Saturday, September 17, 2016

भारत-नेपाल सम्बन्ध बकाया न रहे.

दरकते कूटनीति के बीच प्रचण्ड के भारत में होने से सही होने के तर्क को न केवल भारत बल्कि सही होना ही चाहिए के तर्क से युक्त नेपाल खुरदुरे हो चुके सम्बंध को बेहतर और पुख्ता कर सकते हैं। सम्बंधों में टकराव या कहें कि घटाव की अपनी एक परिस्थिति रही है पर अब उसे पटरी पर लाना दोनों की जिम्मेदारी है। यहां स्पश्ट कर दें कि दुर्भाग्य से नेपाल की पिछली केपी षर्मा ओली की सरकार के समय भारत के साथ अनावष्यक कटुता बढ़ गयी। पिछले वर्श नेपाल के संविधान के विरूद्ध तराई में रहने वाले मधेसियों ने जो नाकेबंदी की थी उससे भारत की ओर से आवष्यक वस्तुओं की आपूर्ति बाधित हुई थी जिसके चलते नेपाल को बड़े संकट का सामना भी करना पड़ा था पर इसमें भारत का कोई दोश नहीं था। बावजूद इसके तत्कालीन नेपाली प्रधानमंत्री ने भारत पर दोश मढ़ने से बाज नहीं आये। प्रधानमंत्री मोदी की 2014 की नेपाल यात्रा और अप्रैल 2015 में नेपाल में आये भूकम्प से जो भीशण तबाही हुई थी और भारत ने जिस तर्ज पर राहत और बचाव को लेकर तत्परता तथा सक्रियता दिखाई थी बेषक इससे सम्बंध एक नई ऊँचाई पर पहुंच गये थे। उस दौरान सुषील कोइराला के हाथों में नेपाल की बागडोर थी। कूटनीति में यह प्रचलित है कि अभी की राय षुमारी हमेषा के लिए कायम नहीं रहती। ठीक यही भारत-नेपाल रिष्तों पर भी लागू होती है। दोनों देषों के सम्बंधों में टकराव की स्थिति या यूं कहें कि भटकाव की स्थिति नवम्बर, 2015 में तब पहुंचा जब नेपाली संविधान के लागू होने को लेकर मधेसी सड़क पर आ गये। हालांकि यह नेपाल का अंदरूनी मामला था लेकिन तराई में बसे भारतीय मूल के नेपाली जब संविधान में पौने तीन करोड़ के नेपाल में सवा करोड़ की आबादी होने के बावजूद हाषिये पर फेंक दिये गये तो इसकी तिलमिलाहट भारत को होना स्वाभाविक थी फिर भी भारत ने नपे-तुले अंदाज में बात कहते हुए पूरा संयम दिखाया। मधेसियों का आंदोलन अहिंसक नहीं रहा और यह इतना तूल पकड़ा कि संतुलन की चाह रखने वाले भारत पर सारे आरोप नेपाल ने बिना किसी सोच-समझ के मढ़ दिये।
अब नेपाल की स्थिति बदल गयी है, वहां के प्रधानमंत्री बदल गये हैं। दूसरी बार प्रधानमंत्री बने पुश्प कमल दहल उर्फ प्रचण्ड इन दिनों भारत प्रवास पर है। चार दिवसीय इस कार्यक्रम में काफी कुछ किया जाना है। उम्मीद दोनों तरफ से है ऐसे में आषा है कि अब तक के हुए कूटनीतिक डैमेज को मैनेज कर लिया जायेगा। दुनिया भर में कूटनीति में अव्वल होने का डंका बजा चुके प्रधानमंत्री मोदी भी नेपाल से सम्बंध को पटरी पर लाने का कोई अवसर फिलहाल नहीं छोड़ना चाहेंगे। खास यह भी है जब आज से आठ वर्श पहले प्रचण्ड पहली बार नेपाल के प्रधानमंत्री बने थे तब उन्होंने भारत आने की परम्परा को तोड़ते हुए पहली यात्रा के तौर पर चीन को चुना था। जाहिर है कि भारत के साथ कूटनीतिक संतुलन बनाने की फिराक में उन्होंने यह कदम उठाया था। तब से अब में बहुत कुछ बदल गया है। हिंसक माओवादी विद्रोह का नेतृत्व करने वाले प्रचण्ड  इस पूरे दौरान में व्यवहारिक समझ से भी ओत-प्रोत हो चुके हैं। केपी ओली के समय में बढ़ी दूरियों को प्रचण्ड अपने इस व्यवहारिक समझ के तहत समाधान की ओर ले जा सकते हैं बषर्ते उस हठ को छोड़ना होगा जिसके चलते मधेसी नेपाली होते हुए भी भेदभाव के षिकार हो रहे हैं। हालांकि इस समय भारत और नेपाल के सम्बंध धीरे-धीरे स्वयं सामान्य की ओर जा रहे हैं। भारत आने से पहले ऐसे बयान भी नेपाल की ओर से आये हैं कि दोनों देषों के बीच विष्वास बढ़ता है। यह भी कहा गया कि प्रधानमंत्री मोदी पहले ऐसे प्रधानमंत्री हैं जिन्होंने नेपाल आकर हम सबको प्रेरित किया। गौर करने वाली बात यह भी है कि चीन के बारे में यह भी बात कही गयी कि वह विचारधारा पर नहीं चलता बल्कि उसका मुख्य लक्ष्य अपने राश्ट्रीय हितों की पूर्ति और मात्र मुनाफा है। उक्त बयानों के दायरे में प्रचण्ड को देखा जाय तो नये प्रधानमंत्री प्रचण्ड पुराने प्रचण्ड से काफी दूर हैं। 
