Monday, August 6, 2018

बिना एनएसजी के ही ताकतवर भारत

चीन यह राग हमेशा अलापता रहा कि एनएसजी नियमों के मुताबिक सदस्यता उन्हीं देषों को दी जानी चाहिए जिन्होंने परमाणु अप्रसार संधि पर हस्ताक्षर किये। यह सच है कि भारत एनपीटी और सीटीबीटी पर बिना हस्ताक्षर के न्यूक्लियर सप्लायर समूह (एनएसजी) में जगह चाहता है। भारत की मुसीबत यह है कि एनएसजी के 48 सदस्यों में चीन भी है और भारत का इसमें षामिल होना उसे खटकता है। रही बात एनपीटी और सीटीबीटी की यह उसका बहाना मात्र है। अमेरिका के पूर्व राश्ट्रपति बराक ओबामा अंत तक यह प्रयास करते रहे कि भारत को एनएसजी में सदस्यता मिलनी चाहिए। अमेरिका समेत ब्रिटेन, फ्रांस और जर्मनी जैसे तमाम देष भारत के परमाणु कार्यक्रम ट्रैक रिकाॅर्ड को देखते हुए छूट देने के पक्षधर रहे परन्तु चीन को भारत का ट्रैक रिकाॅर्ड निजी दुष्मनी के कारण कभी दिखाई ही नहीं दिया। दरअसल इस समूह में षामिल होने से न केवल ईंधन बल्कि तकनीक का भी आदान-प्रदान सहज हो जाता है। फिलहाल बरसों से भारत इसकी सदस्यता हेतु दुनिया के देषों से समर्थन जुटा रहा है पर नतीजे अभी भी खटाई में है परन्तु इस बीच एक सुखद सूचना यह आयी कि बिना एनएसजी के सदस्यता के ही भारत अमेरिका से असैन्य अंतरिक्ष और रक्षा क्षेत्र में उच्च तकनीक वाले उत्पाद खरीद सकेगा। गौरतलब है कि भारत को अमेरिका की तरफ से स्ट्रेटजिक ट्रेड आॅथराइजेषन (एसटीए-1) का दर्जा मिल गया है। जिसके चलते भारत को अब एनएसजी सदस्यता की जरूरत नहीं रह जाती। जापान और दक्षिण कोरिया के बाद भारत ऐसा दर्जा हासिल करने वाला तीसरा एषियाई देष है जबकि दुनिया का 37वां। जाहिर है अमेरिका के इस कदम से दुनिया भर के देष का भारत पर भरोसा पहले की तुलना में और बढ़ेगा। 
अमेरिका एसटीए-1 दर्जा आम तौर पर नाटो सहयोगियों को ही देता रहा है। इस सूची में केवल उन्हीं देषों को षामिल किया था जो मिसाइल प्रौद्योगिकी नियंत्रण संधि (एमटीसीआर), परम्परागत हथियारों के व्यापार में पारदर्षिता लाने हेतु वासेनार समझौता (डब्ल्यूए) रासायनिक एवं जैविक हथियारों के व्यापार पर नियंत्रण के लिये गठित आॅस्ट्रेलिया समेत (एजी) और परमाणु आपूर्तिकत्र्ता समूह (एनएसजी) के सदस्य रहे हैं। भारत एनएसजी को छोड़कर बाकी तीन संधियों में षामिल है। जाहिर है भारत इसके पहले एसटीए-2 में था। अमेरिका के इस सकारात्मक पहल से चीन की समस्या बढ़ना तय है। वैष्विक फलक पर कूटनीति का मिजाज़ भी बड़ा रोचक होता है। पुराने अनुभव के आधार पर यह कह सकते हैं कि भारत अन्तर्राश्ट्रीय संधियों के आगे कभी झुका नहीं बल्कि अपने संयमित कृत्यों से दुनिया को झुकाने का काम किया। अमेरिका का ताजा कदम इस बात को पुख्ता करती है। अमेरिका ने भी माना है कि भारत सभी व्यावहारिक उद्देष्यों के लिये एनएसजी के निर्यात नियंत्रण वाले समूहों के साथ जुड़ गया है। खास यह भी है कि इज़राइल अमेरिका के सबसे नजदीकी देषों में आता है मगर यह दर्जा उसे भी नहीं प्राप्त है। वैसे एक दृश्टि यह भी है कि अमेरिका ने भारत को एसटीए-1 में षामिल करके चीन और षेश दुनिया को एक बड़ा राजनीतिक संदेष भी दे दिया है और सीधे तौर पर चीन को तो यह भी जता दिया है कि एषियाई देषों में भारत की क्या साख है और अमेरिका से उसकी निकटता का क्या मतलब है। इसमें अमेरिका ने चीन को कूटनीतिक तौर पर दबाव में लेने का भी प्रयास किया है। गौरतलब है कि बीते जून सिंगापुर में अमेरिकी राश्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प और उत्तर कोरियाई षासक किम जोंग के बीच बरसों की तनातनी के बाद षान्ति की तलाष में एक बैठक हुई जो सफल भी रही। दुनिया जानती है कि उत्तर कोरिया की संरक्षक की भूमिका में चीन ही है और किम जोंग को पटरी पर तभी लाया जा सकता है जब उसे चीन के प्रभाव से मुक्त किया जा सकेगा। हालांकि पाकिस्तान भी चीन के प्रभाव में है और आतंक की खेती करता है। इसे लेकर भी चीन पर कूटनीतिक प्रहार हुआ है से इंकार नहीं किया जा सकता। गौरतलब है कि भारत, अमेरिका, दक्षिण कोरिया और जापान की एकजुटता इस मामले में कारगर हो सकती है। चीन को हतोत्साहित करने वाले कदम पहले भी उठाये जा चुके हैं जब भारत, अमेरिका और जापान ने दक्षिण चीन सागर में युद्धाभ्यास मिलकर किया था। फिलहाल भले ही अमेरिकी चाल एनएसजी की सदस्यता में रूकावट बनने वाले चीन को नागवार गुजरी हो पर भारत की दृश्टि से यह बड़ी कूटनीतिक विजय है। 
