Monday, August 6, 2018

ओबीसी आयोग संवैधानिक पर सक्षम कितना!

फलक पर सियासी सवाल तैर रहे हैं कि क्या मोदी सरकार ओबीसी आरक्षण में बदलाव लाना चाहती है यदि ऐसा है तो स्वागत होना चाहिए पर कार्य मनमाने तरीके से किया गया तो समस्या हल करने के बजाय बढ़ सकती है। फिलहाल ओबीसी आयोग को संवैधानिक दर्जा देने पर लोकसभा ने मुहर लगा दी है। हालांकि राज्यसभा में अभी पारित होना बाकी है मगर बिना किसी व्यवधान के यहां पारित होने की सम्भावना पूरी तरह दिख रही है। गौरतलब है बीते 2 अगस्त को राश्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग (एनसीबीसी) को संवैधानिक दर्जा देने सम्बंधी 123वें संविधान संषोधन विधेयक को मंजूरी मिल गयी है। खास संदर्भ यह भी है कि राज्यसभा में पिछली बार इस विधेयक को लेकर संषोधन पारित कराने वाली कांग्रेस ने लोकसभा में भी उस संषोधन को खारिज कर दिया है। देखा जाय तो ओबीसी आयोग को संवैधानिक दर्जा देने को लेकर राजनीति इन दिनों तेज है। भाजपा की ओर से बार-बार यह दोहराया जा रहा था कि कांग्रेस ओबीसी को अधिकार नहीं देना चाहती। इस सियासी खेल के बीच कांग्रेस भी अपना हाथ जलाना नहीं चाहती और उसे अपना रूख बदलना ही पड़ा। जाहिर है कि अब वह ऐसा कोई कदम नहीं उठायेगी जिसका राजनीतिक फायदा केवल भाजपा को मिले। वैसे आयोग को संवैधानिक दर्जा देने के मामले में भाजपा श्रेय ले सकती है। इतना ही नहीं साल 2019 के लोकसभा चुनाव में ओबीसी आयोग समेत एससी/एसटी एक्ट के मामले में भी भाजपा श्रेय लेने में कोई कोर-कसर षायद ही छोड़े। चुनावी माहौल में राजनीतिक रंग से रंगा ओबीसी आयोग महज पांच घण्टे की चर्चा के बाद पारित कर दिया गया। 1993 से ओबीसी के लिये आरक्षण लागू है पर आयोग को संवैधानिक दर्जा अब दिया जा रहा है। जाहिर है इससे एक सक्षम ओबीसी आयोग उभरेगा और आरक्षण से जुड़ी तमाम समस्याओं से निपटने में भी वह सक्षम होगा।  
भारत में पिछले कई दषकों का अनुभव तो यही कहता है कि यहां आरक्षण सरकार की बांहें मरोड़ कर लेने की कोषिष की जाती रही है। गुजरात का पाटीदार, राजस्थान के गुर्जर, हरियाणा का जाट आंदोलन और आन्ध्र प्रदेष के कापू समुदाय समेत महाराश्ट्र के मराठा आरक्षण आंदोलन इसके हाल-फिलहाल के उदाहरण हैं। संवैधानिक व्यवस्था कहती है कि कोई जाति अगर सामाजिक और षैक्षणिक रूप से पिछड़ी है और सरकारी नौकरियों में उसे आबादी से कम प्रतिनिधित्व हासिल है तो उसे आरक्षण मिलना चाहिए। जबकि समाज में उपलब्ध अवसरों को किसी वर्ग विषेश के लिये उपलब्ध कराना या अवसरों के लिये निर्धारित मापदण्डों में छूट देना ही आरक्षण कहलाता है। इसी को ध्यान में रखते हुए बीपी मण्डल कमीषन (1978) के माध्यम से 1990 में अन्य पिछड़े वर्ग को आरक्षण प्रदान किया गया जिसका उल्लेख संविधान के अनुच्छेद 16(4) के तहत देखा जा सकता है। गौरतलब है कि मण्डल कमीषन तत्कालीन प्रधानमंत्री विष्वनाथ प्रताप सिंह ने (1990) लागू किया था जबकि यह मूर्त रूप पीवी नरसिंहराव के प्रधानमंत्रित्व काल (1993) में लिया था। खास यह भी है कि वीपी सिंह सरकार को उन दिनों भाजपा का बाहर से समर्थन था। हालांकि मण्डल के बाद कमण्डल जिसे वयोवृद्ध नेता आडवाणी की रथ यात्रा के तौर पर पहचाना जाता है को जब बिहार के समस्तीपुर में तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद ने 23 अक्टूबर 1990 में रोका तब दिल्ली में वीपी सिंह सरकार गिर गयी थी और आरोप यह था कि भाजपा ने कमण्डल, मण्डल के विरोध में लाया था जाहिर है ओबीसी के हितैशी के तौर पर भाजपा को कभी नहीं देखा गया, अब वही ओबीसी आयोग को संवैधानिक दर्जा दे रही है।  
