Saturday, July 9, 2016

खर्च एक, चुनाव अनेक

जब भी देष की लोकनीति और लोक प्रषासन को सुषासन की कसौटी पर कसा जाता है तब लोक प्रवर्धित अवधारणा ही मुखर होती है साथ ही षासक के इस हेतु किये गये प्रयासों के लिए सराहना भी होती है पर क्या किसी ने यह सोचा कि कई असमानताओं से पोशित भारत विगत् 48 वर्शों से चुनावी समर में लोकसभा के साथ विधानसभा तो विधानसभा के साथ लोकसभा के रास्ते अलग क्यों हो गये। क्यों नहीं दोनों के लिए वोट की आहूति एक ही चुनावी महोत्सव में सम्भव हो पा रही है। देखा जाय तो लगभग सात दषक के चुनावी इतिहास में पांच दषक से चुनावों पर दो बार करोड़ो व्यय किया जाता है जबकि सही रणनीति और बेहतर नियोजन के चलते इसे न केवल एक बार में तब्दील किया जा सकता है बल्कि संचित निधि पर चुनाव सम्बन्धित भारित व्यय को भी घटाया जा सकता है। इतना ही नहीं श्रम को भी दो बार खर्च करने से रोका जा सकता है। इससे देष की पूंजी और श्रम की न केवल बचत होगी बल्कि इसका उपयोग बुनियादी विकास पर बढ़े हुए मात्रा में सम्भव होगा। जब इस पर चर्चा हो ही गयी है तो इसका विषदीकरण भी विस्तार से हो जाय तो भारतीय लोकतंत्र के लिए भी एक बड़ा काम हो जायेगा। 
स्वतंत्र एवं निश्पक्ष चुनाव लोकतंत्र की आधारषिला तो है ही साथ ही चुनावों में निश्पक्षता एवं पारदर्षिता बनाये रखना इसकी सबसे बड़ी जरूरत भी है। सब कुछ के बावजूद लोकतंत्र में जो नहीं है, वह है लोकसभा एवं विधानसभा चुनाव का एक साथ सम्पन्न होना। फिलहाल इस मामले पर सरकार समेत निर्वाचन आयोग इसके पक्ष में खड़े दिखाई देते हैं। गौरतलब है कि बीते मई में चुनाव आयोग ने दोनों चुनाव एक साथ कराने का समर्थन करते हुए कानून मंत्रालय को पत्र लिखा। लोकतंत्र के इतिहास में ऐसा पहली बार हो रहा है जब चुनाव आयोग द्वारा आधिकारिक रूप से सभी चुनावों को एक साथ कराने का विचार रखा गया। आयोग ने लिखा कि यदि राजनीतिक दलों में सहमति बन जाती है तो ऐसा करना मुष्किल काम नहीं है। विगत् दो वर्शों से केन्द्र में कई नूतन सुधार और परिवर्तन के साथ मोदी सरकार चल रही है। मौजूदा सरकार देष के विकास को ऊँचाई देने की फिराक में है और कई जोखिम से भरे नीतिगत निर्णय भी ले चुकी है। अनुमान है कि निर्वाचन आयोग के लोकसभा एवं विधानसभा के एक साथ चुनाव कराने वाले संदर्भ पर भी सरकार का रूख सकारात्मक होगा। इस मामले पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी कहा है कि लोकसभा और राज्यों के विधानसभा के चुनाव एक साथ आयोजित होने चाहिए क्योंकि अलग-अलग चुनाव कराने से आर्थिक विकास को धक्का लगता है। उन्होंने यह भी कहा कि चुनाव की घोशणा के बाद आदर्ष आचार संहिता लागू होने से निर्णय लेने की प्रक्रिया बाधित हो जाती है। स्पश्ट है कि चुनाव पर होने वाले खर्च और लगने वाले श्रम से जन जीवन में खलल पड़ती है जिसे देखते हुए एक साथ चुनाव कराना हर तरफ से लाभकारी ही कहा जायेगा। इसके अलावा कानून एवं कार्मिक सम्बंधी संसदीय स्थायी समिति ने भी एक साथ चुनाव सम्पन्न कराने की वकालत की है। 