विवेचनात्मक पक्ष यह भी है कि जब वर्श 1974 में पोखरण परीक्षण हुआ तब इसी वर्श परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह से भारत को बाहर रखने के लिए एक समूह बनाया गया जिसमें अमेरिका, रूस, फ्रांस, पष्चिमी जर्मनी और जापान समेत सात देष थे जिनकी संख्या अब 48 हो गयी है। इतना ही नहीं वर्श 1981-82 के दिनों में भारत के समेकित मिसाइल कार्यक्रमों के तहत नाग, पृथ्वी, अग्नि जैसे मिसाइल कार्यक्रम का जब प्रकटीकरण हुआ और इस क्षेत्र में भरपूर सफलता मिलने लगी तब भी पाबंदी लगाने का पूरा इंतजाम किया जाने लगा। गौरतलब है कि 1997 में मिसाइल द्वारा रासायनिक, जैविक, नाभिकीय हथियारों के प्रसार पर नियंत्रण के उद्देष्य से सात देषों ने एमटीसीआर का गठन किया हालांकि जून, 2016 से भारत अब इसका 35वां सदस्य बना जबकि चीन अभी भी इससे बाहर है। जाहिर है पहले दुनिया के तमाम देष नियम बनाते थे और उसका भारत अनुसरण करता था परन्तु यह बदलते दौर की बानगी ही कही जायेगी कि दुनिया के तमाम देष अब भारत को भी साथ लेना चाहते हैं। हालांकि एनएसजी के मामले में अभी बात नहीं बन पाई है परन्तु अमेरिका द्वारा उठा ताजा कदम इसकी भी कमी पूरी कर दी। दो टूक यह भी है कि एमटीसीआर यानी मिसाइल तकनीक नियंत्रण व्यवस्था में भारत अपनी उपस्थिति दर्ज कराकर नियमों का अनुसरणकत्र्ता ही नहीं नियमों का निर्माता भी बन गया। साथ ही एमटीसीआर के क्लब में जाने से चीन जैसे देषों को भी हाषिये पर भी धकेलने में सफल रहा। जाहिर है पिछले 15 वर्शों से चीन एमटीसीआर में षामिल होने के लिए प्रयासरत् है परन्तु सफलता से अभी वह कोसो दूर है। एनएसजी के मामले में अडंगा लगाने वाला चीन भले ही अपनी पीठ थपथपा ले परन्तु एमटीसीआर में भारत की एंट्री के चलते यहां उसकी भी राह आसान नहीं है। बदले दौर के परिप्रेक्ष्य में देखें तो भारत कहीं आगे है, उभरती अर्थव्यवस्था वाले देषों में षुमार है, वैष्विक कूटनीति में भी अव्वल है। मात्र एनएसजी में न होने से जो कमी थी उसे एसटीए-1 ने पूरी कर दी। 
सभी के दिमाग में यह सवाल उठ सकता है कि अमेरिका ने भारत को इतना महत्व क्यों दिया और चीन की असली परेषानी क्या है? अमेरिका ही नहीं दुनिया भी जानती है कि भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है, सबसे बड़ा बाजार है और अत्यधिक सम्भावनाओं से भरा है साथ ही कूटनीतिक तौर पर संतुलित और आतंक की चोट सहने के बावजूद भी बर्बर रवैया नहीं अपनाता है। इसके अलावा कई मामलों में अमेरिका के साथ द्विपक्षीय साझेदार है और हथियारों का बड़ा खरीदार भी। सितम्बर 2014 में मोदी की पहली अमेरिकी यात्रा तत्पष्चात् आॅस्ट्रेलिया के ब्रिस्बेन में जी-20 में सार्थक मुद्दों पर बातचीत से प्रगाढ़ता और बढ़ी । साल 2015 के गणतंत्र दिवस पर बराक ओबामा अमेरिका के पहले राश्ट्रपति जो मुख्य अतिथि बने। डोनाल्ड ट्रम्प भी मोदी के मुरीद रहे साथ ही संतुलित कूटनीति के चलते भी अमेरिका ने भारत को महत्व दिया। जहां तक सवाल चीन का है उसकी परेषानी उसके दिमाग में है वह समझता है कि यदि भारत एनएसजी का सदस्य बनता है तो इसके नाते संयुक्त राश्ट्र सुरक्षा परिशद् के लिये भी वह दावेदारी मजबूत कर लेगा जबकि सुरक्षा परिशद् में भारत की दावेदारी पहले से ही मजबूत है। फिलहाल डोनाल्ड ट्रम्प के द्वारा जारी अधिसूचना ने एनएसजी सदस्यता को गौर जरूरी कर दिया है और भारत एक बड़ी कूटनीतिक कांटे को रास्ते से निकाल दिया है। 

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
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