समान अवसर न केवल लोकतंत्र की बुनियादी कसौटी है बल्कि सुषासन की चाह रखने वाली सरकारों के लिए स्मार्ट सरकार बनने का पहला चैप्टर है। सभी के लिए समान अवसर का सबसे महत्वपूर्ण कार्यक्षेत्र मानवतावादी दृश्टिकोण है और यही संदर्भ षासन और प्रषासन को सामाजिक सुषासन की ओर धकेलता है जो सुषासन की एक बुनियादी विचारधारा है। गौरतलब है कि सुषासन सामाजिक-आर्थिक न्याय की पराकाश्ठा है और लोक सषक्तिकरण इसके केन्द्र में होता है। समाज का प्रत्येक तबका सुषासन से सुसज्जित हो ऐसी अभिलाशा इसलिए ताकि जन सामान्य का जीवन खुषी और षान्ति से परिपूर्ण हो। यह अतिष्योक्ति नहीं कि सम्पूर्ण संविधान स्वयं में एक सुषासन है और इसी संविधान के भाग-4 के अन्तर्गत निहित नीति निर्देषक तत्व सामाजिक-आर्थिक स्थितियों का भरपूर निर्धारण है जो ईज़ आॅफ लिविंग का बेहद खूबसूरत उदाहरण है। लोक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा से ओत-प्रोत यह हिस्सा न केवल सामाजिक सुषासन को प्रतिश्ठित करने में योग देता है बल्कि राज्य सरकारें सचेतता के साथ कुछ भी बकाया न छोड़ें इस ओर ध्यान भी केन्द्रित करता है। गौरतलब है कि नीति निर्देषक तत्व के हर अनुच्छेद में गांधी दर्षन का प्रचण्ड भाव उद्घाटित होता है। अनुच्छेद 38, 41, 46 और 47 इस मामले में विषेश रूप से प्रासंगिक देखे जा सकते हैं। अनुच्छेद 38 के विन्यास को समझें तो यह जनता के कल्याण को बढ़ावा देने के लिए सामाजिक व्यवस्था कायम रखना, अनुच्छेद 41 काम के अधिकार, षिक्षा के अधिकार और लोक सहायता पाने का अधिकार के निहित भाव को समेटे हुए है जबकि अनुच्छेद 46 कमजोर तबको के षैक्षिक और आर्थिक हितों को बढ़ावा देना और अन्ततः अनुच्छेद 47 को यह जिम्मेदारी दी गयी है कि वह जनता के पोशण और जीवन स्तर को ऊंचा उठाये। हांलाकि भाग-4 के भीतर 36 से 51 अनुच्छेद निहित है जो सभी सामाजिक सुषासन के ही पर्याय हैं। इसी के अंदर समान कार्य के लिए समान वेतन समेत कई समतामूलक बिन्दुओं का प्रकटीकरण और आर्थिक लोकतंत्र का ताना-बाना दिखता है। डाॅ0 अम्बेडकर ने कहा था कि अगर आप मुझसे जानना चाहते हैं कि आदर्ष समाज कैसा होगा तो मेरा आदर्ष समाज ऐसा होगा जो स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे पर आधारित होगा। बारीक पड़ताल की जाये तो पता चलता है कि अम्बेडकर के इस कथन में सबके लिए समान अवसर का पूरा परिप्रेक्ष्य निहित है। एक और विचार यदि प्रषासनिक चिंतक फीडलैण्डर का भी देखें तो स्पश्ट होता है कि सामाजिक सेवाएं किसी जाति, धर्म तथा वर्ग के भेदभाव के बिना सभी तक उपलब्ध होनी चाहिए। जाहिर है हर किसी को नजरअंदाज किये बिना जैसा कि संविधान के भाग 3 के अंतर्गत मूल अधिकार में अनुच्छेद 16 के भीतर लोक नियोजन में अवसर की समता की बात कही गयी है हालांकि इसके अपने कुछ अपवाद हैं।
गौर करने वाली बात यह भी है कि भारत एक संघीय राज्य है जिसकी प्रकृति पुलिस राज्य के विपरीत जन कल्याणकारी की है। यहां राज्यों का कत्र्तव्य है कि वह सुषासनिक विधि का निर्माण कर उक्त सिद्धान्तों का अनुसरण करें। ऐसे ही कथा और व्यथा को ध्यान में रखते हुए 14 जून 1964 को सामाजिक सुरक्षा विभाग की स्थापना की गयी। 1972 में इस विभाग को षिक्षा तथा समाज कल्याण मंत्रालय को सौंप दिया गया तत्पष्चात् इसे स्वतंत्र मंत्रालय का दर्जा 24 अगस्त 1979 को समाज कल्याण मंत्रालय के रूप में दिया गया। मगर एक बार फिर इसके कार्य प्रकृति से प्रभावित होते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 1983-84 में इसका नाम बदलकर समाज एवं महिला कल्याण मंत्रालय कर दिया गया। इसकी गौरव गाथा यही तक नहीं है। 