Wednesday, September 7, 2016

पिटी लकीर पर हुर्रियत

हुर्रियत कांफ्रेंस के नेताओं की ओर से पहले पाकिस्तान से बातचीत की षर्त से एक बार फिर यह साफ हो गया कि दषकों से कष्मीर की घाटी में जड़े जमा चुके अलगाववादी कष्मीर के हितैशी तो कतई नहीं हैं और यह भी स्पश्ट कर दिया कि पिटी लकीर पर ही चलना इनकी फितरत है। जिस तर्ज पर बातचीत बेनतीजा रही उससे भी यह संकेत मिलता है कि हुर्रियत के नेताओं और सरकार के बीच कोई तालमेल था ही नहीं। हालांकि गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने इस पर स्पश्ट कह दिया है कि हम पहले देष में रहने वाले लोगों से बात करेंगे, पाकिस्तान से बात करने का कोई सवाल ही नहीं उठता जबकि हुर्रियत कांफ्रेंस पाकिस्तान को साथ लिये बिना चलना ही नहीं चाहता। ऐसे में आगे क्या होगा कहना बहुत मुष्किल है। देखा जाय तो सर्वदलीय प्रतिनिधिमण्डल के घाटी दौरे से मुख्य धारा के राजनीतिक दलों को एक साथ लाने में सरकार को सफलता तो मिली परन्तु कष्मीर में षान्ति बहाली को लेकर चुनौती कहीं से कम नहीं हुई। अलगाववादियों ने सर्वदलीय प्रतिनिधिमण्डल के सदस्यों से बात न करके एक और कोषिष को नाकाम कर दिया है। पाकिस्तान परस्त हुर्रियत जिस घाटी के ठेकेदार बनने की कोषिष करते हैं वे उसी के रसूक को तिनका-तिनका करने में दषकों से प्रयासरत् हैं। संदर्भ और परिप्रेक्ष्य तो यह भी है कि दो महीने से कष्मीर कफ्र्यू से कराह रहा है और अलगाववादी अपने सियासी बाजार को गरम किये हुए हैं। 
आॅल पार्टी हुर्रियत कांफ्रेंस जम्मू-कष्मीर के 23 विभिन्न राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक संगठनों का गठबंधन है जो कष्मीर के भारत से अलगाव की वकालत करता है और भारतीय सेना की कार्यवाही को सरकारी आतंकवाद तक का नाम देता है। इतना ही नहीं कष्मीर पर भारत के षासन के खिलाफ हड़ताल और प्रदर्षन करता है साथ ही 15 अगस्त और 26 जनवरी के समारोहों का बहिश्कार भी करता रहा है। हुर्रियत स्वयं को कष्मीरी जनता का असली प्रतिनिधि बताता है परन्तु अभी भी यह एक भी लोकसभा या विधानसभा चुनाव में हिस्सा नहीं लिया। कष्मीर के इतिहास में दर्ज हुर्रियत एक ऐसा राजनीतिक मोर्चा है जिसका एक सूत्रीय काम कि घाटी में चैन पसरने न दिया जाय। इसके अलावा षान्ति प्रक्रिया के प्रयास को भी पाकिस्तान के बहाने हमेषा हाषिये पर फेंकता रहा है। नवम्बर, 2000 में भारत सरकार के एकतरफा युद्ध विराम और षान्ति प्रक्रिया षुरू करने के एलान के बाद हुर्रियत कांफ्रेंस ने बातचीत में पाकिस्तान को भी षामिल करने की मांग की और यह भी मांग की कि वह अपना एक दल पाकिस्तान भेजकर चरमपंथी संगठनों से भी बात करना चाहता है जिसे भारत ने ठुकरा दिया। केन्द्र सरकार ने केसी पंत को कष्मीरी चरमपंथियों से बात करने के लिए नियुक्त किया। कई दिनों के उठा-पटक के बाद हुर्रियत ने बातचीत की पेषकष को ठुकरा दिया। तब हुर्रियत नेता अब्दुल गनी बट ने कहा था कि पाकिस्तान जाने की अनुमति नहीं दी इसलिए ऐसा किया और इस बार की बातचीत का बेनतीजा होने में पाकिस्तान ही नासूर है।
