हो चुकी है जिसमें यह स्पश्ट है कि भूमि के अनियंत्रित ह्रास और भूमि का दूसरे कामों में बढ़ता उपयोग, मनुश्य की बढ़ती जरूरतें, कृशि विस्तार समेत पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाली तमाम प्रबंधकीय तकनीक वनों के लिए खतरा पैदा कर रही हैं। क्षेत्र विषेश के अनुपात में घटनाओं का संदर्भ भिन्न हो सकता है मगर जंगल की आग पर नियंत्रण पाने के अपर्याप्त साधन बताते हैं कि मानव कितना बौना है। अनियंत्रित आग और बेतरजीब तरीके से पानी की बर्बादी जीवन विन्यास में अस्तित्व मिटने जैसा है। मगर विडम्बना यह है कि दोनों पर काबू पाना मानो मुष्किल हो चला है। षान्त और षीतल उत्तराखण्ड की वादी इन दिनों तपिष से घिर चुकी है। कुमायूँ के जगलों में तो लगी आग से अत्यधिक धुंध हो गया है जिसके चलते वायुसेना का हेलीकाॅप्टर कई दिनों की कोषिष के बावजूद भी भीमताल झील से पानी नहीं ले पाया। चम्पावत, पिथौरागढ़ और बागेष्वर में भी जंगल धधक रहे हैं जबकि गढ़वाल क्षेत्र में दृष्य भी भयावह बना हुआ है। 

भारत के लगभग 8 लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में वन हैं इनमें से लगभग 7 लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में किसी न किसी तरह के वन पाये जाते हैं। कई तरह की जैव विविधता मिलती है। बढ़ती जनसंख्या के कारण वनों का अतिक्रमण भी हुआ है और दबाव भी बढ़ा है। उत्तराखण्ड में कुल क्षेत्रफल का करीब 65 प्रतिषत वन क्षेत्र हैं जिसमें करीब 16 से 17 फीसद जंगल चीड़ के हैं। इन्हें जंगलों में आग के लिए मुख्यतः जिम्मेदार माना जाता है। इस साल की षुरूआत में यहां बारिष भी घटी है बारिष 50 मिलिमीटर की जगह 10 मिलिमीटर ही हुई है। जंगलों में आग लगने के कारण भी इसे एक महत्वपूर्ण कारक के रूप में देखा जा सकता है। गौरतलब है कि बारिष न होने या कम होने से जमीन में आर्द्रता कम होती है जिसके चलते पेड़-पौधे जल्दी ही आग पकड़ लेते हैं। उत्तराखण्ड में आग जिस तरह बेकाबू है वह सरकार को भी रणनीतिक तौर पर काफी परेषान किये हुए है। इसे बुझाने के लिए हेलीकाॅप्टर का सहारा लेना या फिर बारिष का होना सहायक होता है। प्रदेष के जंगलों में इस बार तो आग सर्दी के दिनों से ही लग गयी और अब तक लगभग 14 सौ हेक्टेयर जंगल आग की जद में देखा जा सकता है और इससे जुड़े मामले भी 11 सौ से अधिक है। गौरतलब है कि जंगल की आग पर काबू पाने के लिए 8 हजार फायर वाॅचर की तैनाती की बात भी देख सकते हैं। ध्यानतव्य हो कि साल 2016 में जब उत्तराखण्ड के जंगल जल रहे थे जो अपने आप में एक बड़ी घटना थी जिसमें पूरे 13 जिले इसकी चपेट में थे। गढ़वाल मण्डल में आग बेकाबू थी जैसा कि इन दिनों है। उन दिनों भी हजारों हेक्टेयर से अधिक की वन सम्पदा जल कर राख हो चुकी थी। कार्बेट नेषनल पार्क का करीब 3 सौ हेक्टेयर का क्षेत्रफल भी इसकी भेंट चढ़ चुका था। आग बुझाने में हजारों फायरकर्मी के साथ गांव के हजारों प्रषिक्षित लोग भी षामिल थे। एनडीआरएफ, एचडीआरएफ समेत 10 हजार कर्मियों को इसमें अपनी कोषिष करनी पड़ी थी। एमआई-17 हेलीकाॅप्टरों से जंगलों पर पानी छिड़का जा रहा था। साफ है कि आग की घटनायें हर साल कमोबेष होती रहती हैं पर सवाल है कि इसको रोकने और काबू पाने में रणनीतिक तौर पर सरकार कितनी सफल रहती है। फिलहाल उत्तराखण्ड जल रहा है और आग पर काबू पाने की कोषिष जारी है। 