इस संदर्भ में निहित परिप्रेक्ष्य और रिपोर्ट को देखें तो कई राजनीतिक दल इसकी हिमायत में तो कई इसके विरोध में खड़े दिखाई देते हैं। अन्नाद्रमुक असम गण परिशद तथा डीएमके समेत कुछ दल सुझाव के साथ इस पर विचार करने के पक्षधर हैं जबकि कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस, भाकपा जैसे आधे दर्जन दल इस विचार को खारिज करते हैं। रिपोर्ट से यह पता नहीं चल पाता है कि भाजपा समेत बची हुई अन्य पर्टियों का इस पर रूख क्या है परन्तु प्रधानमंत्री मोदी के रूख को देखते हुए अंदाजा लगाया जा सकता है कि उनके दल का पक्ष भी उन्हीं की भांति होगा। भारत में पहला आम चुनाव 1952 में सम्पन्न हुआ। जाहिर है लोकसभा, विधानसभा के चुनाव एक साथ सम्पन्न हुए। 1957 में दूसरा एवं 1962 में तीसरा आम चुनाव जबकि चैथा आम चुनाव 1967 में सम्पन्न हुआ। यहां तक दोनों चुनाव एक ही समय पर होते हुए देखे जा सकते हैं लेकिन 1968 और 1969 में कुछ विधानसभाओं के समय से पहले भंग किये जाने से साथ-साथ चुनाव होने वाली प्रक्रिया रूक गयी। इतना ही नहीं 1970 में चैथी लोकसभा समय से पहले ही भंग कर दी गयी और 1971 में नये चुनाव हुए। तभी से मामला पटरी से उतर गया जिसे 48 बरस हो चुके हैं। दिलचस्प यह भी है कि भाजपा ने 2014 में सोलहवीं लोकसभा के चुनाव में अपने घोशणापत्र में साथ-साथ चुनाव वाली बात भी कही थी। षायद उसी का संदर्भ है कि बीते मार्च में हुई भाजपा की राश्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में पीएम मोदी ने पंचायत, षहरी निकायों, राज्यों और लोकसभा के चुनाव एक साथ कराये जाने की बात कही थी।
लोकसभा एवं राज्य विधानसभा सहित स्थानीय निकायों का चुनाव एक साथ सम्पन्न कराना हर लिहाज़ से सही है भारत एक विकासषील देष है और कई बुनियादी समस्याओं से जकड़ा हुआ है। गरीबी, बेरोज़गारी एवं असमानता सहित कई साध्य एवं असाध्य समस्याएं यहां फलक पर हैं। जिससे निजात पाने के लिए आर्थिक परिप्रेक्ष्य का मजबूत होना कहीं अधिक जरूरी है। ऐसे में यदि चुनाव के एक साथ कराने से खर्च कम होता है तो देष का ही फायदा है। इसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि 2014 के 16वीं लोकसभा चुनाव में लगभग 30 हजार करोड़ रूपए खर्च किये गये जो कि अमेरिका जैसे विकसित देष के राश्ट्रपति चुनाव के खर्च के न केवल आस-पास है बल्कि अब तक का सर्वाधिक चुनावी व्यय भी है। ऐसे में यदि बेहतर चुनावी रणनीति बना ली जाय तो एक बार के चुनावी खर्च से पांच साल के लिए सभी चुनावी व्यय से छुट्टी मिल सकती है। भारत के प्रमुख चुनाव आयुक्त नसीम जैदी आॅस्ट्रलियाई चुनाव  आयेाग के निमंत्रण पर इंटरनेषन इलेक्षन विजिटर्स प्रोग्राम‘ में षिरकत करने गये थे जहां उन्होंने कहा कि एक साथ चुनाव करवाने के लिए अधिक इलेक्ट्रोनिक मषीने खरीदने, अस्थाई कर्मचारियों को नियुक्त करने और चुनाव तिथियों में बदलाव जैसे कुछ प्रबंध करने होंगे। जाहिर है इस बड़े चुनाव के लिए बड़े संसाधनों और मानव संसधानों की आवष्यकता पड़ेगी पर ऐसा निकट भविश्य में यदि सम्भव होता है तो यह भारत के भविश्य के लिए बेहतर होगा।




सुशील कुमार सिंह

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