Wednesday, September 14, 2016

देश किस सिद्धांत पर चले

उदारीकरण, निजीकरण और वैष्विकरण के ढ़ाई दषक का दौर बीतने के बाद अब एक बार फिर इस बात की पड़ताल करने की जरूरत है कि देष किस सिद्धान्त पर चले। दो टूक यह भी है कि प्रषासन आरंभ से ही वैष्विक वातावरण से प्रभावित होता रहा और लोकतंत्र में जन उत्थान की भावना सरकारों की प्राथमिकता रही है पर सफल कितनी हुई यह भी पड़ताल का ही विशय है। आज 21वीं सदी में यह मत मान्य है कि सुषासन कोई पष्चिमी अवधारणा नहीं है क्योंकि जो नकारात्मक तथ्य थे वे विष्व बैंक द्वारा हटा दिये गये। जाहिर है अब यह एक वैष्विक अवधारणा है जिसमें लोक प्रवर्धित विचारधारा का समावेषन है। जिस गति से देष में विकास की मांग है उसे देखते हुए हमारे प्रषासनिक सिद्धान्त भी बदलाव की मांग कर रहे हैं। डिजीटल इण्डिया समेत कई नूतन कार्यक्रमों में यदि गति बरकरार नहीं रही तो विरोधी पानी पी-पीकर सरकार की आलोचना करेंगे।
उदारीकरण के 25 वर्श बीत चुके हैं और देष ने बहुत कुछ हासिल भी किया है। वैष्विक ध्रुवीकरण की दिषा में भी इसके कदम अब कमजोर नहीं हैं। अमेरिका जैसे देषों से अब समकक्षता के साथ बातचीत होती है। मंगल ग्रह तक भारत की पहुंच हो चुकी है। बस जरूरत है तो जमीन पर बिखरी व्यवस्था को सुदृढ़ करने की। मोदी विगत् ढ़ाई वर्शों में करीब 60 देषों का दौरा कर चुके हैं। मेक इन इण्डिया और उसमें होने वाले निवेष को लेकर षेश विष्व को अवगत कराने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी है। कह सकते हैं कि कृशि प्रधान भारत अब धीरे-धीरे विष्व के तमाम देषों को अपनी ओर आकर्शित करने में काफी कूबत झोंक चुका है। दुनिया के तमाम महाद्वीप में बसे देष भारत की ओर भी काफी समझदारी भरी दृश्टि डाली है। जाहिर है अब देष चलाने के सिद्धान्त में भी पुराने नियम षायद उतने काम नहीं आयेंगे। 
दक्षिण अफ्रीका का एक सिद्धान्त लोकस-फोकस है जिसमें इस बात की गुंजाइष रहती है कि निहित उद्देष्य और स्थान पर उपजाऊ बल खर्च किया जाय। ध्यानतव्य हो कि 1960 के दषक में अमेरिकी समाज उथल-पुथल से भरा था। वियतनाम युद्ध, औद्योगिकरण, तीव्र नगरीकरण आदि प्रषासन के सामने नई चुनौतियां खड़ी की थीं जिससे उस दौर का प्रषासन निपटने में नाकाम रहा। तब प्रषासन के सिद्धान्त एवं व्यवहार की समीक्षा मिन्नोब्रुक सम्मेलन के तहत की गई। तभी से नूतन प्रविधियों का जन्म हुआ। 60 के दषक से 90 तक के बीच भारत भी इस मांग की ओर जा चुका था कि यहां भी नई प्रवृत्ति स्थान घेरे जिसका नतीजा उदारीकरण था पर अब इस पर भी ढ़ाई दषक खर्च हो चुके हैं। जाहिर है इसमें भी नयापन भरने की जरूरत है। 
सुधारात्मक प्रयासों के तहत बाजार और निजी क्षेत्र की भूमिका अब तीव्र स्थान ले रही है जबकि सरकार संरक्षक की भूमिका में है। सुषासन और सुराज को लेकर नये-नये पैमाने गढ़ने की कोषिष भी की जा रही है। यही कारण है कि प्रषासनिक, राजनीतिक प्रणाली में व्यापक सुधार की आवष्यकता पड़ी है। नीति आयोग इसी का परिणाम है। इतना ही नहीं सरकार को अधिक जनमित्र और संवेदनषील बनने की भी आवष्यकता है। नागरिक, प्रषासन और सरकार के अन्तरसम्बन्ध पहले से प्रगाढ़ हुए हैं और यह वर्तमान दौर की जरूरत भी है। प्रधानमंत्री मोदी जिस तर्ज पर जनता से संवाद करना चाहते हैं उसमें पुराने सिद्धान्त प्रचुर मात्रा में षायद ही काम कर पायें। ऐसे में नियमों को भी खुली हवा में सांस लेने का अवसर देना होगा जिसे कर पाने में मोदी सक्षम दिखाई देते हैं। राजनीतिक उत्तरदायित्व और नौकरषाही की जवाबदेहिता साथ ही सूचना और संचेतना के इस दौर में मानव अधिकारों को लेकर चिंतायें बढ़ी हैं। ऐसे में सरकार और प्रषासन को ऐसी सेवा से सम्बन्धित होना है जो दक्ष हो, न्यायिक हो और विष्वसनीय भी हो ताकि उसे बदले दौर के हिसाब से कहीं अधिक न्यायोचित करार दिया जा सके। यह व्यवस्था पहले चाहे जैसी रही हो पर अब इस सिद्धान्त को अपनाये बगैर वैष्विक फलक पर उठान लेना मुष्किल होगा।



सुशील कुमार सिंह

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