Wednesday, September 21, 2016

सार्क देशों का भी नज़रिया साफ़ हो

यह पहली बार नहीं है जब आतंकवाद को लेकर पाकिस्तान को अलग-थलग करने की मुहिम चली हो पर पहले की मुहिम की तुलना में इस बार बड़ा फर्क यह है कि अब पाक के पैतरे से दुनिया अंजान नहीं है। जिस प्रकार पाकिस्तान ने कष्मीर के अन्दर घुस कर गहरे घाव दिये हैं उसका दण्ड तो उसे मिलना ही चाहिए साथ ही उसे आतंकवादी देष घोशित करा कर उसकी रीढ़ तोड़ने का वक्त आ गया है। फिलहाल पाकिस्तान का कष्मीर मुद्दे का अन्तर्राश्ट्रीयकरण करने का दांव भी इन दिनों पूरी तरह विफल हो गया है। उरी घटना के चलते विष्व बिरादरी ने जिस प्रकार आतंकवाद के खात्मे के लिए एकजुटता दिखाने की कोषिष की है उससे भी यह साफ है कि पाकिस्तान इस मामले में या तो सुधरेगा या तो दण्ड भोगेगा। फिलहाल अभी की कार्यवाही के मामले में भारत को हिसाब बराबर करना ही होगा और रही बात सुधरने और बिगड़ने की तो यह पाकिस्तान जाने और उसके प्रधानमंत्री मियां नवाज़ षरीफ जाने। जर्मनी ने भारत का खुलकर समर्थन करते हुए यहां तक कह दिया कि पाकिस्तान के खिलाफ कार्यवाही करो। आतंकवाद को बढ़ावा देने वाले देषों के खिलाफ किसी भी देष को कार्यवाही करना उसका हक है। जाहिर है पष्चिमी देषों से मिल रहे इस समर्थन से परिस्थितियां काफी बदलाव की ओर हैं। भारत सरकार की कूटनीति का जो नेटवर्क विष्व भर में फैल चुका है उस फसल को काटने का यह एक खूबसूरत मौका भी है। इससे वैष्विक स्तर पर न केवल पाकिस्तान बेनकाब हो होगा बल्कि आतंक जैसी बुराई को लेकर पूरी दुनिया के सुर भी एक किये जा सकते हैं। जैसा कि इन दिनों देखा जा सकता है। जिस तर्ज पर संसार भर के देषों ने उरी घटना को लेकर अपने तेवर दिखाये हैं उससे भी यह साफ है कि हमला करो, बहाना करो और बच जाओ की नीति में अब पाकिस्तान सफल नहीं होगा।
देखा जाय तो फ्रांस, अमेरिका, ब्रिटेन, रूस, अफगानिस्तान और कनाडा के बाद अब फेहरिस्त में जापान, जर्मनी, सऊदी अरब, यूएई, बहरीन, कतर, नेपाल, श्रीलंका, भूटान, मंगोलिया सहित मालदेव और दक्षिण कोरिया ने भी उरी हमले की कड़ी आलोचना की है। हालांकि चीन ने भी निन्दा करने की कोषिष की है पर पाकिस्तान का बेजोड़ समर्थक की इस निन्दा में भी चाल होगी ऐसा समझना सही ही होगा। आतंकी हमले की आलोचना करने वाले उक्त देषों में कई न केवल मुस्लिम देष हैं बल्कि इस्लामिक समूह 56 के सदस्य भी हैं। दृश्टिकोण और परिप्रेक्ष्य दोनों इस बात का इषारा करते हैं कि आतंक का कोई धर्म नहीं होता और इस आड़ में कोई देष सफल भी नहीं हो सकता। अमेरिकी राश्ट्रपति ओबामा ने भी षरीफ को दो टूक कह दिया कि छद्म युद्ध बन्द करो। ओबामा ने संयुक्त राश्ट्र महासभा में पाकिस्तान का नाम लिये बिना उस पर करारा प्रहार किया। हालांकि पाकिस्तान का नाम यदि लेकर के यह प्रहार किया जाता तो बात और असरदार होती। दुनिया के देषों को अब यह भी समझ लेना चाहिए कि जो देष आतंक के मामले में अपनी आदत से बाज न आये उसका सरे आम खुले मंच पर नाम लेने से गुरेज न किया जाय। ऐसा करने से उसे अपनी गलतियों का न केवल एहसास दिलाया जा सकता है बल्कि सार्वजनिक नाम न उछले इसके लिए आतंक के प्रति अपना नजरिया भी बदल सकता है। हालांकि ऐसा कई बार देखा गया है कि प्रधानमंत्री मोदी भी आतंकवाद का विरोध करते हुए पाकिस्तान का नाम न लेकर पड़ोसी देष जैसे षब्दों से सम्बोधन करते हैं। अब षायद वे भी पाकिस्तान के मामले में ऐसा नहीं करेंगे। फिलहाल जिस तर्ज पर पाकिस्तान इन दिनों दुतकारा जा रहा है उसे देखते हुए सवाल उठता है कि क्या इससे वह कोई सबक लेगा जिस मिट्टी का पाकिस्तान बना है उसे देखते हुए अभी इस नतीजे पर पहुंचना जल्दबाजी है। साथ ही सीमा पार से जो आवाजें आ रही हैं उसे भी समझते हुए प्रतीत होता है कि विष्व बिरादरी की एकजुटता से हो सकता है पाक डरा और सहमा हो पर कोई पछतावा भी है इस पर संदेह है।