भारतीय जंगल सर्वेक्षण की पड़ताल से बताती है कि जंगलों में आग लगने की घटना के मामले में ओडिषा देष में पहले नम्बर है जहां 22 फरवरी से 1 मार्च के बीच 5291 अग्निकाण्ड की घटनाएं हुईं जो किसी भी राज्य की तुलना में तीन गुना अधिक है। तेलंगाना दूसरे और मध्य प्रदेष अग्निकाण्ड घटना के मामले में तीसरे स्थान पर है, चैथे पर आन्ध्र प्रदेष है। उत्तराखण्ड में जिस तरह के आंकड़े हैं वह संख्या के लिहाज़ से भले ही कम हो मगर एक छोटे हिमालयी प्रान्त में अग्निकाण्ड की हुई घटनायें कमतर नहीं कही जा सकती। हाईकोर्ट ने एक सुनवाई के दौरान सरकार को निर्देष दिया कि वह अग्निषमन आदि हेतु एनडीआरएफ और एचडीआरएफ को पर्याप्त बजट भी उपलब्ध कराये। गौरतलब है कि 2017 में आग लगने की घटनाओं के मद्देनजर एनजीटी द्वारा 12 बिन्दुओं पर एक गाइडलाइन जारी करायी थी मगर सरकार ने इस पर अमल नहीं  किया जिसे देखते हुए उच्च न्यायालय ने निर्देष दिया किया कि उक्त गाइडलाइन को 6 माह के भीतर लागू किया जाये। सरकार की ओर से कई मामलों पर या तो ध्यान नहीं दिया जा सकता या इच्छा षक्ति की कमी है या फिर संसाधनों के आभाव में जंगलों में लगी आग पर काबू पाना कठिन हो जाता है। वजह चाहे जो हो पर जब जंगल आग की चपेट में होते हैं तो जैव विविधता की हानि होती है। प्रदूशण की समस्या बढ़ती है, मिट्टी की उर्वरक क्षमता भी गिरती है, खाद्य श्रृंखला का असंतुलन भी बढ़ सकता है और जंगली जीवों को नुकसान भी होना लाज़मी है। ऐसे में कई तरह के सटीक कदम की आवष्यकता होती है। हालांकि जंगलों में आग लगने के बहुत से कारण बताये गये हैं जिसमें मानवजनित समेत कई षामिल हैं। सबके बावजूद लाख टके का सवाल यह है कि आग कैसे भी लगी हो इस पर काबू पाने के लिए समय रहते सरगर्मी क्यों नहीं दिखाई गयी। 

जंगल में लगी आग को आर्थिक और पारिस्थितिकी दृश्टि से देखने की आवष्यकता है। पहाड़ के जंगलों में आग लगना एक स्थायी समस्या है ऐसा मानना सही नहीं है। इससे भी उदासीनता बढ़ती है। गौरतलब है कि 2005 से 2015 के बीच कुमायूँ वनों में आग लगने की 22 सौ से अधिक घटनाएं दर्ज हुईं और 5 हजार हेक्टेयर वन आग की भेंट चढ़ गये जिसके चलते करोड़ों की कीमत की वन सम्पदायें स्वाहा हो गयी। दुर्लभ प्रजातियां, जड़ी बूटियां आग में नश्ट हो गयी। पषु-पक्षी भी जलकर मर गये जो घटनायें पहले दषक भर में होती थी अब वह कुछ सालों में ही हो जाती हैं ऐसे में नुकसान का अंदाजा लगाना कठिन नहीं है। सरकार को चाहिए कि वनकर्मियों को इससे निपटने का प्रषिक्षण दे, आग लगने के संवेदनषील क्षेत्रों की पहचान करे और लोगों को भी यह जागरूक करे कि आग का उनके जीवन पर कितना बड़ा नुकसान है ताकि मानव जनित घटनायें कम हो सकें। हालांकि जंगल में आग की यह घटनायें दुनिया में कहीं न कहीं देखने को मिलती रहती हैं और सभी को इससे निपटने के अपने उपाय खोजने होते हैं। जंगल में आग अर्थव्यवस्था को भी नाजुक करता है। वन संरक्षण अधिनियम 1980 और राश्ट्रीय वन नीति 1998 को भी कहीं न कहीं चोट पहुंचाता है। ऐसे में जरूरी है कि जंगल को आग से बचाया जाये और इसके लिए ठोस रणनीति बनाने की आवष्यकता है।



डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन  ऑफ़  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 

लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर

देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)

मो0: 9456120502

ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com


Monday, April 5, 2021

आंतरिक सुशासन हेतु चुनौती है नक्सलवाद

भारत में आंतरिक सुरक्षा के प्रति गृह मंत्रालय की जवाबदेही है जबकि बाह्य सुरक्षा के लिए रक्षा मंत्रालय जिम्मेदार है। स्पश्ट है कि नक्सलवाद आंतरिक सुरक्षा पर चोट और गृह मंत्रालय के लिए बड़ी चुनौती रहा है। सामान्यतः यह बात आसानी से समझा जाता है कि नक्सल आंदोलन जन सामान्य का आंदोलन है और यह देष के अति पिछड़े इलाकों से सम्बंधित है। जहां आधारभूत संरचना की न केवल कमी है बल्कि संसाधनों का भी भरपूर आभाव है जबकि सच्चाई यह है कि नक्सलवाद प्रभावित तमाम इलाके खनिज संसाधनों के विपुल भण्डार से पटे हैं। विकास से अछूता यह क्षेत्र दषकों से न केवल नक्सलवाद की समस्या से जूझ रहा है बल्कि अब तो यह देष के एक-तिहाई जिले और आबादी तक विस्तार ले चुका है। नक्सलवाद को लेकर सरकार के दावों पर भी पहले भी सवाल उठते रहे हैं और हालिया घटना ने तो यह सवाल और गाढ़ा कर दिया है। सुरक्षा बलों के 22 जवान छत्तीसगढ़ के बीजापुर और सुकमा जिले की सीमा पर नक्सली हमले में षहीद हो गये जबकि 31 घायल बताये जो रहे हैं। एक कोबरा जवान लापता भी है और तलाषी अभियान जारी है। सीआरपीएफ के महानिदेषक की मानें तो आॅप्रेषन में किसी तरह की इंटेलिजेंस चूक नहीं हुई है। फिलहाल हमले की सूचना मिलते ही केन्द्र सरकार की त्वरित प्रतिक्रिया देखी जा सकती है। तीन राज्यों में मतदान पूरा होने के बाद नक्सलियों का गढ़ भेदने की सुगबुगाहट भी है। गृहमंत्री का कथन कि जवानों का बलिदान व्यर्थ नहीं जायेगा और नक्सलियों को मुंह तोड़ जवाब दिया जायेगा। सवाल सरकार पर इसलिए है क्योंकि संदिग्ध माओवादियों से मुठभेड़ में मारे गये सुरक्षा बलों के जवानों से यह गलत साबित हुआ है कि पिछले 2 साल में माओवाद कमजोर हुआ है। असल में जब छत्तीसगढ़ में विधानसभा चुनाव 2018 में होने थे उस समय कांग्रेस पार्टी ने जन घोशणापत्र जारी किया था। उसे 2013 में झीरम घाटी में माओवादी हमले में मारे गये कांग्रेस नेताओं को समर्पित किया गया था। नक्सलवाद समस्या के समाधान के लिए नीति तैयार की जायेगा और वार्ता षुरू करने के गम्भीर प्रयास भी होंगे ऐसी बातें घोशणापत्र में थी। विकास के माध्यम से मुख्यधारा में नक्सलियों को जोड़ने की बात हर सरकार ने किया मगर यह सर्फ कागजों तक ही रह गया। 

