Wednesday, May 24, 2023

अदालत में उलझी जातीय जनगणना


    समाजषास्त्रीय विचारक डी0एन0 मजूमदार ने कहा था कि जाति एक बन्द वर्ग है। फिलहाल इन दिनों जाति जनगणना को लेकर मामला काफी फलक पर है। हालांकि यह पूरे देष में नहीं है मगर बिहार जाति आधारित सर्वेक्षण के चलते चर्चा में है। गौरतलब है कि बिहार में जाति आधारित सर्वेक्षण का पहला दौर 7 से 21 जनवरी के बीच आयोजित हुआ था जबकि दूसरा दौर 15 अप्रैल को षुरू हुआ था। मगर यह न्यायालीय पचड़े में उलझ गया है। पटना उच्च न्यायालय के 4 मई के आदेष के खिलाफ षीर्श अदालत में दायर याचिका में बिहार सरकार ने कहा कि जातीय सर्वेक्षण पर रोक से पूरी कवायद पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। विदित हो कि पटना उच्च न्यायालय ने फिलहाल के लिये इस पर रोक लगायी है। जिस पर बीते 18 मई को षीर्श अदालत ने पटना उच्च न्यायालय के आदेष पर स्थगनादेष देने से इंकार कर दिया। राज्य सरकार का यह भी दृश्टिकोण है कि जाति आधारित आंकड़ों का संग्रह मूल अधिकार के अंतर्गत निहित अनुच्छेद 15 और 16 में एक संवैधानिक मामला है। विचारणीय मुद्दा यह भी है कि जातीय जनगणना का राजनीतिक या सुषासनिक दृश्टिकोण क्या होगा। वैसे तो भारत में जनगणना का चलन औपनिवेषिक सत्ता के दिनों से है और आखिरी बार ब्रिटिष षासन के दौरान जाति के आधार पर 1931 में जनगणना हुई थी। हालांकि 1941 में भी जनगणना हुई मगर आंकड़े पेष नहीं किये गये। आजादी के बाद भारत ने पहली जनगणना 1951 में सम्पन्न हुई जिसमें केवल अनुसूचित जातियों और जनजातियों को ही गिना गया जो अभी भी जारी है।
    बिहार में जातीय जनगणना राज्य सरकार के लिए अब सिर दर्द बन गयी है। बिहार सरकार ने पांच सौ करोड़ की लागत से इसे पूरा करने का संकल्प लिया था और अब मामला खटायी में जाता दिख रहा है साथ ही दौड़ सुप्रीम कोर्ट तक देखी जा सकती है। जबकि षीर्श अदालत उच्च न्यायालय के फैसले को बरकरार रखा है। हालांकि जुलाई में इसे लेकर अन्तिम निर्णय आ सकता है मगर तब तक के लिए नीतीष सरकार को असमंजस तो रहेगा ही। आखिर बिहार सरकार जातीय जनगणना को लेकर इतने उत्साहित क्यों है और अदालत का रवैया सरकार के पक्ष में क्यों नहीं है? बिहार सरकार की इस दलील कि राज्य ने कुछ जिलों में जातिगत जनगणना का 80 फीसद से अधिक सर्वे कार्य पूरा कर दिया है और महज 10 फीसद से भी कम कार्य बचा है। इतना ही नहीं पूरा तंत्र जमीनी स्तर पर काम करने में लगा है। फिर भी इसे लेकर के कोर्ट पर कोई असर नहीं है और दो टूक कहें तो नीतीष सरकार को सुप्रीम कोर्ट ने बड़ा झटका दिया है। गौरतलब है कि दो चरणों में की जा रही इस प्रक्रिया का पहला चरण 31 मई तक पूरा करने का लक्ष्य था जबकि दूसरे चरण में बिहार में रहने वाले लोगों की जाति, उपजाति और सामाजिक, आर्थिक स्थिति से जानकारियां जुटायी जायेंगी। याचिकाकत्र्ता का कहना है कि बिहार में हो रही इस प्रक्रिया से संविधान के मूल ढांचे का उल्लंघन हो रहा है क्योंकि जनगणना का विशय संविधान की 7वीं अनुसूची की संघ सूची में है। ऐसे में जनगणना कराने का अधिकार केन्द्र के पास है। विदित हो कि मूल संविधान में मूल ढांचे की कोई चर्चा नहीं है। 1973 में केषवानंद भारती मामले में पहली बार यह षब्द मुखर हुआ था। सर्वोच्च न्यायालय संविधान का संरक्षक है और उसी के द्वारा समय-समय पर यह बताया जाता है कि मूल ढांचा क्या है? याचिका में यह भी उल्लेख है कि 1948 की जनगणना कानून में जातिगत जनगणना करवाने का कोई प्रावधान नहीं है। फिलहाल बिहार सरकार के लिए अभी की स्थिति प्रतीक्षा करो और देखो की है।
