ग्लासगो में बीते 31 अक्टूबर में संयुक्त राश्ट्र षिखर सम्मेलन (कोप 26) की षुरूआत हुई। इस सम्मेलन में 200 देषों के राश्ट्राध्यक्ष और प्रतिनिधि धरती को बचाने के लिए जाहिर है मंथन किया। इसी क्रम में प्रधानमंत्री मोदी भी जी-20 षिखर सम्मेलन में भाग लेने के लिए ग्लासगो में थे। भारत ने इस मौके पर यह घोशणा किया है कि वह 2030 तक कार्बन उत्सर्जन 30 प्रतिषत घटाये। हालांकि पड़ोसी चीन 65 फीसद तक कटौती की बात कही है पर उसने स्पश्ट लक्ष्य अभी तक तय नहीं किया। जी-20 के सम्मेलन में दूसरे देषों को कोयला आधारित बिजली संयंत्र हेतु इस साल के बाद वित्तीय मदद नहीं दी जायेगी इसका भी संदर्भ यहां देखा जा सकता है। मगर ऐसे संयंत्र कब बंद किये जायेंगे इसकी कोई समय सीमा नहीं बतायी गयी। गौरतलब है कि ग्लोबल वार्मिंग के चलते समस्या दुनिया के सामने है। डेढ़ डिग्री सेल्सियस से अधिक तापमान बढ़ने नहीं देने का संकल्प अब एक नई चुनौती बन गया है क्योंकि अब यह तापमान इसके करीब पहुंच रहा है। जीवनषैली में बड़ा बदलाव और आसान जीवन लाना यह भी एक चुनौती है। जलवायु सम्मेलन का अपना एक इतिहास है मगर यह केवल इरादा जताने मात्र से सम्भव नहीं है बल्कि बढ़ते तापमान को रोकने के लिए दुनिया को जलवायु की गम्भीरता को समझते हुए सुषासनिक कदम उठाने की आवष्यकता है। सुषासन जो लोक प्रवर्धित अवधारणा है, लोक कल्याण की विचारधारा है और पारदर्षिता के साथ संवेदनषीलता का आवरण लिए हुए है। यदि ग्लोबल वार्मिंग से वाकई में निपटने को लेकर सभी सचेत हैं तो सबसे पहले दुनिया के तमाम देष स्वयं से यह सवाल करें कि पृथ्वी बचाने को लेकर वे कितने ईमानदार हैं।
स्पश्ट षब्दों में कहा जाय तो ग्लोबल वार्मिंग दुनिया की कितनी बड़ी समस्या है यह बात आम आदमी समझ नहीं पा रहा है और जो खास हैं और इसे जानते समझते हैं वो भी कुछ खास कर नहीं पा रहे हैं। साल 1987 से पता चला की आकाष में छेद है इसी वर्श मान्ट्रियाल प्रोटोकाॅल इस छिद्र को घटाने की दिषा में प्रकट हुआ पर हाल तो यह है कि चीन द्वारा प्रतिबंधित क्लोरो-फ्लोरो कार्बन का व्यापक और अवैध प्रयोग के चलते मान्ट्रियाल प्रोटोकाॅल कमजोर ही बना रहा। जाहिर है ओजोन परत को नुकसान पहुंचाने में इसकी बड़ी भूमिका है। गौरतलब है कि यूके स्थित एक एनजीओ एन्वायरमेंटल इन्वेस्टीगेषन एजेन्सी की एक जांच में पाया गया कि चीनी फोम विनिर्माण कम्पनियां अभी भी प्रतिबंधित सीएफसी-।। का उपयोग करती हैं। साल 2000 में अधिकतम स्तर पर पहुंच चुका ओजोन परत में छिद्र कुछ हद तक कम होता प्रतीत हो रहा है। पड़ताल बताती है कि 1987 में यह छिद्र 22 मिलियन वर्ग किलोमीटर था जो 1997 में 25 मिलियन किलोमीटर से अधिक हो गया। वहीं 2007 में इसमें आंषिक परिवर्तन आया। फिलहाल 2017 तक यह 19 मिलियन वर्ग किलोमीटर पर आ चुका है। ओजोन परत के इस परिवर्तन ने कई समस्याओं को तो पैदा किया ही है। विज्ञान की दुनिया में यह चर्चा आम है कि ग्लोबल वार्मिंग को लेकर यदि भविश्यवाणी सही हुई तो 21वीं षताब्दी का यह सबसे बड़ा खतरा होगा जो तृतीय विष्वयुद्ध या किसी क्षुद्रग्रह का पृथ्वी से टकराने से भी बड़ा माना जा रहा है। ग्लोबल वार्मिंग के चलते होने वाले जलवायु परिवर्तन के लिए सबसे अधिक जिम्मेदार ग्रीन हाउस गैस है। अगर इन गैसों का अस्तित्व मानक सूचकांक तक ही रहता है तो पृथ्वी का वर्तमान में तापमान काफी कम होता पर ऐसा नहीं है। इस गैस में सबसे ज्यादा कार्बन डाई आॅक्साइड महत्वपूर्ण है जिसकी मात्रा लगातार बढ़ रही है और जीवन पर यह भारी पड़ रही है।