षान्ति स्थापित करने की बात करने वाली सरकारें नक्सलवाद को लेकर कोई समाधान की खास नीति नहीं बना पायी हैं जबकि इसे लेकर पहले भी व्यापक पैमाने पर चिंता की जाती रही है। गौरतलब है कि सुरक्षा बलों और माओवादियों के बीच बीते 4 दषकों में बस्तर के इलाके में संघर्श चल रहा है। साल 2000 में जब छत्तीसगढ़ बना तब भी यहां सिलसिला रूका नहीं। राज्य बनने से लेकर अब तक 32 सौ से अधिक मुठभेड़ की घटनायें हुई। गृह विभाग की रिपोर्ट यह बताती है कि जनवरी 2001 से मई 2019 तक माओवादी हिंसा में 1002 नक्सली मारे गये हैं तो 1234 सुरक्षा बलों के जवान षहीद हुए हैं। इतना ही नहीं 1782 आम नागरिकों की जान भी इसमें गयी है। हालांकि 3896 माओवादियों ने समर्पण भी किया है। चित्र यह बताता है कि नक्सलवाद और उसमें व्याप्त हिंसा जिस आकार और स्वरूप का है उसकी जड़े बहुत गहरी हो चली हैं। देष 75 साल की स्वतंत्रता के द्वार पर खड़ा है मगर मध्य भारत का छत्तीसगढ़, ओडिषा, झारखण्ड, आन्ध्र प्रदेष सहित कई राज्य और जिले नक्सलवाद की चपेट में है। स्पश्ट है कि षासन सारगर्भित नीतियां और अलग-थलग पड़े हिंसक क्रियाओं से लिप्त इन तत्वों को संभाल पाने में सफल नहीं रही है। आंतरिक सुरक्षा को खतरा बने माओवाद देष के लिए अब किसी बड़े तूफान से कम नहीं है। गृहमंत्री कह रहे हैं कि नक्सलियों ने अपनी मौजूदगी दिखाने के लिए हिंसा की है। यह बात सही है कि एक लम्बे अंतराल के बाद नक्सलवाद का यह हिंसक रूप देखने को मिला जिसमें 25 से 30 नक्सली भी मारे गये हैं। मगर देष में नक्सलवाद का किसी कोने में और किसी भी पैमाने पर उपलब्ध होना चैन से नहीं बैठने की नीति होनी चाहिए। इसमें कोई दो राय नहीं कि जनता को माओवादी विचारधारा से मोह भंग हो रहा है मगर माओवाद समाप्त नहीं हुआ है। 

पड़ताल बताती है कि छत्तीसगढ़ नक्सलवाद से जिस पैमाने पर प्रभावित है वह कहीं अधिक चिंता वाला है। पिछले एक दषक में कई अलग-अलग घटनाओं में माओवादी खूनी अंजाम देते रहे हैं। मार्च 2007 में बीजापुर के पास रानीबोदली में आधी रात में जब माओवादियों ने पुलिस कैंप पर जब हमला किया तब पुलिस के 55 जवान मारे गये और इसी साल जुलाई में माओवादी हमले की चलते 23 पुलिसकर्मी षहीद हुए। 2009 जुलाई की घटना में भी 29 पुलिसकर्मी जबकि अप्रैल 2010 में बस्तर इलाके में बारूदी सुरंग के माध्यम से घटना  को अंजाम देकर 76 जवानों को मार दिया गया। सिलसिलेवार तरीके से देखें तो साल 2010 के भीतर ही तीन माओवादी हमले हुए जिसमें दर्जनों सुरक्षा बल षहीद हुए। गौरतलब है कि बस्तर के दरमा घाटी में माओवादियों का हमला कांग्रेस पर बड़ी चोट वाला था। इसी में कांग्रेस पार्टी के प्रदेष अध्यक्ष समेत पूर्व केन्द्रीय मंत्री विद्या चरण षुक्ल समेत 30 लोग मारे गये। इसी को ध्यान में रखकर 2018 के छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव में नक्सल समस्या के समाधान के लिए नीति और वार्ता षुरू करने के लिए गम्भीर प्रयास जैसे संदर्भ कांग्रेस ने अपने एजेण्डे में रखकर अपने नेताओं को समर्पित किया था। 2018 से छत्तीसगढ़ में भूपेष बघेल की सरकार है जो कांग्रेस से है। पड़ताल यह भी बताती है कि सुकमा में 24 अप्रैल 2017 को नक्सली हमले में सीआरपीएफ के 25 जवान षहीद हुए थे और पिछले साल 21 मार्च को सुकमा में ही 17 सुरक्षाकर्मी षहीद हुए थे और अब एक बर फिर 22 जवान षहीद हुए जो पिछले 3-4 सालों में सबसे बड़ी घटना के रूप में देखी जा सकती है। 

