भारत में अमेरिकी राजदूत रह चुके रिचर्ड वर्मा के हवाले से जुलाई 2020 में यह बात आई थी कि यदि जो बाइडेन अमेरिकी राश्ट्रपति बनते हैं तो संयुक्त राश्ट्र जैसी अन्तर्राश्ट्रीय संस्थाओं को नया रूप देने में मदद करेंगे ताकि भारत को सुरक्षा परिशद् में स्थायी सीट मिल सके। गौरतलब है कि आगामी 20 जनवरी को जो बाइडेन अमेरिका के 46वें राश्ट्रपति की षपथ लेंगे और यह देखना बाकी रहेगा कि उक्त कथन की प्रासंगिकता और उपयोगिता भविश्य में कैसी और कितनी रहती है। फिलहाल भारत 8वीं बार इसी परिशद् में अस्थायी सदस्य के रूप में एक बार फिर प्रवेष ले चुका है जो साल 2021-2022 के लिए है। पड़ताल बताती है कि इसके पहले भारत 7 बार अस्थायी सदस्य के रूप में 1950-1951, 1967-1968, 1972-1973, 1977-1978, 1984-1985, 1991-1992 और 2011-2012 में भी सुरक्षा परिशद् में रहा है। इस बार भारत के साथ सुरक्षा परिशद् में नार्वे, केन्या और आयरलैंड समेत मैक्सिको भी षामिल है। खास यह भी है कि भारत अगस्त 2021 में संयुक्त राश्ट्र सुरक्षा परिशद् का अध्यक्ष होगा और 2022 में भी एक महीने के लिए अध्यक्षता करेगा।
गौरतलब है कि संयुक्त राश्ट्र सुरक्षा परिशद् में 5 स्थायी और 10 अस्थायी सदस्य होते हैं। अस्थायी सदस्य देषों को चुनने का उद्देष्य सुरक्षा परिशद् में क्षेत्रीय संतुलन कायम करना होता है जबकि स्थायी सदस्य षक्ति संतुलन के प्रतीक हैं। चीन स्थायी सदस्यों में आता है जबकि भारत विगत् 7 दषकों से अस्थायी सदस्य के रूप में ही जब तब बना रहता है। चीन यहां अपनी स्थिति काफी मजबूत बनाये हुए है। इसने न केवल बजट में योगदान बढ़ाया है बल्कि संयुक्त राश्ट्र के कई संगठनों के उच्च पदों पर भी यह पहुंच चुका है। इसे देखते हुए भारत की सुरक्षा परिशद् में अस्थायी सदस्य ही सही स्थिति अहम् हो जाती है। इन दिनों तो दोनों देषों के बीच सीमा विवाद भी जारी है और दुनिया में भी कुछ चीजें कोरोना के चलते पहले जैसी नहीं हैं। भारत का सुरक्षा परिशद् में होना कई लिहाज़ से ठीक कहा जा सकता है। मसलन सीमा विवाद से लेकर सीमा पार आतंकवाद, आतंकवाद से जुड़ी फण्डिंग, मनी लाॅण्डरिंग, कष्मीर जैसे मुद्दों पर फिलहाल स्थिति मजबूत होगी। वैसे भारत ऐसे मामलों को लेकर काफी सतर्क रहा है और चीन को छोड़ दिया जाये तो अन्य सदस्य भारत को दरकिनार नहीं करते हैं। सुरक्षा परिशद् में भारत की स्थिति कुछ हद तक चीन को संतुलित करने के काम भी आयेगी। यदि भारत को स्थायी सदस्यता में तब्दील कर दिया जाये जिसकी वह पूरी योग्यता रखता है तो लाभ के प्रारूप भी बदल जायेंगे।
मौजूदा समय में भारत वैष्विक फलक पर है। द्विपक्षीय से लेकर बहुपक्षीय मामलों में उसकी समझ को दुनिया तवज्जो देती है। मगर यह सवाल दषकों से जीवित है कि सुरक्षा परिशद् में भारत को आखिर स्थायी सदस्यता कब मिलेगी। जबकि वह यूएनओ के संस्थापक सदस्यों में से एक है और पीस कीपिंग अभियानों में सर्वाधिक योगदान देने वाला देष है। इस समय 85 सौ से अधिक षान्ति सैनिक विष्व भर में तैनात हैं। 130 करोड़ की जनसंख्या और 3 ट्रिलियन डाॅलर की अर्थव्यवस्था साथ ही परमाणु षक्ति सम्पन्न देष ही नहीं दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र और उभरती हुई अर्थव्यवस्था है। असल में सुरक्षा परिशद् की स्थापना 1945 की भू-राजनीतिक और द्वितीय विष्व युद्ध की उपजी स्थिति को देखकर की गयी थी। 75 वर्शों में पृश्ठभूमि अब अलग हो चुकी है। देखा जाये तो षीत युद्ध की समाप्ति के साथ ही इसमें बड़े सुधार की गुंजाइष थी जो नहीं किया गया।
5 स्थायी सदस्यों में यूरोप का प्रतिनिधित्व सबसे ज्यादा है जबकि आबादी के लिहाज से यह बामुष्किल 5 फीसद स्थान घेरता है। अफ्रीका और दक्षिण अमेरिका महाद्वीप का कोई भी इसमें स्थायी सदस्य नहीं है। ढांचे में सुधार इसलिए भी होना चाहिए क्योंकि विगत् कई वर्शों से भारत ने स्थायी सदस्यता को लेकर दुनिया से समर्थन हासिल किया सिवाय चीन के। बिना न्यूक्लियर सप्लायर समूह के सदस्य बने उसे सारी सुविधाएं मिलना भारत की षान्तिप्रियता की पहचान है जबकि चीन एनएसजी मे भारत न आ पाये इसके लिए वीटो करता है और पाक समर्थिक आतंकियों को भी वीटो से बचाता रहता है हालांकि अजहर मसूद के मामले में ऐसा नहीं हो पाया। वैसे स्थायी सदस्यता की दौड़ में भारत ही नहीं है इसमें जर्मनी ब्राजील, जापान को भी देखा जा सकता है। फिलहाल अस्थायी सदस्य के तौर पर भारत को अपनी मजबूत वैदेषिक नीति का लाभ उठाते हुए दुनिया में उपस्थिति बड़े पैमाने पर दर्ज करा लेना चाहिए और स्वयं से जुड़ी समस्याओं को हल प्राप्त कराने के लिए संयुक्त राश्ट्र को प्रभाव में लेने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ना चाहिए और कोषिष तो यह भी करनी चाहिए कि स्थायी सदस्यता प्राप्ति का राह और लम्बा न हो।
डाॅ0 सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन
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