    सभी जातियों और समुदायों का सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण सामान्य जनगणना में नहीं होती है अर्थात् यह एक अलग किस्म की अवधारणा हालांकि 1931 के बाद साल 2011 में इसे पहली बार आयोजित किया गया। दरअसल जनगणना भारतीय आबादी का एक समग्र चित्र प्रस्तुत करता है जबकि जातीय जनगणना राज्य द्वारा सहायता के योग्य लाभार्थियों की पहचान करने का एक उपाय के रूप में देखा जा सकता है। चूंकि जनगणना 1948 के जनगणना अधिनियम के अधीन आती है ऐसे में सभी आंकड़ों को गोपनीय माना जाता है। जबकि जातीय जनगणना में दी गयी सभी व्यक्तिगत जानकारी का उपयोग कर सरकारी विभाग परिवारों को लाभ पहुंचाने या प्रतिबंधित करने के लिए स्वतंत्र हैं। जातीय आधारित जनगणना के पक्ष और विपक्ष दोनों देखे जा सकते हैं। देखा जाये तो इसके होने से सामाजिक समानता और कार्यक्रमों के प्रबंधन में सहायता मिल सकती है। इसके माध्यम से ओबीसी आबादी के आकार, आर्थिक स्थिति, नीतिगत जानकारी, जनसांख्यिकीय जानकारी मसलन लिंगानुपात, मृत्युदर, जीवनप्रत्याषा और षैक्षिक डेटा आदि प्राप्त किया जा सकता है। इसमें कमियां भी पता चलेंगी और खूबियां भी। कमियों को दूर करने के लिए सरकार नीतियां बना सकती हैं और खूबियों से भरे लोगों को सरकार से मिल रही अतिरिक्त सेवा या लाभ को प्रतिबंधित किया जा सकता है। इसके विरोध में यह भी तर्क है कि जाति में एक भावनात्मक तत्व निहित होता है जिसका राजनीतिक और सामाजिक दुश्प्रभाव सम्भव है। हालांकि भारत विविध जातियों का देष है और राजनीति में इसका भरपूर उपयोग होता रहा है। वर्तमान में भले ही जातीय जनगणना को लेकर अलग किस्म की चर्चा हो मगर देष कभी भी जात-पात के बगैर रहा ही नहीं है। चुनाव का यह बड़ा आधार बिन्दु है यहां का बड़े-से-बड़ा नेता भी अपनी सियासी षतरंज की चाल इन्हीं जातियों के इर्द-गिर्द बनाता है। वैसे इस सच से पूरी तरह मुंह नहीं मोड़ा जा सकता कि जाति के आंकड़े न केवल इस प्रष्न पर स्वतंत्र षोध करने में सक्षम होंगे कि सकारात्मक नीति या कार्यवाही की आवष्यकता किसे है और किसे नहीं बल्कि यह आरक्षण की प्रभावषीलता में भी एक नया नजरिया देगा। दुविधा यह है कि कुछ बिन्दुओं की सही समझ व परख नहीं होने से एक ऐसी भ्रम की अवस्था बनती है जिससे आम जनमानस एक नई असुविधा में फंस जाता है। जातीय जनगणना कितना सही है यह कह पाना मुष्किल है। मगर इसके केवल दुश्प्रभाव हैं ऐसे मनोदषा भी ठीक नहीं है।
    भारत में प्रत्येक 10 साल में एक जनगणना की जाती है मगर कोविड-19 के कारण साल 2021 में यह हो नहीं पाया। जनगणना से सरकार को विकास योजनाएं तैयार करने में मदद मिलती है। किसे कितनी हिस्सेदारी मिली, कौन, कितना वंचित है आदि का पता भी चलता है और जातीय जनगणना तो इससे दो और कदम आगे है। साल 2010 में जब भाजपा सत्ता में नहीं थी तब ऐसा देखा गया कि संसद के भीतर भाजपा के नेता स्वर्गीय गोपीनाथ मुण्डे जाति आधारित जनगणना को लेकर कहीं अधिक तर्कषील थे। मगर सत्तासीन भाजपा सरकार से जब संसद में सवाल किया गया कि 2021 की जनगणना किस हिसाब से होगी अर्थात् जातीयों के हिसाब से या सामान्य तरीके से। सरकार का लिखित जवाब था कि केवल अनुसूचित जाति और जनजातियों को ही गिना जायेगा। साफ है कि अन्य अर्थात् ओबीसी आदि को गिनने की कोई योजना नहीं थी। दरअसल जो पार्टी सत्ता में रहती है वह जातीय जनगणना को लेकर बहुत आतुर नहीं रहती है। हालांकि यह नीतीष कुमार पर लागू नहीं है मगर जब पार्टियां विपक्ष में होती हैं तो इसे लेकर जोर भी लगाती हैं और षोर भी करती हैं और जातिगत जनगणना को मुद्दे के रूप में परोसती हैं। फिलहाल नफे-नुकसान की इस सोच के साथ कि जातीय जनगणना का सकारात्मक दृश्टिकोण किस बिन्दु तक होगा और नकारात्मक पहलू भारतीय समाज में इससे कितना पनपेगा से परे न्यायालय के फैसले का इंतजार करना चाहिए।

 दिनांक : 19/05/2023


डॉ0 सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाउंडेशन ऑफ पॉलिसी एंड एडमिनिस्ट्रेशन
लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर
देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)
मो0: 9456120502

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