भारत आज एक ऐसे महत्वपूर्ण बिन्दु पर खड़ा जहां से देष के 136 करोड़ नागरिकों की आकांक्षायें पूरी करने के लिए सूचना और संचार प्रौद्योगिकी किसी हथियार से कम नहीं है। भले ही यह दषकों पहले अनुभव किया गया था मगर इसका डिजिटल स्वरूप मौजूदा समय में एक नई आवाज बन कर फिलहाल उभर चुका है। डिजिटल इण्डिया का विस्तार व प्रसार केवल षहरी डिजिटलीकरण तक सीमित होने से काम नहीं चलेगा बल्कि इसके लिए मजबूत आधारभूत संरचना के साथ प्रत्येक ग्रामीण तक इसकी पहुंच बनानी होगी। गौरतलब है कि भारत में साढ़े छः लाख गांव और ढ़ाई लाख ग्राम पंचायतें हैं जिसमें आंकड़े इषारा करते हैं कि 2 साल पहले करीब आधी ग्राम पंचायतें हाई स्पीड नेटवर्क से जुड़ चुकी थी। भारत की अधिकांष ग्रामीण आबादी क्योंकि कृशि गतिविधियों से संलग्न हैं ऐसे में रोजगार और उद्यमषीलता का एक बड़ा क्षेत्र यहां समावेषित दृश्टिकोण के अन्तर्गत कृशि में जांचा और परखा जा सकता है। गांव में भी डिजिटल उद्यमी तैयार हो रहे हैं यह वक्तव्य लाल किले की प्राचीर से 15 अगस्त, 2021 को प्रधानमंत्री ने दिया था। गांव में 8 करोड़ से अधिक महिलाएं जो व्यापक पैमाने पर स्वयं सहायता समूह से जुड़ कर उत्पाद करने का काम कर रही हैं और इन्हें देष-विदेष में बाजार मिले इसके लिए सरकार ई-काॅमर्स प्लेटफाॅर्म तैयार करेगी उक्त संदर्भ भी उसी वक्तव्य का हिस्सा है। गौरतलब है कि 30 जून 2021 तक दीनदयाल अन्त्योदय योजना-राश्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिषन (डीएवाई-एनआरएलएम) के अन्तर्गत देष भर में लगभग 70 लाख महिला स्वयं सहायता समूह का गठन हुआ है जिनमें से 8 करोड़ से अधिक महिलायें जुड़ी हुई हैं। इंटरनेट एण्ड मोबाइल एसोसिएषन की सर्वे आधारित एक रिपोर्ट यह बताती है कि 2020 में गांव में इंटरनेट इस्तेमाल करने वालों की संख्या 30 करोड़ तक पहुंच चुकी थी। देखा जाये तो औसतन हर तीसरे ग्रामीण के पास इंटरनेट की सुविधा है। खास यह भी है कि इसका इस्तेमाल करने वालों में 42 फीसद महिलाएं हैं। उक्त आंकड़े इस बात को समझने में मददगार हैं कि ग्रामीण उत्पाद को डिजिटलीकरण के माध्यम से आॅनलाइन बाजार के लिए मजबूत आधार देना सम्भव है। जाहिर है गांवों में महिलाओं की श्रम षक्ति में हिस्सेदारी बढ़ रही है। कृषि क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी अभी भी 60 प्रतिशत के साथ बढ़त लिये हुए है। इतना ही नहीं, बचत दर सकल घरेलू उत्पाद का 33 प्रतिशत इन्हीं से सम्भव है। डेरी उत्पादन में कुल रोजगार का 94 महिलायें ही हैं साथ ही लघु स्तरीय उद्योगों में कुल श्रमिक संख्या का 54 प्रतिशत महिलाओं की ही उपस्थिति है।
ग्रामीण अर्थव्यवस्था की बेहतरी में डीएवाई-एनआरएलएम के तहत गठित स्वयं सहायता समूह किस पैमाने पर अपनी भूमिका सजग तरीके से निभा सकते हैं उसे समझने के लिए ग्रामीण आर्थिकी और डिजिटलीकरण को समझना जरूरी है। दो टूक यह है कि गांव में गरीबी की एक बड़ी वजह वित्तीय संसाधनों तक पहुंच का न हो पाना है। ध्यानतव्य हो कि साल 2008 में वित्तीय समावेषन पर रंगराजन रिपोर्ट में कहा गया था कि गिरवी न दे पाने की क्षमता, संस्थाओं की पहुंच और सामुदायिक व्यवस्था का निर्बल होना वित्तीय