Thursday, January 28, 2021

हम भारत के लोग का गणतंत्र और संविधान

स्वतंत्रता प्राप्ति के अलावा यदि देष के सामने कोई मजबूत चुनौती थी तो वह अच्छे संविधान के निर्माण की थी, जिसे संविधान सभा ने प्रजातांत्रिक मूल्यों को ध्यान में रखते हुए 2 वर्श, 11 महीने और 18 दिन में एक भव्य संविधान तैयार कर दिया, जो 26 जनवरी, 1950 को लागू हुआ। हालांकि संविधान 26 नवम्बर, 1949 में ही बनकर तैयार हो चुका था पर इसे लागू करने के लिए एक ऐतिहासिक तिथि की प्रतीक्षा थी, जिसे आने में 2 महीने का वक्त था और तिथि 26 जनवरी थी। दरअसल 31 दिसम्बर, 1926 को कांग्रेस के लाहौर अधिवेषन में यह घोशणा की गई कि 26 जनवरी, 1930 को सभी भारतीय पूर्ण स्वराज दिवस के रूप में मनायें। जवाहर लाल नेहरू की अध्यक्षता में उसी दिन पूर्ण स्वराज लेकर रहेंगे का संकल्प लिया गया और आजादी का पताका लहराया। देखा जाये तो 26 जनवरी, 1़950 से षुरू होने वाला गणतंत्र दिवस एक राश्ट्रीय पर्व के तौर ही नहीं राश्ट्र के प्रति समर्पित मर्म को भी अवसर देता रहा है। निहित मापदण्डों में देखें तो गणतंत्र दिवस इस बात को भी परिभाशित और विष्लेशित करता है कि संविधन हमारे लिए कितना महत्त्वपूर्ण है। दुनिया का सबसे बड़ा लिखित भारतीय संविधान केवल राजव्यवस्था संचालित करने की एक कानूनी पुस्तक ही नहीं बल्कि सभी लोकतांत्रिक व्यवस्था का पथ प्रदर्षक है। नई पीढ़ी को यह पता लगना चाहिए कि गणतंत्र का क्या महत्व है? 26 जनवरी का महत्त्व सिर्फ इतना ही नहीं है कि इस दिन संविधान प्रभावी हुआ था, बल्कि भारत को वैष्विक पटल पर बहुत कुछ प्रदर्षित करने का अवसर भी इस दिन मिलता है साथ ही सभी नागरिकों में नये आयामों के साथ देष के प्रति सर्मपण दिखाने का अवसर भी निहित रहता है। अब तक 71 बार हो चुका गणतंत्र दिवस कई साकारात्मक परिवर्तनों के साथ अनवरत् और अन्नत की ओर अग्रसर है। हालांकि देष में पनपी समस्याओं को लेकर भी निरंतर ये सवाल उठते रहते है कि अभी भी देष समाजिक समता और न्याय के मामलें में पूरी कूबत विकसित नहीं कर पाया है। गरीबी सहित कई सामाजिक समस्याएं अभी भी यहाँ व्याप्त है, पर इस बात को भी समझने की जरूरत है कि इससे निपटने के लिए बहु-आयामी प्रयास जारी है। यह बात सही है कि गणतंत्र जैसे राश्ट्रीय पर्व का अर्थ तभी निकल पायेगा जब गाँधी की उस अवधारणा को बल मिलेगा जिसमें उन्होंने सभी की उन्नति और विकास को लेकर सर्वोदय का सपना देखा था।

गणंतत्र के इस अवसर पर संविधान की बनावट और उसकी रूप रेखा पर विवेचनात्मक पहलू उभारना आवष्यक प्रतीत हो रहा है। देखा जाये तो संविधान सभा में लोकतंत्र की बड़ी आहट छुपी थी और यह ऐसा मंच था जहाँ से भारत का आगे का सफर तय होना था। दृश्टिकोण और परिपेक्ष्य यह भी है कि संविधान निर्मात्री सभा की 166 बैठकें हुयीं। कई मुद्दे चाहे भारतीय जनता की सम्प्रभुत्ता हो, समाजिक, आर्थिक और सामाजिक न्याय की हो, समता की गारंटी हो, धर्म की स्वतंत्रता हो या फिर अल्पसंख्यकों और पिछड़ों के लिए विषेश रक्षोपाय की परिकल्पना ही क्यों न हो सभी पर एकजुट ताकत झोंकी गई है। किसी भी देष का संविधान उसकी राजनीतिक व्यवस्था का बुनियादी ढाँचा निर्धारित करता है जो स्वयं कुछ बुनियादी नियमों का एक ऐसा समूह होता है, जिससे समाज के सदस्यों के बीच एक न्यूनतम समन्वय और विष्वास कायम रहें। संविधान यह स्पश्ट करता है कि समाज में निर्णय लेने की षक्ति किसके पास होगी और सरकार का गठन कैसे होगा। इसके इतिहास की पड़ताल करे तो पता चलता है कि यह किसी क्रांति का परिणाम नहीं है वरन् एक क्रमिक राजनीतिक विकास की उपज है। भारत में ब्रिटिष षासन से मुक्ति एक लम्बी लड़ाई और राजनीतिक प्रक्रिया के अन्तर्गत आपसी समझौते के आधार पर मिली थी और देष का संविधान भी आपसी समन्वय का ही नतीजा है। संविधान का पहला पेज प्रस्तावना गाँधी विचारधारा का प्रतीक है। संपूर्ण प्रभुत्त्वसम्पन्न, समाजवादी, पंथनिपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य जैसे षब्द गाँधी दर्षन के परिपेक्ष्य लिए हुए है। गाँधी न्यूनतम षासन के पक्षधर थे और इस विचार से संविधान सभा अनभिज्ञ नहीं था। इतना ही नहीं संविधान सभा द्वारा इस बात पर भी पूरजोर कोषिष की गई कि विशमता, अस्पृश्यता, पोशण आदि का नामोनिषान न रहें पर यह कितना सही है इसका विषदीकरण आज भी किया जाये तो अनुपात घटा हुआ ही मिलेगा। इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि आज का लोकतंत्र उस समरता से युक्त प्रतीत नहीं होता जैसा कि समाजिक-सांस्कृतिक अन्तर के बावजूद संविधान निर्माताओं से भरी सभा कहीं अधिक लोकतांत्रिक झुकाव लिए हुए थे और सही मायने में गणतंत्र के गढ़न से भी यह ओत-प्रोत था।