1988 से यह कल्याण मंत्रालय, ‘सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय’ के नाम से जाना जाता है। महिलाओं और पुरूशों के बीच समानता लाने और महिलाओं के साथ हिंसा समाप्त कराने के विशय में देष ने एक लम्बा रास्ता तय किया है जो महिलाएं रोजमर्रा की जिन्दगी में कई किरदार निभाती हैं उन्हें पुरूशों के समान स्थान देने में कई नीतियां धरातल पर उतारी गयी। संविधान में सभी को समान मौलिक अधिकार और समान विकास का अधिकार जहां दिया गया वहीं 1992 के 73वें और 74वें संविधान संषोधन में लोकतांत्रिकरण विकेन्द्रीकरण को बढ़ावा देते हुए स्थानीय स्वषासन ने इन्हें 33 फीसद की भागीदारी दी गयी जो अब यहां 50 फीसद है। कई कानूनों के माध्यम से इनकी सुरक्षा की चिंता की गयी मसलन घरेलू हिंसा कानून 2005। भेदभाव की परिपाटी को जड़ से खत्म करने के लिए सामाजिक सुषासन की धारा समय के साथ मुखर होती रही उसी का एक और ष्लोगन बेटी बचाओं, बेटी पढ़ाओ अभियान है।
संविधान स्वयं में सुषासन है जो समावेषी और सतत् विकास की अवधारणा से युक्त है कानून के समक्ष समता की बात हो, स्वतंत्रता व धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा हो या सबको समान अवसर देने की बात हो उक्त संदर्भ संविधान में बारीकी से निहित हैं। सीमांत और वंचित वर्गों का कल्याण अवसर की समानता का बोध है। अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति व अन्य पिछड़ा वर्ग का षैक्षणिक, आर्थिक और सामाजिक सषक्तिकरण के अलावा वरिश्ठ नागरिकों की देखभाल, महिलाओं की सुरक्षा साथ ही समाज के सभी वर्गों के लिए स्वतंत्र जीवन का अवसर उपलब्ध कराना इसकी पूरी पटकथा है। जिसके लिए यह चिंता बार-बार रही है कि सुषासन की भोर हो या दोपहर सामाजिक सरोकारों और विकास विन्यास में कोई छूट न जाये। यह बात अधूरी न रहे इसे देखते हुए दिव्यांगता के मुद्दे को प्रभावी ढंग से देखने व नीतिगत मामलो पर और अधिक ध्यान देने के साथ संगठनों और राज्य सरकारों तथा सम्बंधित केन्द्रीय मंत्रालयों के बीच और अधिक सामंजस्य स्थापित करने के लिए नोडल विभाग के तौर पर 12 मई 2012 को सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय में से दिव्यांगजन सषक्तिकरण विभाग को बनाया गया था। समता के मौलिक धारा को देखते हुए मई 2016 में दिव्यांगजन सषक्तिकरण विभाग नाम से पुनः नामकरण किया गया। इन सबके बावजूद भारत से भुखमरी का नामोनिषान मिटाने के लिए अभी बहुत लम्बा रास्ता तय करना बाकी है। जिस समावेषी विकास की बात होती रही है उसे तीन दषक का वक्त बीत चुका है। इतने समय में देष की आर्थिक व्यवस्था में अमूल-चूल परिवर्तन भी आ चुका है मगर गरीबी, भुखमरी और अषिक्षा से अभी नाता खत्म नहीं हुआ है। गौरतलब है कि देष में हर चैथा व्यक्ति अषिक्षित और इतने ही गरीबी रेखा के नीचे हैं जबकि ग्लोबल हंगर इंडेक्स 2020 की हालिया रिपोर्ट में भुखमरी में भारत को कहीं आगे बताती है जो नेपाल व अन्य पड़ोसी देषों से भी पिछड़ता दिखाई देता है। यहां बुनियादी समस्याओं की कसौटी पर समान अवसर की अवधारणा मानो हांफ रही हो। जाहिर है नीतिगत मौका और चैड़ा करना होगा। भारत सरकार 2030 के सतत् विकास लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए दृढ़ दिखाई देती है मगर मौजूदा स्थिति में जो पोशण की स्थिति है उस पर सामाजिक सुषासन पर अधिक ध्यान देने की कवायद रहनी चाहिए। यही कुपोशण से निपटना और देष को समृद्ध बनाने में मदद भी करेगा। गौरतलब है सामथ्र्यवान लोग और समृद्ध देष का गहरा नाता है।