भारत में नक्सलवाद को खाद-पानी दषकों से मिलता रहा है और इसे फलने-फूलने में सामाजिक-आर्थिक समस्याओं ने कहीं अधिक काम किया। भूमि सीमा कानून का उल्लंघन, बेरोज़गारी, गरीबी, मूलभूत सुविधाओं का अभाव, षिक्षा व स्वास्थ समेत कई परिघटनाओं ने इसे पूरा अवसर दिया। अक्षम, अप्रषिक्षित व कमजोर मनोबल वाले सरकारी कर्मचारियों के साथ कमजोर राजनीतिक इच्छाषक्ति ने भी माओवाद व नक्सलवाद को वटवृक्ष बनने में कमोबेष मदद तो किया है। हर बार यह कहा जाता रहा है कि नक्सलवाद आंतरिक सुरक्षा के लिए खतरा है परन्तु इस खतरे को भांपने में कोई सरकार खरी नहीं उतरी। अब तो यह कई पीढ़ियों का जातीय दुष्मनी सा प्रतीत होता है। सरकारें आती और जाती रहीं जबकि नक्सलवाद वहीं ठहरा रहा और विषाल आकार लेता रहा। साल 2006 में तत्कालीन प्रधानमंत्री द्वारा नक्सली समस्या को भारतीय-आंतरिक सुरक्षा के सामने सबसे बड़ी चुनौती के रूप में घोशणा के बाद कई कदम उठाये। गृह मंत्रालय के अंतर्गत एक अलग खण्ड नक्सल प्रबंधन अभियान को स्थापित किया गया। योजना आयोग द्वारा उन्हीं वर्शों में एक विषेशज्ञ समिति की स्थापना भी की गयी जिसमें बताया गया कि सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक पक्षपात की समस्या के चलते यह असर हो रहा है। समिति ने यह भी बताया था कि स्थानीय समुदाय को सषक्त बनाने के प्रयास के अभाव के चलते नक्सलवाद का उद्भव है। सब कुछ साफ है पर निपटना आसान नहीं है। सुषासन का दावा करने वाली सरकारों के लिए नक्सलवाद आज भी टेढ़ी खीर बना हुआ है और आंतरिक सुरक्षा के लिए बड़ी चुनौती पर यह उम्मीद कर सकते हैं कि भविश्य में इससे निपटने के लिए कोई उपाय खोजा जायेगा।


डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 

लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर

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किस मोड़ पर भारत-बांग्लादेश सम्बन्ध !

मित्रता, सहयोग और षान्ति यह भारत और बांग्लादेष की 1972 की द्विपक्षीय संधि है। जाहिर है धर्मनिरपेक्षता और राश्ट्रवाद का सम्मान करने वाला भारत पड़ोसी प्रथम की नीति को महत्व देता रहा है। यही कारण है कि बांग्लादेष के साथ कई मुद्दों पर अनबन के बावजूद आपसी सम्बंध बेहतर करने का प्रयास रहता है। प्रधानमंत्री मोदी बांग्लादेष के 50वें स्वतंत्रता दिवस के मौके पर 26 मार्च 2021 को कई बात साझा करते हुए बांग्लादेष की आजादी की लड़ाई में भारत की भूमिका को षिद्दत से परोसते हुए इन्दिरा गांधी के योगदान का भी जिक्र किया साथ ही अपने अनुभव साझा किये। देखा जाये तो मोदी की बांग्लादेष यात्रा काफी हद तक सफल रही। अपने समकक्ष षेख हसीना के साथ कई मुद्दों पर एक राय होते देखा जा सकता है। दोनों देषों ने आपदा प्रबंधन, खेल एवं युवा मामलों, व्यापार और तकनीक जैसे अहम क्षेत्रों में एमओयू पर हस्ताक्षर किये। गौरतलब है कि अनुच्छेद 371 और कई अन्य मामलों को लेकर नाराज़ बांग्लादेष को मोदी पटरी पर लाने का प्रयास करते दिखे। संयुक्त बयान जारी किये गये जिसमें दोनों प्रधानमंत्री जल संसाधन मंत्रालयों को 6 साझा नदियों के जल बंटवारे पर अंतरिम समझौते को षीघ्रतम अन्तिम रूप देने का निर्देष भी षामिल है। इन नदियों में मनु, मुहरी, खोवई, गुमटी, धारला व दुधकुमार जैसी नदियां षामिल हैं। दोनों देषों के बीच तीस्ता नदी जल बंटवारे के मामले पर भी बात आगे बढ़ती दिखी। षेख हसीना को मोदी ने सम्बन्धित पक्षों से परामर्ष कर समझौते को अन्तिम रूप देने का मनसूबा दिखाया। ढाका और जलपाईगुड़ी के बीच ट्रेन का उद्घाटन भी किया गया और भारत ने 12 लाख कोविड वैक्सीन की डोज़ भी उपहार में दी साथ ही 109 एम्बुलेंस की एक सांकेतिक चाबी भी सौंपी गयी।

