Monday, July 4, 2016

शासन, प्रशासन और प्राकृतिक आपदा

भारत में उत्तराखण्ड समेत उत्तर एवं पूर्वोत्तर के 11 राज्य हिमालयी क्षेत्र की संज्ञा में आते हैं जिनमें कुछ का मानसूनी बारिष के दिनों में तबाही के मंजर से गुजरना तो मानो नियति बन गयी हो। उत्तराखण्ड को इस मामले में फिलहाल अव्वल रखा जा सकता है। फिलहाल तबाही की ताजा तस्वीर बीते 1 जुलाई को पिथौरागढ़ और चमोली से उभरी जब कई दर्जन जिन्दगियां बादल फटने के चलते खत्म हो गयी और जनजीवन तहस-नहस के साथ छिन्न-भिन्न हो गया। आसमान से टूटी आफत और चुनौती से भरी परिस्थितियों के बीच राहत और बचाव कार्य भी हांफते नजर आये। फिर भी जिस षिद्दत से बचावकर्मियों ने तत्परता और समर्पण दिखाई है यदि उसकी सराहना न की जाय तो उनके प्रति अन्याय होगा। मौजूदा तबाही को देखकर अनायास ही तीन वर्श पहले केदारनाथ घाटी की 16 जून, 2013 की तबाही आंखों के सामने तैरने लगी। पहाड़ का जीवन कितना दूभर है इसके बारे में बड़े-बड़े नगरों, षहरों या राजधानियों में बैठकर अंदाजा नहीं लगाया जा सकता। कैसे बुनियादी समस्याओं से यहां का जन-जीवन दो-चार होता है इस पर भी सटीक राय दूर से देना सम्भव नहीं है। इतना ही नहीं प्राकृतिक आपदाओं के चलते भूस्खलन से लेकर पानी का जो सैलाब यहां उमड़ता है उसका पूरा अनुमान यहां रहने वालों से बेहतर षायद ही कोई लगा सके। दर्जन से अधिक लोगों की मौत हो चुकी है जबकि इतने ही लोग लापता हैं। गौरतलब है कि जब यह जाना-समझा जा चुका है कि 90 दिनों की बारिष पहाड़ के लिए त्रासदी का सबब होती है तो आपदा प्रबंधन आखिर इन चुनौतियों को लेकर चुस्त-दुरूस्त क्यों नहीं होता। आपदा प्रबंधन के नाम पर एसडीआरएफ का गठन प्रदेष में 2007 में किया गया। देहरादून से लेकर दूरस्थ क्षेत्रों में इसके कई माॅक ड्रिल कर इसे सफल बताने वाले षासन-प्रषासन ने अपनी पीठ तो थपथपा ली पर आसमान से बरसी आफत ने पलटवार करते हुए इनकी पोल भी खोल दी।
उत्तराखण्ड की बनावट और दुर्गम परिप्रेक्ष्य का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि घटना के बाद मुख्यमंत्री हरीष रावत को पिथौरागढ़ के जिलाधिकारी से सम्पर्क करने में चार घण्टे का समय लगा। स्पश्ट है कि 2013 की त्रासदी से सरकारी मषीनरी ने कोई सबक नहीं लिया और आपदा प्रबंधन के नाम पर केवल कोरी बातें ही की जाती रहीं। गौरतलब है कि केदारनाथ की घाटी में आयी आपदा के चलते संचार व्यवस्था फेल हो गयी थी और दो दिन तक तबाही के उस मंजर से सरकार बेखबर रही। हालांकि मौजूदा हरीष रावत सरकार तात्कालिक घटना पर तेजी से काम षुरू किया है। सोचने की बात तो यह भी है कि आपदा प्रबंधन के नाम पर करोड़ों का बजट खर्च किया जाता है। इसको लेकर बड़े-बड़े दावे भी किये जाते हैं परन्तु अपेक्षानुरूप परिणाम क्यों नहीं आते। कहा तो यह भी जा रहा है कि आपदा प्रबंधन के लिए जो सैटेलाइट फोन खरीदे गये वे भी काम नहीं आये। जिन दो जिलों में आफत से भरी बारिष हुई उनमें पिथौरागढ़ में तीन माह पहले संचार को दुरूस्त करने के लिए सैटेलाइट फोन आपदा न्यूनीकरण एवं प्रबंधन केन्द्र द्वारा उपलब्ध कराया गया था जो बिल न जमा होने के कारण काम नहीं कर रहा है जबकि चमोली में मामला आदेष तक ही रह गया। स्पश्ट है कि आपदाओं के दिनों में दूरस्थ और सीमावर्ती जिले किस प्रकार मुख्य धारा से कट जाते हैं। उत्तराखण्ड में निरंतर विपदाओं के बावजूद व्यवस्था पूरी तरह चाक-चैबंद नहीं हो पा रही। कुछ यहां की पहाड़ी परिस्थितियां तो कुछ आर्थिक वजह बताई जाती हैं। 70 विधायकों वाले उत्तराखण्ड में 2011 की जनगणना के हिसाब से 1 करोड़, 2 लाख लोग रहते हैं जिसमें से लगभग आधा देहरादून, हरिद्वार और ऊधमसिंहनगर में हैं। यहां का वार्शिक बजट दिल्ली अधिराज्य के समान करीब 40 हजार करोड़ का होता है। बुनियादी परिप्रेक्ष्य यह है कि नौ महीने यहां सड़क सहित कई आवष्यक ढांचों का या तो निर्माण किया जाता है या मरम्मत और तीन महीने की बारिष में यह एक बार फिर चोटिल हो जाती हैं।