कहा यह भी जा रहा है कि 2030 तक जलवायु परिवर्तन पर रोक लगाने के लिए कई महत्वाकांक्षी कदम उठाने होंगे। जमीन, ऊर्जा, उद्योग, भवन, परिवहन और षहरों में 2030 तक उत्सर्जन का स्तर आधा करने और 2050 तक षून्य करना जो स्वयं में एक चुनौती है। ग्लोबल वार्मिंग रोकने का फिलहाल बड़ा इलाज किसके पास है कह पाना मुष्किल है। जिस तरह दुनिया गर्मी की चपेट में आ रही है और इसी दुनिया के तमाम देष संरक्षणवाद को महत्व देने में लगे हैं उससे भी साफ है कि जलवायु परिवर्तन से जुड़ी चुनौती निकट भविश्य में कम नहीं होने वाली। पृथ्वी को सही मायने में बदलना होगा और ऐसा हरियाली से सम्भव है पर कई देष में हरियाली न तो है और न ही इसके प्रति कोई बड़ा झुकाव दिखा रहे हैं। पेड़-पौधे बदलते पर्यावरण के हिसाब से स्वयं को ढ़ालने में जुट गये हैं। वह दिन दूर नहीं कि ऐसी ही कोषिष अब मानव को करनी होगी। मेसोजोइक युग में पृथ्वी का सबसे बड़ा जीव डायनासोर जलवायु परिवर्तन का ही षिकार हुआ था। ऐसा भी माना जा रहा है कि ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन की वजह से रेगिस्तान में गर्मी बढ़ेगी जबकि मैदानी इलाकों में इतनी प्रचण्ड गर्मी होगी जितना की इतिहास में नहीं रहा होगा। यदि साल 2030 तक पृथ्वी का तापमान 2 डिग्री सेल्सियस यानी अनुमान से आधा डिग्री अधिक होता है तो थाइलैण्ड, फिलिपींस, इण्डोनेषिया, सिंगापुर, मालदीव तथा मेडागास्कर व माॅरिषस समेत कितने द्वीप व प्रायद्वीप पानी से लबालब हो जायेंगे। ऐसे में क्या करें, पहला प्रकृति को नाराज़ करना बंद करें, दूसरा प्रकृति के साथ उतना ही छेड़छाड़ करें जितना मानव सभ्यता बचे रहने की सम्भावना हो। उश्णकटिबंधीय रेगिस्तानों में विभिन्न क्षेत्रों द्वारा ग्रीन हाउस गैसों का विवरण देख कर तो यही लगता है कि पृथ्वी को विध्वंस करने में हमारी ही भूमिका है। पड़ताल से पता चलता है कि पावर स्टेषन 21.3 प्रतिषत, इंडस्ट्री से 16.8, यातायात व गाड़ियों से 14, खेती किसानों के उत्पादों से 12.5, जीवाष्म ईंधन के इस्तेमाल से 11.3, बायोमास जलाने से 10 प्रतिषत समेत कचरा जलाने आदि से 3.4 फीसीदी ग्रीन हाउस गैस का उत्सर्जन होता है। ये सभी धीरे-धीरे इस मृत्यु का काल बन रही है।
दुनिया भर की राजनीतिक षक्तियां बड़े-बड़े मंचों से बहस में उलझी हैं कि गर्म हो रही धरती के लिए कौन जिम्मेदार है। कई राश्ट्र यह मानते हैं कि उनकी वजह से ग्लोबल वार्मिंग नहीं हो रही है। अमेरिका जैसे देष पेरिस जलवायु संधि से हट जाते हैं जो दुनिया में सबसे अधिक कार्बन उत्सर्जन के लिए जाने जाते हैं और जब बात इसकी कटौती की आती है तो भारत जैसे देषों पर यह थोपा जाता है। चीन भी इस मामले में कम दोशी नहीं है वह भी चोरी-छिपे ओजोन परत को नुकसान पहुंचाने वाली क्लोरो-फ्लोरो कार्बन का उत्सर्जन अभी भी रोकने में नाकाम रहा। ग्लोबल वार्मिंग के लिए ज्यादातर अमीर देष जिम्मेदार हैं। समुद्र में बसे छोटे देष का अस्तित्व खतरे में है यदि वर्तमान उत्सर्जन जारी रहता है तो दुनिया का तापमान 4 डिग्री सेल्सियस बढ़ जायेगा, ऐसे में तबाही तय है। सभी जानते हैं बदलाव हो रहा है। दुनिया में कई हिस्से में बिछी बर्फ की चादरे भविश्य में पिघल जायेंगी, समुद्र का जल स्तर बढ़ जायेगा और षायद देर-सवेर अस्तित्व भी मिट जायेगा। गौरतलब है कि भारत 2030 तक कार्बन उत्सर्जन में 1 अरब टन की कटौती करेगा और 2070 तक यह नेट जीरो होगा। 16वें जी-20 षिखर सम्मेलन और कोप-26 की वल्र्ड लीडर्स सम्मेलन में भारत की उपस्थिति दुनिया को सकारात्मकता का एहसास कराया है। जलवायु परिवर्तन के मामले में भारत पहले से ही संजीदगी दिखाता रहा है। सवाल है कि समावेषी और सतत् विकास के मापदण्डों पर दुनिया अपने को कितना सुषासनिक बनाती है और जलवायु परिवर्तन के मामले में कितनी बेहतर रणनीति ताकि आने वाली पीढ़ियों को अनुकूल पृथ्वी मिले। ऐसा तभी सम्भव है जब सभी जलवायु की सकारात्मकता को लेकर सुषासन की सही दिषा पकड़ेंगे।
दिनांक : 5 नवम्बर, 2021
डाॅ0 सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन
लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर
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