भागीदारी की महत्ता एवं प्रासंगिकता के गुण सदियों से गाये जाते रहे हैं। हाल के वर्शों में भागीदारी या सहभागिता व ग्रामीण विकास ने षासन के प्रमुख विशय के रूप में अपनी अलग व विषिश्ट पहचान बनायी है। संयुक्त राश्ट्र आर्थिक व सामाजिक परिशद् ने सरकार व प्रषासन के सभी स्तरों पर आम लोगों की सार्थक व व्यापक भागीदारी सुनिष्चित करने पर बल दिया है। यह तब और षक्तिषाली होगा जब सभी के लिए सब प्रकार के अवसर उपलब्ध होंगे। लोकतंत्र के भीतर लोक और तंत्र तब अधिक परिणामी सिद्ध होते हैं जब आम लोगों की षासन के कामकाज में दखल होती है। इसी संदर्भ को देखते हुए साल 2005 में सूचना के अधिकार को भी प्रतिश्ठित किया गया जिसका षाब्दिक अर्थ सरकार के कार्यों में झांकना है। जहां सत्ता जवाबदेह, पारदर्षी और संवेदनषीलता से ओत-प्रोत हो वहां सुषासन निवास करता है। नीतियां जितनी अवसर की युक्तता से युक्त होंगी समता और सभी का समान विकास उसी पैमाने पर होगा। अक्षमता से समर्थता बीते सात दषकों में भारत की लम्बी छलांग रही है और इस इतिहास में कई आगे तो कई पीछे रहे हैं। जो पीछे छूटे हैं उन्हें साथ खड़ा करना सुषासन है। विज्ञान और तकनीक के मौजूदा युग में चीजें बढ़त की ओर हैं मगर लोक कल्याणकारी अवधारणा का पूरा पराक्रम अभी आना षेश है। विदित हो कि बीता एक वर्श भारत और विष्व के लिए एक अभूतपूर्व संकट का दौर था कमोबेष यह स्थिति अभी भी है। कोविड-19 ने भी यह पाठ पढ़ाया है कि सबके लिए समान अवसर अभी बाकी है। लोगों के लिए सुविधाओं और अवसरों की कमी उन्हें अपनी पूरी क्षमता और दक्षता के विकास के उद्देष्य को हासिल करने से रोकती हैं। जहां रूकावट है वहीं अवसर का आभाव और सुषासन का प्रभाव धूमिल है।
वास्तव में सामाजिक सुषासन किसी का अनुकरण नहीं है बल्कि यह स्वयं का अनुभव है आर्थिक तथा सामाजिक परिवर्तन एक प्रक्रिया मात्र तब बनकर रह जाती है जब सरकारें अपनी षेखी बघारने के लिए ऊँचे वायदे करती हैं मगर जमीन पर जमीनी विकास हवाहवाई रहता है। प्रौद्योगिकीकरण, औद्योगिकीकरण और आधुनिकीकरण सुषासन के उपकरण बन चुके हैं और सामाजिक सुषासन वर्तमान दौर में अवसर की समता के आधार तय कर रहे हैं। जाहिर है देष का जितना अधिक सामाजिक-आर्थिक विकास होगा, सत्ता का विकेन्द्रीकरण, व्यावहारिकता में परिवर्तन और राजनीतिज्ञों और नौकरषाहों में कार्यों के प्रति समर्पण होगा, अवसर की समता सबल होगी। इतना ही नहीं भ्रश्टाचार पर नियंत्रण और जन सहभागिता को बढ़ावा मिलेगा, सुषासन उतना परिपक्व होगा। विकास प्रक्रिया में बदलाव की आवष्यकता हमेषा रहती है इसी का परिणाम उदारीकरण, निजीकरण एवं भूमण्डलीकरण तथा विकास प्रषासन है और उक्त सभी का गठजोड़ सामाजिक सुषासन का संयोजन है। ऐसे ही संयोजनों से सबके लिए समान अवसर तैयार होते हैं। सबका साथ, सबका विकास मौजूदा सरकार का पुराना नारा है मगर प्रासंगिकता आज के दौर में अधिक है। स्पश्ट है कि समान अवसर सबको न केवल ताकत देता है बल्कि सुषासन की राह को भी चिकना बनाता है।
डाॅ0 सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन
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