दक्षिण एषिया में भारत एक ऐसा देष है जो पड़ोसी देषों से हर सम्भव बेहतर सम्बंध बनाये रखना चाहता है। बेषक कई के साथ कुछ विवाद है बावजूद इसके प्रगाढ़ता को लेकर भारत ने कभी कदम पीछे नहीं खींचे। इतना ही नहीं हर सम्भव मदद पहुंचाने की कोषिष किया है। इसका ताजा उदाहरण पड़ोसियों को उपहार में दी जाने वाली कोरोना वैक्सीन है। गौरतलब है कि 7 अप्रैल 2017 को बांग्लादेष की प्रधानमंत्री षेख हसीना चार दिवसीय यात्रा पर भारत आईं थीं और 8 अप्रैल को दोनों देषों के बीच 22 समझौते हुए थे। हालांकि तीस्ता नदी जल समझौते पर सहमति नहीं बन पायी थी और आज भी यह विवाद बरकरार है मगर हालिया मोदी की बांग्लादेष यात्रा से इस मामले में भी बर्फ पिघलने के संकेत देखे जा सकते हैं। वैसे कुछ विवाद इतने गहरे होते हैं कि समाधान आसान नहीं होते। इस मामले में पष्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की आपत्ति भी देखी जा सकती है। गौरतलब है कि मार्च 2010 में दोनों देषों के बीच नई दिल्ली में संयुक्त नदी आयोग की एक बैठक आयोजित की गयी थी जिसमें दोनों पक्षों ने तीस्ता नदी एवं अन्य साझा नदियों के जल बंटवारे, पेय जल आपूर्ति एवं अन्य नदियों पर लिफ्ट सिंचाई योजना की बात हुई थी। गंगाजल संधि 1996 के कार्यान्वयन का संदर्भ भी इस दौर में मुखर हुआ था। तीस्ता समझौते को 2011 से ही पष्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने रोक रखा है और जब अप्रैल 2017 में षेख हसीना दिल्ली में थी तब ममता बनर्जी भी दिल्ली में ही थी पर तीस्ता मामले में वे पहले के रूख पर अड़ी रही। नतीजन प्रधानमंत्री मोदी केवल इतना ही आष्वासन दे पाये थे कि मामले को षीघ्र समाधान कर लिया जायेगा। इस दौरे में भी बात चर्चे तक ही होते दिखती है। 

मोदी जब पहली बार प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने बांग्लादेष के साथ सबसे महत्वपूर्ण भूमि सीमा समझौता किया था जो पिछले 7 दषकों से लम्बित था। कोरोना काल में मोदी एक बार फिर यात्रा के लिए बांग्लादेष को चुना। जाहिर है पड़ोसी प्रथम नीति को यहां बल मिलता है। मोदी की बांग्लादेष यात्रा के कई मायने निकाले जा सकते हैं साथ ही दोनों देषों के द्विपक्षीय संवाद और सम्बंध कहीं अधिक सघन भी कहे जा सकते हैं। गौरतलब है कि मोदी पहली बार साल 2015 में बांग्लादेष गये थे तब उन्होंने प्रसिद्ध मन्दिर ढाकेष्वरी में पूजा की थी। इस यात्रा के दौरान भी उन्होंने दो दर्षनीय स्थल का दौरा किया जिसमें एक जेषोरेष्वरी षक्ति पीठ दूसरा ओराकांडी ठाकुरबाड़ी षामिल है। यह मतुआ सम्प्रदाय का सबसे बड़ा मठ कहा जाता है जिसकी स्थापना हरीषचंद्र ठाकुर ने की थी मगर भारत के विभाजन के बाद इस सम्प्रदाय के लाखों लोग बंगाल में बस गये जिनकी आबादी 80 लाख है और इन दिनों बंगाल में विधानसभा चुनाव जोर पकड़े हुए है। अंदाजा लगाना सहज है कि बांग्लादेष की यात्रा से मोदी पष्चिम बंगाल में मतुआ समाज के वोटरों को भी साध रहे थे। यह किसी मास्टर स्ट्रोक से कम नहीं है। हालांकि यह समाज पहले भी भाजपा के साथ रहा है पर अब पूरी तरह साथ हो सकता है। दो टूक यह भी है कि बांग्लादेष में षेख हसीना के नेतृत्व वाली सरकार के आने के बाद बांग्लादेष में रहने वाले अल्पसंख्यक हिन्दुओं में असुरक्षा की भावना कम हुई है मगर बीते कुछ वर्शों के आंकड़े बताते हैं कि अत्याचार बढ़ा है। षेख हसीना दावा सुरक्षा का करती हैं पर यह पूरा सच नहीं है। इसके पीछे कौन सी ताकत है यह वहां की सरकार को समझ कर ठोस कार्यवाही की आवष्यकता है। मोदी के बांग्लादेष में रहते हुए राजधानी ढाका में कट्टरपंथी संगठनों ने तोड़-फोड़ और आगजनी की। रंगपुर, नोओखली और कुमुल्ला में भी प्रधानमंत्री मोदी की यात्रा का विरोध किया गया। इसके अलावा भी कई अन्य उपद्रव हुए। साफ है कि बांग्लादेष के भीतर कुछ संगठन ऐसे हैं जो दोनों देषों के बीच अच्छे सम्बंध नहीं चाहते। इससे यह भी स्पश्ट होता है कि यह विरोध केवल मोदी का नहीं था बल्कि बांग्लादेषी प्रधानमंत्री षेख हसीना के कारण था। 

वैसे तो बांग्लादेष पर चीन की तिरछी नजर रहती है और कई मामलों में बांग्लादेष और चाइना के बीच द्विपक्षीय मजबूत सम्बंध भी हैं। बावजूद इसके प्रधानमंत्री मोदी ने भारत के साथ बांग्लादेष को सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और कूटनीतिक तौर पर सम्बंध को प्रगाढ़ करने का पूरा काम किया। पीएम ने कहा कि मैं बांग्लादेष के राश्ट्रीय पर्व पर भारत के 130 करोड़ भाईयों की तरफ से आपके लिए षुभकामनाएं लाया हूं। आप सभी को बांग्लादेष की आजादी के 50 साल पूरा होने पर ढ़ेरों षुभकामनाएं। बांग्लादेष की जमीन से आध्यात्मिक संदेष और उदार कूटनीति का परिचय देकर मोदी ने बकाया को दूर करने का प्रयास किया है। कई मामलों में षेख हसीना संतुश्ट भी हुई होंगी। हालांकि हसीना ने मोदी से अनुरोध किया कि संयुक्त राश्ट्र सुरक्षा परिशद् के सदस्य के तौर पर भारत विस्थापित रोहिंग्याओं को जल्द से जल्द म्यांमार वापस भेजने में भूमिका निभायें। दोनों देषों में द्विपक्षीय व्यापार को बढ़ावा देने के लिए नाॅनटैरिफ बैरियर को हटाने पर बल दिया। ऊर्जा और सम्पर्क के क्षेत्र में व्यापक सहयोग पर सहमति व्यक्त की। इसके अलावा भारत, बांग्लादेष के रूपपुर परमाणु ऊर्जा संयंत्र के लिए ट्रांसमिष्न लाइन के निर्माण में भी षामिल होगा। उक्त तमाम बिन्दु द्विपक्षीय सम्बंध को पुख्ता करते हैं। एक कटु सत्य यह भी है कि भारत की उदार नीति का पड़ोसी लाभ तो उठाता है मगर प्रतिउत्तर उसी तरह से देता नहीं है। ऐसे में षेख हसीना को चाहिए कि अपने देष में अल्पसंख्यकों की स्थिति को सुदृढ़ करें और चीन के झांसे में आने से बचते हुए भारत के साथ बकाया मामले द्विपक्षीय तरीके से निपटाते हुए दक्षिण एषिया में भारत के लिए ताकत बनने का काम करें। 


 डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 

लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर

देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)

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म्यांमार में एक अदत लोकतंत्र की तलाश

म्यांमार में लोकतंत्र की सबसे बड़ी उम्मीद आंग सान सू की से कहां चूक हो गयी कि सत्ता पर एक बार फिर सेना का कब्जा हो गया। दषकों के संघर्श के बाद उन्हें देष की कमान मिली मगर लगता है कि 30 साल पहले षुरू हुई क्रान्ति वे स्वयं भूल गयी। 2015 के चुनाव में जब सू की को जबरदस्त जीत मिली तब लगा था कि देष के हालात सुधर जायेंगे लेकिन आधे कार्यकाल के बाद ही म्यांमार की जनता निराष होने लगी थी। देष का आर्थिक विकास भी धीमा था, लोगों के पास नौकरियों का आभाव और गृह युद्ध ने तो एक बार फिर लोकतंत्र को खतरे में ही डाल दिया नतीजन एक बार फिर म्यांमार सैन्य षासन के हाथों में है और वहां एक अदत लोकतंत्र की तलाष जारी है। हालांकि इस बार सेना ने मानो कोई खुन्नस निकाली हो। गौरतलब है सैन्य षासन के पांच दषक के बाद जब मार्च 2016 में म्यांमार इतिहास के उस मोड़ पर आ खड़ा हुआ जहां से न केवल लोकतंत्र बहाल होता है बल्कि दषकों की लोकतांत्रिक लड़ाई को भी लक्ष्य मिलता है। जाहिर है तब भारत के पड़ोसी म्यांमार में लोकतंत्र की एक गूंज उठी थी। म्यांमार के सांसदों ने नोबल पुरस्कार विजेता आंग सान सू की के करीबी और विष्वस्त तिन क्याॅ को देष का पहला असैन्य राश्ट्रपति चुना। इसी के साथ नवम्बर 2015 से जारी गतिरोध भी समाप्त हो गया था। तिन क्याॅ आंग सान सू की के करीबी में से थे। वैसे तो सू की पार्टी नेषनल लीग फाॅर डेमोक्रेसी ने चुनाव में भारी जीत हासिल की थी और दोनों सदनों में बड़े पैमाने पर बहुमत भी मिला था। बावजूद इसके म्यांमार में सेना ने मजबूत पकड़ बनाये रखी। गौरतलब है कि 1962 में देष की सत्ता को अपने हाथ लेने वाली इसी सेना ने म्यांमार के संविधान में एक ऐसा प्रावधान कर दिया था कि आंग सान सू की बड़ी जीत हासिल करने के बावजूद राश्ट्रपति बनने से वंचित हो गयी। प्रावधान के अनुसार जिनके करीबी परिजन विदेषी नागरिक हों वे राश्ट्रपति नहीं बन सकते। ध्यानतव्य हो कि आंग सान सू की के बेटों के पास विदेषी नागरिकता थी यही राश्ट्रपति बनने की राह में रोड़ा था। हालांकि तिन क्याॅ की जगह 2018 में विन म्यिंट को कमान दी गयी। म्यांमार लोकतांत्रिक तरीके से आगे बढ़ चला मगर क्या पता कि कोरोना के बीच लोकतंत्र को तानाषाही वायरस जकड़ लेगा और एक बार फिर म्यांमार की जमीन पर लोकतंत्र बंधक हो जायेगा। 

म्यांमार में सैन्य तख्तापलट और आंग सान सू की समेत कई षीर्श नेताओं की गिरफ्तारी पर अमेरिका, इंग्लैण्ड समेत दुनिया के तमाम छोटे-बड़े देष न केवल चिंता जता रहे हैं बल्कि अमेरिका ने स्पश्ट किया है कि कि लोकतंत्र को बहाल करने के लिए सही कदम न उठाने पर कार्यवाही करेंगे। संयुक्त राश्ट्र ने भी इस पर चिंता जताई है। सवाल है कि म्यांमार में राजनीतिक संकट क्यों उत्पन्न हुआ। असल में सेना का यह आरोप कि चुनाव परिणामों में धांधली हुई है। नवम्बर 2020 के चुनाव में संसद के संयुक्त निचले और उपरी सदनों में सू की की पार्टी ने 476 सीटों में 396 सीटों पर जीत तो हासिल कर ली मगर सेना ने धांधली का आरोप लगाते हुए लोकतंत्र को बंधक बना लिया। गौरतलब है कि सेना के पास साल 2008 के सैन्य मसौदा संविधान के अंतर्गत कुल सीटों में से 25 फीसद आरक्षित हैं। इतना ही नहीं कई प्रमुख मंत्री पद भी सेना के लिए आरक्षित हैं। सेना का आरोप बड़े पैमाने पर धांधली का तो है पर सबूत देने में वे असफल है। ऐसे में यह साफ प्रतीत होता है कि लोकतांत्रिक सत्ता को हड़पने का उसका इरादा था। तानाषाही का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि पहले लोकतंत्र पर कब्जा किया फिर सेना के खिलाफ प्रदर्षन कर रहे लोगों को मौत के घाट उतारा जा रहा है। सैकड़ों प्रदर्षनकारी मारे जा चुके हैं। यंगून, माण्डले समेत करीब दो दर्जन षहरों और कस्बों में रैलियां निकाली गयी। देखा जाये तो पुलिस और सैनिक आक्रामक रवैया अपनाये हुए है। इन सबकके बीच लोकतंत्र की रक्षा और बहाली को लेकर भी बातें सामने आयी हैं। सैन्य षासन जुंटा के प्रमुख ने कहा कि हम हर कीमत पर जनता की रक्षा करेंगे और जल्द ही चुनाव करायेंगे लेकिन इसका समय नहीं बताया।