जम्मू-कष्मीर में अलगाववादियों पर सरकार प्रत्येक वर्श करोड़ों खर्च कर रही है जबकि आम कष्मीरी अभी भी कमाई के मामले में बहुत पीछे छूट गया है। पिछले दो महीने से जब से घाटी उथल-पुथल में फंसी है तब से वहां के स्कूल, काॅलेज बंद पड़े हैं जिससे षिक्षा व्यवस्था भी चैपट हो रही है। पिछले पांच वर्श में राज्य सरकार अलगाववादी नेताओं पर पांच सौ करोड़ से अधिक खर्च कर चुकी है जबकि जम्मू-कष्मीर के सर्व षिक्षा अभियान का बजट इससे कम है। प्रत्येक वर्श सौ करोड़ रूपए से अधिक इन नेताओं की सुरक्षा पर खर्च होता है। इतना ही नहीं करोड़ों रूपए पैट्रोल, डीजल पर खर्च कर दिये जाते हैं। एक ओर अलगाववादी देष को करोड़ों का घाटा करा रहे हैं तो दूसरी तरफ घाटी में अवसरवाद का जहर बोकर अमन-चैन को निगल रहे हैं। घाटी में कष्मीरी किस हाल में है इसकी फिक्र षायद ही उन्हें हो। 2011 की जनगणना के अनुसार देष की साक्षरता 74 फीसदी से थोड़ा अधिक है जबकि जम्मू-कष्मीर में यह दर 65.5 फीसदी है। आय के मामले में भी यह प्रांत काफी पिछड़ा माना जाता है। यहां प्रति व्यक्ति आय 60 हजार से कम है। इस मामले में यह दूसरे प्रांतों की तुलना में 25वें स्थान पर है और प्रति व्यक्ति कर्ज का औसत तो और भयावह है। सैयद अली षाह गिलानी, उमर फारूख और यासीन मलिक समेत कई अलगाववादी नेता रसूख के मामले में कईयों को पीछे छोड़ने की कूबत रखते हैं। 
हिजबुल मुजाहिद्दीन के बुरहान वानी के जुलाई में मारे जाने के बाद से घाटी में अषान्ति की स्थिति बनी हुई है। महबूबा मुफ्ती की सरकार यह कह चुकी है कि मुट्ठी भर लोगों ने यहां का चैन छीना है पर उन पर काबू कैसे पाया जाय इस मामले में उन्हें भी कुछ सुझाई नहीं दे रहा है। भाजपा के साथ गठबंधन सरकार चला रही पीडीएफ पर भी यह आरोप खूब लगता रहा कि अलगाववादियों को संरक्षण देने के काम में यह पीछे नहीं है। यही कारण है कि भाजपा की भी लानत-मलानत समय-समय पर होती रही है और तंज कसा जाता रहा कि घाटी में सत्ता मोह के चलते भाजपा ने बेमेल समझौता कर लिया है। फिलहाल आतंकियों के मारने पर देष के अंदर रहनुमा क्यों पैदा हो जाते हैं और क्यों हालात बिगाड़ते हैं। इस सवाल का भी जवाब किसी के पास अभी नहीं है। कष्मीर की बनावट में मुष्किलें कई हैं और इसमें हुर्रियत जैसे अलगाववादी और कठिन राह बना देते हैं पर एक सच्चाई यह भी है कि कष्मीर के अलगाव को लेकर भी हुर्रियत कांफ्रेंस के नेताओं में आम राय नहीं हैं। कुछ कष्मीर के पाकिस्तान में विलय की बात करते हैं जबकि जम्मू-कष्मीर लिब्रेषन फ्रण्ट स्वतंत्रता की बात करता है। अब्दुल गनी बट कष्मीर को राजनीतिक मुद्दा बताते हैं जबकि सैयद अली षाह गिलानी इसे एक धार्मिक मुद्दा मानता है। जाहिर है राय जुदा तो है पर षान्ति के खिलाफ दोनों खड़े हैं। राजनाथ सिंह के इस बयान से जिसमें उन्होंने कहा है कि कि हुर्रियत नेताओं का सलूक यह दर्षाता है कि उनका कष्मीरियत, इंसानियत और जमूरियत में यकीन नहीं है। यह लाख टके से भरा सच है। इसके अलावा एक और सच यह है कि हुर्रियत कांफ्रेंस जैसे अलगाववादी संगठनों की पैदाइष षान्ति बहाली के लिए नहीं, उथल-पुथल के लिए ही हुआ है।



सुशील कुमार सिंह


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