संक्षेप में कहें तो जहाँ गणतंत्र हमारी बड़ी विरासत और ताकत है तो वहीं संविधान हमारी प्रतिबद्वता और लोकतांत्रिक प्रक्रिया का साँझा समझ है वह जनोन्मुख, पारदर्षी और उत्तरदायी को प्रोत्साहित करता है पर यह तभी कायम रहेंगा जब लोकतंत्र में चुनी हुई सरकारें और सरकार का विरोध करने वाला विपक्ष असली कसौटी को समझेंगे। संविधान सरकार गठित करने का उपाय देता है, अधिकार देता है और दायित्व को भी बताता है पर देखा गया है कि सत्ता की मखमली चटायी पर चलने वाले सत्ताधारक भी संविधान के साथ रूखा व्यवहार कर देते है। जिसके पास सत्ता नहीं वह किसी तरह इसे पाना चाहता है। इस बात से अनभिज्ञ होते हुए कि संविधान क्या सोचता है, क्या चाहता है और क्या रास्ता अख्तियार करना चाहता है पर इस सच को भी नहीं झुठलाया जा सकता कि संविधान अपनी कसौटी पर कसता सभी को है। पड़ताल से पता चलता है कि 26 जनवरी, 1950 का गणतंत्र दिवस राजपथ पर से नहीं, बल्कि इर्विन स्टेडियम से षुरू किया गया था, जो आज का नेषनल स्टेडियम है। प्रथम राश्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद ने इर्विन स्टेडियम में झंडा फहराकर परेड की सलामी ली। 1954 तक यह समारोह कभी इर्विन स्टेडियम, कभी किंग्सवे कैंप तो कभी रामलीला मैदान में आयोजित होता रहा। साल 1955 से पहली बार गणतंत्र दिवस का परेड राजपथ पहुँचा, तब से आजतक यह नियमित रूप से जारी है। 8 किमी. लम्बी गणतंत्र परेड रायसीना हिल से षुरू होती है और राजपथ इंडिया गेट से षुरू होते हुए लाल किला तक पहुँचती है। तब लाल किले केदीवान-ए-आम में इस अवसर पर मुसायरे की परम्परा षुरू हुई। 1959 में हेलिकापटर से फूल बरसाने की प्रथा षुरू हुई, जबकि 1970 के बाद से 21 तोपों की सालामी का चलन प्रारम्भ हुआ।

15 अगस्त, 1947 की स्वाधीनता के बाद देष कई बदलाव से गुजरा है और 26 जनवरी, 1950 के गणतंत्रात्मक स्वरूप के धारण करते हुए कई विकास को भी छुआ है। 136 करोड़ का देष भारत और उसकी पूरी होती उम्मीदों में गणतंत्र की भूमिका को भी देखा-परखा जा सकता है। काल और परिपेक्ष्य में दृश्टिकोण परिवर्तित हुए है, कई संषोधन और सुधार भी हुए है पर गणतंत्र के मायने हर परिस्थितियों में कहीं अधिक भारयुक्त बना रहा। पहले गणतंत्र के अवसर पर इंडोनेषिया के राश्ट्रपति सुकार्णों की उपस्थिति तो कोरोना के इस दौर में साल 2021 के गणतंत्र दिवस पर कोई विदेषी मुख्य अतिथि के तौर पर उपस्थित नहीं होगा। हालांकि इंग्लैण्ड के प्रधानमंत्री बोरिस जाॅनसन को न्यौता दिया था मगर उन्होंने जनवरी की षुरूआत में ही न आने का प्रस्ताव भेज दिया था। 1950 से अब तक ऐसा तीन बार हो चुका है। 1952 और 1953 में जहां अतिथि की अनुपस्थिति रही वहीं 1966 में तात्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर षास्त्री के निधन के पष्चात् भी गणतंत्र दिवस के अवसर पर किसी को आमंत्रित ही नहीं किया गया था। फिलहाल भारत समेत वैष्विक पटल पर इस दिन की गूंज रहती है। देष की झलक और झाँकियों के साथ सबके मन में तिरंगे और राश्ट्रगान के प्रति एक नये किस्म कि सोच भी विकसित होती है।


 डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन  ऑफ़  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 

लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर

देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)

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