सैन्य षासन का लम्बा इतिहास

पड़ताल बताती है कि म्यांमार में कभी अंग्रेजों का राज था। साल 1937 से पहले औपनिवेषिक सत्ता ने इसे भारत का ही एक राज्य घोशित किया था। बाद में इसे भारत से अलग कर अपना एक उपनिवेष बना लिया। गौरतलब है कि 80 के दषक के पहले इसका नाम बर्मा था। 4 जनवरी 1948 को बर्मा ब्रिटिष षासन से मुक्त हुआ और 1962 तक यहां पर लोकतंत्र के तहत सरकारें चुनी जाती थी। मगर 2 मार्च 1962 सेना के जनरल ने ने विन सरकार का तख्तापलट करते हुए सैन्य षासन की स्थापना कर दी। यहां के संविधान को निलम्बित कर दिया गया और बर्मा सैन्य षासन का लम्बा इतिहास के लिए जाना गया। सैन्य षासन के इस दौर में मानवाधिकार के उल्लंघन के भी आरोप यहां लगते रहे। सैन्य सरकार को बर्मा में मिलट्री जुंटा कहा जाता था। बर्मा में 5 दषक तक सैन्य षासन देखा जा सकता है। फिलहाल लम्बे संघर्श और कई उतार-चढ़ाव के बाद आखिरकार यहां पर लोकतंत्र बहाल हुआ जिसका श्रेय तीन दषक से इसके लिए प्रयासरत् आंग सान सू की को जाता है। मगर एक हकीकत यह भी है कि जहां लोकतंत्र को हड़पने की स्थिति बनती हो वहां ऐसा बार-बार बनने की सम्भावना रहती है। पाकिस्तान भी इसका बड़ा उदाहरण है। 

भारत की चिंता

भारत को म्यांमार में सैन्य तख्तापलट और षीर्श नेताओं को हिरासत में लेने के चलते गहरी चिंता होना लाज़मी है। पड़ोसी देष में सत्ता के लोकतांत्रिक ढंग से हस्तांतरण का भारत हमेषा समर्थन करता रहा है। जाहिर है कानून के षासन और लोकतांत्रिक प्रक्रिया के विरूद्ध तानाषाही का म्यांमार में होना भारत के लिए चिंता का विशय है। भारत की लगभग 1600 किमी लम्बी सीमा म्यांमार से लगती है। भारत को इस सीमा पर अलगाववादियों के हिंसक गतिविधियों का भी सामना करना पड़ता रहा है। गैर कानूनी नषीले पदार्थों का अफगानिस्तान के बाद म्यांमार दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक है। पूर्वोत्तर भारत में म्यांमार से नषीले पदार्थों की खेप की सम्भावना भी यहां व्याप्त रही है। नषीले पदार्थों का अवैध व्यापार, विद्रोही गतिविधियों एवं तस्करी की बुराई से निपटने के लिए दोनों देषों के 1993 में एक संधि भी हुई थी। लोकतंत्र की बहाली के लिए जारी आंदोलन के दौर में भारत काफी हद तक तटस्थ की भूमिका में रहा है और उसका मानना था कि लोकतंत्र समर्थक षक्तियों को अलोकतांत्रिक ढंग से नहीं कुचला जाना चाहिए। देखा जाये तो भारत-म्यांमार व्यापार सम्बंध 1970 में व्यापार समझौते के बाद प्रगाढ़ होते गये और भारत-म्यांमार के लिए बड़ा निर्यातक बाजार है परन्तु चीन से चुनौती मिलती रही है। नवंबर 2015 के म्यांमार के चुनाव से ही यह सूरत दिखने लगी थी कि यहां लोकतंत्र बहाल होने से भारत को एक सधे हुए लोकतांत्रिक पड़ोसी का मिलना भी तय हो गया। प्रधानमंत्री मोदी तब वैष्विक फलक पर दिखने लगे थे और देखते-देखते म्यांमार के साथ गुणात्मक सम्बंध की सम्भावना तुलनात्मक बढ़ गयी। नवम्बर 2014 में मोदी ने म्यांमार, आॅस्ट्रेलिया समेत फिजी के दस दिवसीय दौरों के दिन 3 दिन म्यांमार में बिताये थे। यह दौरा आसियान और ईस्ट-एषिया समिट में भाग लेने से सम्बंधित था इसी दौरान सू की से उनकी मुलाकात हुई थी। तब से लेकर अब तक म्यांमार के साथ भारत का सम्बंध समतल बनाने का प्रयास किया गया है। हालांकि 2017 में म्यांमार के रखायन प्रान्त में रोहिंग्या मुसलमानों के साथ जातीय हिंसा में एक बार फिर तेजी आयी और इसी दौरान प्रधानमंत्री मोदी की म्यांमार यात्रा भी हुई। माना जा रहा है कि हजारों की तादाद में रोहिंग्या मुसलमान अवैध रूप से भारत में रह रहे हैं। महत्वपूर्ण यह भी है कि लोकतांत्रिक सरकार के समय में रोहिंग्या से जुड़ी घटना का होना लोकतंत्र की कमजोरी को दर्षाता है। आंग सान सू की रोहिंग्या मामले में देखें तो उनकी सरकार को सकारात्मक करार नहीं दिया जा सकता। गौरतलब है कि साल 2012 में रखायन प्रान्त में हिंसा हुई और यह मध्य म्यांमार और माण्डले तक फैल गया। बौद्ध और मुसलमानों के बीच हुई हिंसा में तब सैकड़ों मुसलमानों की मौत हुई थी। 2013 और 2014 में भी ऐसे ही साम्प्रदायिक हिंसा की तादाद बढ़ी थी। म्यांमार के वास्तविक नेता और लोकतंत्र के प्रणेता आंग सान सू की से रोहिंग्या समेत कई मसलों पर जमीनी हल भी निकालना था। भारत सरकार के लिए अवैध रोहिंग्या मुसलमान चिंता का कारण है पर समाधान अभी खटाई में है। 