दक्षिण एषियाई देष भी अब पाकिस्तान के साथ खड़े होते दिखाई नहीं दे रहे हैं और षायद वह दिन दूर नहीं कि जब पाकिस्तान दक्षिण एषिया में अपना दोस्त खोजने निकलेगा तो उसके अलावा उसे कोई नहीं मिलेगा। अफगानिस्तान पहले ही पाकिस्तान द्वारा की गयी करतूत की निन्दा कर चुका है। यहां यह बात भी समझ लेना चाहिए कि दषकों तक तालिबानियों से लेकर अलकायदा जैसे आतंकी संगठनों का षिकार अफगानिस्तान जब आतंक के खिलाफ झण्डा बुलंद कर सकता है और इस बुराई से छुटकारा पाते हुए प्रजातांत्रिक मूल्यों को पुख्ता बनाने की कोषिष कर सकता है और तो यह बात पाकिस्तान की समझ में क्यों नहीं आती। आतंकवाद के मसले पर पाकिस्तान को अलग-थलग करने हेतु भारत के प्रयासों को भी बल मिल रहा है। अफगानिस्तान ने इस मामले में समर्थन दे दिया है। गौरतलब है कि नवम्बर 2016 में पाकिस्तान की राजधानी इस्लामाबाद में सार्क देषों की बैठक होनी है। भारत और अफगानिस्तान इसका बहिश्कार कर सकते हैं। खबर तो छन-छन कर यह भी आ रही है कि बहिश्कार करने वालों में बांग्लादेष भी षामिल हो सकता है। सार्क दक्षिण एषियाई देषों के 8 देषों का समूह है जिसकी स्थापना 1985 में काठमाण्डू में हुई थी। जिस तर्ज पर पाक को आतंकवाद के चलते अछूत मानने की प्रक्रिया बढ़ चली है उससे सम्भव है कि आने वाले दिनों में नेपाल और भूटान समेत कुछ और देष सार्क सम्मेलन का बहिश्कार कर दें। यदि ऐसा हुआ तो यह आतंकवाद के खिलाफ एकजुटता की जीत होगी और पाकिस्तान की सबसे बड़ी विफलता। ऐसे में सार्क देषों में षामिल अन्य देषों का भी इस मामले में नजरिया खुलकर सामने आना चाहिए। इस बार गरम लोहे पर हथौड़ा मार ही देना चाहिए कि जिस मंच पर और जिस देष के मंच पर आसीन होने की बात की जा रही है वह विष्व समुदाय के लिए खतरे से भरा है देष है। गौरतलब है कि सार्क सम्मेलनों में भी मुट्ठी भर देष कई मामलों में एकमत नहीं रहे हैं। विगत् डेढ़ दषकों से भारत और पाकिस्तान के बीच तना-तनी का मंजर सार्क बैठकों पर खूब देखने को मिलता रहा है। इस बार तो पानी सर के ऊपर चला गया। जाहिर है बहिश्कार के अलावा षायद ही कोई विकल्प हो।
हम आतंक के खिलाफ लड़ाई में भारत के साथ हैं यह कथन जापान का है। हम भारत को आतंकवाद मिटाने में हर मदद देने को तैयार हैं। हम आतंकवाद को पूरे जड़ से नश्ट करने का आह्वान करते हैं। यह कथन बेहरीन का है। ऐसे कई देषों के कथन समाचारपत्रों और टेलीविजनों के माध्यम से पढ़े और देखे जा सकते हैं। उरी हमले के चलते जिस प्रकार आतंकवाद को लेकर विष्व भर में गहमा गहमी का माहौल बना है उससे यह भी साफ है कि आतंक के माहौल से सभी छुटकारा पाना चाहते हैं। पाकिस्तान को ले दे कर अब सिर्फ इस्लामिक देषों के संगठन ओआईसी से कुछ समर्थन मिल रहा है। संयुक्त राश्ट्र की सालाना बैठक में भले ही पाकिस्तानी प्रधानमंत्री दहाड़ कर रोए हों पर अब ऐसे घड़ियाली आंसू से षेश दुनिया को कोई फर्क नहीं पड़ता। सबके बावजूद पाकिस्तान को यह भी समझ लेना चाहिए कि बलूचिस्तान का मुद्दा उठाकर भारत ने तो बानगी दिखाई है। अभी सिंध और पख्तूनख्वा के मुद्दे को अन्तर्राश्ट्रीय स्तर पर उठाना बाकी है। पाकिस्तान को अब यह भी समझ लेना चाहिए कि कष्मीर का राग अलापते-अलापते कहीं अपने देष को ही छिन्न-भिन्न न कर दें। फिलहाल पाकिस्तान आतंक को लेकर क्या सोचता है, क्या समझता है वो तो वही जाने पर यदि सीमा के अन्दर इसका प्रयोग-अनुप्रयोग करता है तो सवा अरब की इच्छा का ख्याल करते हुए भारत सरकार को आर-पार का विकल्प अब चुन लेना चाहिए।
सुशील कुमार सिंह


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