चार दिवसीय यात्रा पर पहुंचे प्रचण्ड नेपाल के नये युग के प्रारम्भकत्र्ता भी सिद्ध हो सकते हैं। भारत और नेपाल संविधान विवाद से ऊपर उठकर सम्बंधों की नई गाथा लिख सकते हैं। प्रधानमंत्री से द्विपक्षीय वार्ता में जो सकारात्मकता का पुट निहित है उसे परवान चढ़ा सकते हैं। इस दौरान दोनों देषों के बीच 6800 मेगाहट्र्ज की तीन विद्युत परियोजनाओं के निर्माण पर समझौता होना है। इसके अलावा भारत-नेपाल के समक्ष सीमावर्ती एवं तराई के इलाके में 1800 किलामीटर लम्बी रेल लाइन बिछाने का भी प्रस्ताव रखेगा। भले ही नेपाल एक विदेषी मुल्क रहा हो पर भारत ने कभी भी नेपाल को लेकर स्वयं के अन्दर कोई दोश नहीं पनपने दिया बल्कि जितना हो सका समय-समय पर उसकी मदद के लिए तैयार रहा। नेपाली प्रधानमंत्री प्रचण्ड ने भी कहा है कि सभी को विष्वास में लेने के बाद ही संविधान में संषोधन होगा। जब तक थारूओं और मधेसियों को विष्वास में नहीं ले लिया जाता तब तक नये संविधान को लागू करने के लिए माहौल नहीं बनाया जा सकता। प्रचण्ड का यह तौर-तरीका इस ओर इषारा करता है कि नेपाली संविधान के मामले में वे भी बिना मधेसियों को संतुश्ट किये कोई जोखिम नहीं लेना चाहते। बीते 3 अगस्त को नेपाल की दूसरी बार बागडोर संभालने वाले नेपाली प्रधानमंत्री ने यह भी कहा कि नई व्यवस्था का षीर्श फोकस संविधान लागू होने से पहले सही माहौल बनाना है और जरूरी संषोधनों के लिए पथ भी चिकना करना है। जिस तर्ज पर प्रचण्ड अपना विचार सकारात्मक करने की कोषिष कर रहे हैं उससे भी यह साफ है कि लगभग एक बरस से दोनों देष के बीच बढ़ी कटुता को अब वे आगे नहीं बढ़ाना चाहते। नेपाल जानता है कि भले ही किसी भी परिस्थिति में सारी दुनिया उससे किनारा कर ले पर भारत है कि उसका हर हाल में साथ जरूर देगा। 
नेपाल अपना 60 फीसदी आयात भारत के जरिये पूरा करता है। इन्फ्रास्ट्रक्चर की हालत दयनीय होने के साथ ही दुर्गम भौगोलिक परिस्थितियां भी नेपाल को भारत की ओर बेहतर सम्बंध के लिए उकसाती रही हैं। हालांकि नेपाल इसके पहले चीनी कार्ड खेलकर भारत को झटका देने का काम भी कर चुका है। बीजिंग ने पेट्रोलियम पदार्थों और दूसरी जरूरी वस्तुओं की आपूर्ति भी नेपाल में पहले की है। यहां बता दें कि कुछ भी हो चीन नेपाल की सभी जरूरतें कभी पूरा नहीं कर सकता जबकि भारत के बगैर नेपाल की जरूरत पूरी ही नहीं हो सकती पर बदलते हालात को देखते हुए चीन ने अपने हावभाव को बदलकर नेपाल को अपने पाले में थोड़े समय के लिए कर लिया था। भारत-नेपाल के रिष्तों में प्रचण्ड का यह दौरा कई मामलों में बेहतर हो सकता है। इनके आने से पहले भारत आये नेपाल के विदेष मंत्री और उप-प्रधानमंत्री ने संविधान विवाद के निपटारे हेतु भारत के पक्ष पर गम्भीरता से विचार करने का संदेष दे चुके हैं। दोनों देष को चाहिए कि तल्खी खत्म करने के लिए नई रणनीति पर काम करें। दोनों देषों का हित एक-दूसरे से जुड़ा हुआ है एक के विकास से दूसरे की सुगमता बढ़ती है जाहिर है कि मन-मुटाव से कुछ हासिल नहीं होगा। दोनों के आपसी और मजबूत सम्बंध चीनी खतरों को भी कमजोर करेंगे। जिस तर्ज पर प्रचण्ड का राश्ट्रपति भवन के प्रांगण में स्वागत हुआ, सेना के तीनों अंगों की संयुक्त टुकड़ी की प्रचण्ड ने सलामी ली और जिस प्रकार भारत में पहुंचने का उनका स्वाभाविक और सकारात्मक एहसास देखने को मिला। इससे साफ है कि वे सम्बंधों की कटुता को अब बकाया नहीं छोड़ना चाहेंगे।

सुशील कुमार सिंह


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