सामुच्चय के रास्ते में बड़ी बाधा है। रिपोर्ट में इसका भी संकेत मिलता है कि ऐसी तमाम कमजोरियों को दर-किनार करने के लिए स्वयं सहायता समूह की अहम भूमिका होगी। साथ ही इस बात का भी जिक्र है कि महिलाओं के सषक्तिकरण में यह समूह न केवल कारगर सिद्ध होगा बल्कि सामाजिक पूंजी विकसित करने में मदद करेगा। डिजिटलीकरण एक ऐसा आयाम है जिससे दूरियों के मतलब फासले नहीं है बल्कि उम्मीदों को परवान देना है। साल 2025 तक देष में इंटरनेट की पहुंच 90 करोड़ से अधिक जनसंख्या तक हो जायेगी जो सही मायने में एक व्यापक बाजार को बढ़ावा देने में भी सहायता करेगा। वर्तमान में देष वोकल फाॅर लोकल के मंत्र पर भी आगे बढ़ रहा है जिसके लिए डिजिटल प्लेटफाॅर्म होना अपरिहार्य है। डिजिटलीकरण के माध्यम से ही स्थानीय उत्पादों को दूर-दराज के क्षेत्रों और विदेषों तक पहुंच बनायी जा सकती है। इतना ही नहीं ग्रामीण डिजिटल उद्यमी को भी इससे एक नई राह मिलेगी। अनुमान तो यह भी है कि वित्त वर्श 2024-25 में करीब नौ करोड़ ग्रामीण परिवार डीएवाई-एनआरएलएम के दायरे में लाये जायेंगे। वर्तमान में 31 दिसम्बर 2020 तक ऐसे परिवारों की संख्या सवा 7 करोड़ से अधिक पहुंच चुकी है। दरअसल डिजिटलीकरण वित्तीय स्थिति पर निर्भर है और वित्तीय स्थिति उत्पाद की बिकवाली पर निर्भर करता है। ऐसे में बाजार बड़ा बनाने के लिए तकनीक को व्यापक करना होगा और इसके लिए हितकारी कदम सरकार द्वारा उठाने जरूरी हैं।
वैसे योग्य स्वयं सहायता समूह को डीएवाई-एनआरएलएम से 10 से 15 हजार रूपए का परिक्रामी निधि (रिवाॅल्विंग फण्ड) मिलता है। बैंक से कर्ज हासिल करने में भी ये मदद करता है। गौरतलब है कि कर्ज व्यक्ति को नहीं बल्कि स्वयं सहायता समूह (एसएचजी) के नाम पर मिलता है और यह समूह अपने सदस्यों को भिन्न-भिन्न गतिविधियों के लिए कर्ज देता है। कर्ज की दर सस्ती होती है ऐसा डीएवाई-एनआरएलएम के अन्तर्गत ब्याज सब्सिडी से सम्भव है। गौरतलब है कि देष के 250 पिछड़े जिलों में स्वयं सहायता समूह को अतिरिक्त सुविधा दी जा रही है। राज्यसभा से बीते 30 जुलाई को यह जानकारी मिलती है कि स्वयं सहायता समूह द्वारा कर्ज वापसी का प्रतिषत 97 फीसद से अधिक है। इसमें कोई दुविधा नहीं कि ग्रामीण क्षेत्रों में बढ़ता श्रम और वित्त को लेकर बढ़ते अनुषासन ग्रामीण उद्यमी को व्यापक स्वरूप लेने में मदद कर रहा है जिसका लाभ इनसे संलग्न महिलाओं को मिल रहा है। यह बदलाव आॅनलाइन व्यवस्था के चलते भी सम्भव हुआ है। सवाल यह भी है कि गांव में डिजिटल उद्यमी महिलाओं को बड़ा स्वरूप देने के लिए जरूरी पक्ष और क्या-क्या हैं? क्या ग्रामीणों को वित्त, कौषल और बाजार मात्र मुहैया करा देना ही पर्याप्त है। यहां दो टूक यह भी है कि आजीविका की कसौटी पर चल रही ग्रामीण व्यवस्थाएं कई गुने ताकत के साथ वक्त के तकाजे को अपनी मुट्ठी में कर रही हैं। क्या इस मामले में सरकार का प्रयास पूरी दृढ़ता और क्षमता से विकसित मान लिया जाये। ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूत करने के नारे बुलंद किये जा रहे हैं मगर स्थानीय वस्तुओं की बिकवाली के लिए जो बाजार होना चाहिए वे न तो पूरी तरह उपलब्ध हैं और यदि उपलब्ध भी हैं तो उन्हें बड़े पैमाने पर स्पर्धा का सामना करना पड़ रहा है। उत्पाद की सही कीमत और उन्हें ब्राण्ड के रूप में प्रसार का रूप देना साथ ही सस्ते और सुलभ दर पर डिजिटल सेवा से जोड़ना आज भी किसी चुनौती से कम नहीं है। कृशि और कृशक भारतीय अर्थव्यवस्था के मूल में है केवल इंटरनेट की कनेक्टिविटी को सभी तक पहुंचाना विकास की पूरी कसौटी नहीं है। कोरोना महामारी के चलते जो स्वयं सहायता समूह बिखर गये हैं और वित्तीय संकट से जूझ रहे हैं उन पर भी दृश्टि डालने की आवष्यकता है।
वोकल फाॅर लोकल का नारा कोरोना काल में तेजी से बुलंद हुआ है। स्थानीय उत्पादों को प्रतिस्पर्धा और वैष्विक बाजार के अनुकूल बनाना फिलहाल चुनौती तो है मगर बेहतर होने का भरोसा घटाया नहीं जा सकता। ग्रामीण उद्यमी जिस प्रकार डिजिटलीकरण की ओर अग्रसर हुए हैं स्पर्धा को भी बौना कर रहे हैं। वस्तु उद्योग से लेकर कलात्मक उत्पादों तक उनकी पहुंच इसी डिजिटलीकरण के चलते जन-जन तक पहुंच रहा है। हालांकि यह एक दुविधपूर्ण प्रष्न है कि क्या ग्रामीण क्षेत्रों के बड़े उपभोक्ता को लक्षित करते हुए विपणन नीति को बड़ा आयाम नहीं दिया जा सकता है। कई ऐसी कम्पनियां हैं जो ग्रामीण उत्पादों को ब्राण्ड के रूप में प्रस्तुत करके बड़ा लाभ कमा रही हैं। जाहिर है ग्रामीण उद्यमी गांव के बाजार तक सीमित रहने से सक्षम विकास कर पाने में कठिनाई में रहेंगे जबकि डिजिटलीकरण को और सामान्य बनाकर भारत के ढ़ाई लाख पंचायतों और साढ़े छः लाख गांवों तक पहुंचा दिया जाये तो उत्पादों को प्रसार करने में व्यापक सुविधा मिलेगी। कई कम्पनियां गांवों को आधार बनाकर जिस तरह ग्रामीण अनुकूल उत्पाद बनाकर ग्रामीण बाजार में ही खपत कर देती हैं इसे लेकर के भी ग्रामीण उद्यमी एक नई चुनौती का सामना कर रहे हैं। हालांकि यह बाजार है जो बेहतर होगा वही स्थायी रूप से टिकेगा। वर्शों पहले विष्व बैंक ने कहा था कि भारत की पढ़ी-लिखी महिलायें यदि कामगार का रूप ले लें तो भारत का विकास दर 4 फीसद की बढ़त ले लेगा। तथ्य और कथ्य को इस नजर से देखें तो मौजूदा समय में भारत आर्थिक रूप से एक बड़ी छलांग लगाने की फिराक में है। लक्ष्य है 2024 तक 5 ट्रिलियन डाॅलर की अर्थव्यवस्था करना। जिसके लिए यह अनुमान पहले ही लगाया जा चुका है कि ऐसा विकास दर के दहाई के आंकड़े से ही सम्भव है और इसमें कोई दो राय नहीं कि यह आंकड़ा बिना महिला श्रम के सम्भव नहीं है। गांव का श्रम सस्ता है लेकिन वित्तीय कठिनाईयों के चलते संसाधन की कमी से जूझते हैं। सुषासन का तकाजा और षासन का उदारवाद यही कहता है कि भारत पर जोर दिया जाये क्योंकि इण्डिया को यह स्वयं आगे बढ़ा देगा। नजरिया इस बात पर भी रखने की आवष्यकता है कि बड़े-बड़े माॅल और बाजार में बड़े-बड़े महंगे ब्राण्ड की खरीदारी करने वाले अपनी जरूरतों को इस ओर भी विस्तार दें तो ग्रामीण उद्यमी वित्तीय रूप से न केवल सषक्त होंगे बल्कि सुषासन की आधी परिभाशा को भी पूरी करने में मददगार सिद्ध होंगे।
दिनांक : 28 अक्टूबर, 2021
डाॅ0 सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन
लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर
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