खास बात यह भी है कि पिथौरागढ़ और चमोली सहित पांच जनपद में बीएसएनएल के सिग्नल ठीक से नहीं करते हैं यह मामला 2015 में संसद में भी उठा था पर इस पर कुछ खास नहीं हुआ। गौरतलब है कि जिलाधिकारी से लेकर पुलिस अधीक्षक तथा राजधानी में बैठे आला अफसर बीएसएनएल मोबाइल इस्तेमाल करते हैं। बीएसएसएल है तो सही है यह ष्लोगन आपदा वाले इलाकों में समुचित तो नहीं कहा जायेगा। जब कोई बड़ी घटना घटती है तो सचिवालय स्थित आपदा न्यूनीकरण और प्रबंधन केन्द्र के साथ सम्पर्क साधने में दिक्कते आती हैं। ऐसे में राहत और बचाव को लेकर देरी होना स्वााभाविक है। यह संदर्भ भी महत्वपूर्ण है कि भारतीय मौसम विभाग की भविश्यवाणी से सभी को नहीं साधा जा सकता ह। उत्तराखण्ड के लिए तो यह बेमानी ही सिद्ध होता है। जिस प्रकार उत्तराखण्ड मानसूनी दिनों में तबाही की ओर धकेल दिया जाता है उसे देखते हुए यहां मौसम पूर्वानुमान प्रणाली की जबरदस्त व्यवस्था होनी चाहिए। इसी को देखते हुए कर्नाटक की तर्ज पर हाइड्रो मेट सरफेस नेटवर्क की बात की जा रही है। कर्नाटक स्टेट की नेचुरल डिजास्टर की माॅनीटरिंग और मौसम पूर्वानुमान सिस्टम अच्छी और सस्ती प्रणाली से परिपूर्ण है। यहां की लगभग 65 सौ पंचायत मुख्यालयों में अत्याधुनिक टेली मैट्रिक रेन गाॅज व आॅटोमैटिक वैदर स्टेषन स्थापित किया है। इसकी खासियत यह है कि प्रत्येक 15 मिनट में स्थानीय किस्म के आंकड़े जमा किये जा सकते हैं और उनके आधार पर अलर्ट हुआ जा सकता है। उत्तराखण्ड में 65 स्थानों पर आॅटोमैटिक वैदर स्टेषन और 52 पर टेलीमैट्रिक रेन गाॅज लगाने की सिफारिष मौसम विभाग की विषेशज्ञ समिति द्वारा पहले ही की गयी थी। मौजूदा समय में यहां 21 आॅटोमैटिक वैदर स्टेषन संचालित हैं। पिछले साल ही विष्व बैंक की मदद से पिथौरागढ़ के मुनस्यारी सहित चार और स्थानों पर इसे स्थापित किया गया बावजूद इसके मुनस्यारी भी इन दिनों तबाही की चपेट में है। इसके साथ ही एक विधा डाॅप्लर रडार भी है जिसके चलते दो घण्टे में बादलों की स्थिति को समझा जा सकता है और आपदा से निपटने में आसानी हो सकती है पर मसूरी और नैनीताल में कई कोषिषों के बावजूद अभी तक मामलो उलझा हुआ है जबकि इसकी जरूरत प्रदेष के सभी हिस्सों में है। हालांकि केन्द्र से पैसा न मिलने के कारण इसको अधर में माना जात रहा है। 
विडम्बना यह है कि पानी की अधिकता से तबाही और कमी से भी तबाही सुनिष्चित होती है। एक वास्तविकता यह भी है कि पिछले तीन वर्शों से हिन्द महासागर से उठने वाली मानसूनी हवाएं कर्कष नहीं रही फलस्वरूप लगातार बारिष में गिरावट के चलते हजारों की तादाद में देष भर से किसानों ने खुदकुषी कर ली। इतना ही नहीं बीते वर्श के मार्च-अप्रैल में एक दर्जन से अधिक बार हुई बेमौसम बारिष ने भी किसानों के लिए कहर का ही काम किया था। इस दौरान भी खुदकुषी का सिलसिला थमा नहीं था। जब बात मुखर हो ही गयी है तो बताते चलें कि केन्द्र से लेकर प्रदेष की सरकारों ने किसानों को राहत पहुंचाने के मामले में उन दिनों बड़ी-बड़ी घोशणाएं की थी पर दुर्भाग्यपूर्ण सच्चाई यह है कि मरहम के नाम पर किसानों को दर्द ही मिला था और वह भी बादस्तूर अभी जारी है। फिलहाल इन दिनों उत्तराखण्ड में आपदा से जूझते लोग और षासन-प्रषासन द्वारा की जा रही कोषिषें कितने तालमेल पर हैं इसकी भी पड़ताल जरूरी है। देखा जाय तो पूरे वर्श की 80 फीसदी बारिष जुलाई से सितम्बर के बीच होती है जबकि अभी बारिष की षुरूआत हुई है।  ऐसे में उत्तराखण्ड सरकार को अपनी आपदा टीम को न केवल अलर्ट मोड पर रखना होगा बल्कि संचार की रूकावटों पर भी पूरा होमवर्क करना ही होगा।

सुशील कुमार सिंह


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