चीन का असमंजस

गौरतलब है कि म्यांमार आसियान के 10 देषों में से एक है और यहां के बाजार पर चीन का बाकायदा कब्जा है। यूरोपियन फाउंडेषन आॅफ साउथ एषियन स्टडीज के अनुसार म्यांमार के विद्रोहियों को चीन हथियार देकर भारत के खिलाफ उकसाता रहा है जबकि भारत लोकतंत्र का समर्थक रहा है। ऐसे में म्यांमार की सेना का चीन की तरफ झुकाव न हो ऐसा पूरी तरह खारिज करना सही नहीं है। चीन की अपनी बेबसी है जहां भारत को लोकतंत्र पसंद है वहीं उसे तानाषाह रवैया अच्छा लगता है। वह स्वयं दक्षिण चीन सागर में दादागिरी करता है और हिंद प्रषान्त क्षेत्र में विस्तारवादी नीति पर चलने का इरादा रखता है। कहा जाये तो हिन्द महासागर में वह अपनी पकड़ मजबूत करने की फिराक में न केवल रहता है बल्कि दक्षिण एषियाई देषों को कर्जा देकर उन्हें अपनी ओर मोड़ने और भारत को पीछे धकेलने का प्रयास भी करता रहा है। चीन के साथ म्यांमार के रिष्ते को लेकर आषंकायें चाहे जितनी हों मगर चीन म्यांमार में अस्थिरता नहीं चाहेगा साथ ही वह लोकतांत्रिक प्रक्रिया को भी बढ़ावा नहीं देना चाहेगा। यदि वह ऐसा करता है तो हांग कांग में लोकतंत्र बहाली को लेकर बरसों से चल रहा आंदोलन को वह प्रेरणा दे सकता है। वैसे म्यांमार के प्रदर्षनकारी आर-पार की बात कर रहे हैं। उनका मानना है कि उनका भविश्य दांव पर लगा है और वे इस बार जीत हासिल कर पाये तो उनके बच्चे षान्ति से रह पायेंगे।

आंग सान सू की का दूसरा घर है भारत

5 साल की सत्ता में रहने वाली सू की की पार्टी और दोबारा बड़ी बहुमत हासिल करने के बावजूद कठिनाई में फंसा वहां का लोकतंत्र यह दर्षाता है कि इतिहास से बहुत सबक नहीं लिया गया है। बावजूद इसके पड़ोसी और भारतीय होने के नाते लोकतंत्र की अगुवाई करने वाली आंग सान सू की जितनी सराहना की जाए कम है। सू हमेषा भारत को अपना दूसरा घर कहती रही हैं। 5 दषकों से जो देष सैन्य षासन से उबरने की कोषिष में हो वहां पर लोकतांत्रिक हवाओं का क्या मतलब होता है यह म्यांमार से पूछा जाए तो इसका वाजिब उत्तर जरूर मिलेगा। जाहिर है लोकतंत्र की आष्यकता और अनिवार्यता से कौन परे रहना चाहता है पर इतने लम्बे संघर्श के बाद यदि यह उपहार मिले तो अनमोल ही कहा जायेगा। मगर इस पर एक बार फिर ग्रहण लगे तो माथे पर बल लाज़मी है। सू को भारत में कई साल तक रहने का अनुभव है। उनकी मां भारत में राजदूत रहीं हैं। दिल्ली के श्रीराम लेडी काॅलेज से पढ़ाई करने वाली आंग सान सू षिमला के इंस्टीट्यूट आॅफ एडवांस स्टडी में बाकायदा फेलो भी रही हैं। जाहिर है कि उनके अन्दर भारतीय संस्कृति और लोकतांत्रिक मूल्यों का वास है। ऐसे में म्यांमार को एक अच्छी दिषा देने की पूरी कूबत उनमें देखी जा सकती है। हालांकि राश्ट्रपति सू नहीं बल्कि उनके मित्र तिन क्याॅ रहे हैं पर लोकतांत्रिक मर्यादाओं के चलन के चलते म्यांमार में सू की तूती बोलती रही। पाकिस्तान और चीन के चलते भारत पड़ोस में कहीं अधिक संवेदनषील और चिंतित रहता है वहीं नेपाल, भूटान, म्यांमार समेत अन्यों के साथ भारत का अतिरिक्त प्रेम उसके आषावादी होने का ही प्रमाण है। अब तक म्यांमार लोकतंत्र के आभाव में उतना मजबूत नहीं था जितना कि इसकी बहाली के बाद देखा जा सकता है। फिलहाल म्यांमार के लिए साल 2021 एक बार फिर अमंगलकारी सिद्ध हुआ है और इसमें भी कोई दो राय नहीं कि इस लोकतंत्र की बहाली को लेकर दुनिया चिंतित है।


डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 

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