भारत में आरक्षण का इतिहास पुराना है। देखा जाय तो एससी/एसटी आरक्षण के साथ ही पिछड़े वर्गों के लिये सरकारी सेवाओं में आरक्षण की मांग उठने लगी थी पर सुलगता हुआ सवाल यह था कि पिछड़ेपन की पहचान कैसे हो? इसे देखते हुए 1953 में काका कालेकर की अध्यक्षता में प्रथम पिछड़ा वर्ग आयोग गठित किया गया पर इसकी सिफारिषों को लागू नहीं किया जा सका। पिछड़े वर्गों की पहचान के लिये 1978 में बिन्देष्वरी प्रसाद मण्डल की अध्यक्षता में संविधान के अनुच्छेद 340 के तहत दूसरा आयोग गठित किया गया जिसे आमतौर पर मण्डल कमीषन कहते हैं। इसी आयोग की सिफारिष पर मौजूदा समय में अन्य पिछड़ा वर्ग को 27 फीसदी आरक्षण मिला हुआ है। गौरतलब है कि 27 फीसदी तय आरक्षण को 1963 में बालाजी बनाम मैसूर राज्य के वाद में सर्वोच्च न्यायालय द्व़ारा आरक्षण के उच्चत्तम सीमा 50 फीसदी किये जाने के मद्देनजर किया गया जैसा कि 23 फीसदी आरक्षण पहले से अनुसूचित एवं अनुसूचित जनजाति के लिये निर्धारित है जाहिर है 27 प्रतिषत मिलाने पर यह आंकड़ा पूरा हो जाता है। जबकि आंकड़ों को देखें तो देष में 54 फीसदी से अधिक पिछड़ी जाति के लोग हैं।
फिलहाल एक अध्यक्ष, उपाध्यक्ष और तीन सदस्य वाले ओबीसी आयोग को अपनी स्वयं की प्रक्रिया तय करने का अधिकार होगा साथ ही संविधान के अधीन सामाजिक और षैक्षणिक दृश्टि से पिछड़ों के लिये सुरक्षा उपाय से सम्बंधित मामलों की जांच और निगरानी का भी अधिकार होना हर लिहाज़ से सही रहेगा। संवैधानिक दर्जा मिलने के चलते संविधान के अनुच्छेद 342(क) जोड़कर आयोग को सिविल कोर्ट जैसे अधिकार भी मिलेंगे जिसका एक बड़ा फायदा षिकायतों के निपटारे में देखा जा सकेगा। इतना ही नहीं आयोग को सजा देने का भी अधिकार होना कई विसंगतियों एवं खामियों से निपटना आसान रहेगा। जो सरकार की बांहें मरोड़कर आरक्षण चाहते हैं उनके लिये भी यह आयोग मनमानी करने पर सबक सिखा सकेगा पर सवाल यह भी उठता है कि विभिन्न जातीय समूह में जिस तरह भारत बंटा है क्या उसे लेकर आयोग आसानी से सब कुछ हल कर लेगा। बीते 70 सालों का इतिहास यह बताता है कि भारत जटिल जातिगत समस्याओं में उलझा देष रहा है। यहां आरक्षण लेने की परम्परा पीढ़ी दर पीढ़ी रही है। आरक्षण के लिये वर्ग विषेश का आंदोलन दूसरे वर्ग के लिये आरक्षण मांगने का रास्ता रहा है। 50 प्रतिषत आरक्षण की तय सीमा का भी उल्लंघन होने का डर सताता रहता है। कई राज्यों में आरक्षण 80 फीसदी तक है। चुनावी दिनों में राजनीतिक पार्टियां अपनी सियासत साधने के लिये आरक्षण देने की घोशणा से बाज नहीं आती। इतना ही नहीं आरक्षण के चलते जातीय संघर्श इतना बढ़ा हआ है कि समाज से समरसता व भाईचारा भी मानो नदारद हो। जिस मूल उद्देष्य से आरक्षण लाया गया निःसंदेह वह पूरा नहीं हुआ है। हालांकि इसे सिरे से खारिज न हीं किया जा सकता लेकिन आरक्षण की आग से देष दषकों से तप रहा है। मण्डल कमीषन लागू होने के दिनों में तो पूरा देष ही वर्ग में बंटा था और धूं-धूं कर जल रहा था। कमोबेष क्षेत्र विषेश में आज भी कुछ जातियां अन्य पिछड़े वर्ग में षामिल होने के लिये हिंसा का सहारा ले रही हैं। इसके अलावा भी कई ऐसे कारण हैं जहां आरक्षण में सुधार हेतु बड़े कदम उठाने हैं षायद यही समय भी है। ओबीसी आयोग को संवैधानिक दर्जा मिलने से सम्भव है कि प्रचुर मात्रा में उपरोक्त समस्याएं हल प्राप्त करेंगी मगर जब तक यह जमीन पर कुछ करते हुए नहीं दिखती बहुत कुछ अंदाजा लगाना सही नहीं होगा। मोदी सरकार भी इस मामले में हाथ जलाना नहीं चाहती है मगर दोनों हाथों से वोट बंटोरना चाहेगी। आरक्षण की समीक्षा होनी चाहिए जिसे लेकर सियासत तो गरम होती है परन्तु मामला तूल पकड़ कर वहीं का वहीं रह जाता है। बल्कि आगामी चुनाव को देखते हुए मोदी सरकार ने ओबीसी आयोग के संवैधानिक बनाने के मामले में एक तीर से कई निषाना लगाया है। जिसमें आगे की राजनीति साधने में ओबीसी वोट बैंक भाजपा के हिस्से में आ सकते हैं। यह सबसे बड़ा फायदा है पर सवाल है कि ओबीसी आयोग के संवैधानिक दर्जे से क्या और कितना बड़ा बदलाव आयेगा। 



सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

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