Monday, July 4, 2016

आर्थिक रस्साकसी और सातवां वेतन आयोग

हमेशा से एक आर्थिक सच्चाई यह रही है कि सरकारी क्षेत्र में कार्यरत नौकरषाह सहित छोटे कर्मचारी वेतन आयोग की सिफारिषों की दषकों से प्रतीक्षा करते हैं। ये बात और है कि इसके आंकड़े कुछ के लिए बेहतर तो कुछ के लिए मायूसी से भरे होते हैं। हालांकि ऐसा अपेक्षाओं के बीच पनपे द्वन्द के चलते होता है जबकि वेतन वृद्धि में तो सभी षुमार होते हैं। फिलहाल सातवें वेतन आयोग की एक खासियत बिना देर किये लागू होना भी रहा है। वर्श 1946 में पहले वेतन आयोग से लेकर आज तक सात वेतन आयोग की रिपोर्ट आ चुकी हैं। कुछ समय से तो कुछ बे-समय भी रही हैं। पड़ताल बताती है कि दूसरा वेतन आयोग 1957 में गठित और 1959 में लागू हुआ था जबकि तीसरा वेतन आयोग 1973 में लागू हुआ। चैथा एवं पांचवां क्रमषः 1986 और 1996 में धरातल पर उतरा। छठवें वेतन आयोग का गठन 2006 में और सिफारिषें 2008 में लागू हुईं थी। इस लिहाज़ से सातवां वेतन आयोग तुलनात्मक अन्य वेतन आयोगों से षीघ्रता के लिए भी जाना-समझा जायगा। हालांकि इसके कई सियासी मायने भी हो सकते हैं। दो वर्श पुरानी मोदी सरकार सरकारी कर्मचारियों को इस वेतन आयोग के माध्यम से सरकार के प्रति एक सकारात्मक दृश्टिकोण भी विकसित करने का इरादा भी रखती होगी जिसका असर आने वाले विधानसभा चुनावों पर भी पड़ सकता है। बावजूद इसके आर्थिक हकीकत यह भी है कि सभी को खुष नहीं किया जा सकता और ऐसा किसी भी वेतन आयोग की सिफारिष में देखा जा सकता है। अब तक के सभी वेतन आयोग की रिपोर्ट देखें तो चैथे और पांचवें वेतन आयोग ने निम्नतम और अधिकतम वेतन में दस गुने का अंतर रखा है जबकि छठे वेतन आयोग ने 11 गुने के साथ इस अन्तर को और बढ़ाने का काम किया है। कमोबेष सातवें वेतन आयोग की स्थिति भी कुछ इसी प्रकार की है। हालांकि इसका त्वरित लागू होना इसकी चमकदार खासियत में गिना जा रहा है।
एक करोड़ से ज्यादा सरकारी कर्मचारियों और पेंषनधारियों को सातवां वेतन आयोग एक बार फिर सौगात के साथ जमीन पर है। सरकार के मुताबिक इतने लोगों को बढ़े हुए वेतन देने के लिए देष के खजाने पर सालाना एक लाख करोड़ से अधिक का भार का बढ़ना तय है जो जीडीपी का 0.7 फीसदी है। देखा जाए तो किसी भी वेतन आयोग की सिफारिष तात्कालिक परिस्थितियों की उभरती हुई तस्वीर होती है। जिस कदर जीवन के जरूरी और बुनियादी आवष्यकताएं उड़ान पर हैं उसे देखते हुए आर्थिक पराकाश्ठा से भरे वेतन वृद्धि भी आवष्यक हो जाते हैं। प्रषासनिक चिंतनों में भी यह राय रही है कि वेतन वृद्धि और कर वृद्धि में संतुलन होना चाहिए साथ ही देष के सरकारी कामगारों के बीच भी आर्थिक खाई कम ही होनी चाहिए। इतना ही नहीं कर्मचारी और आम नागरिक में भी आर्थिक ऊँच नीच बहुत बेडोल नहीं होना चाहिए। यदि ऐसे मसलों पर ध्यान न दिया जाए तो आने वाले दिनों में देष एक नये तरीके के चैड़ी आर्थिक खाई में फंस जाता है। फिलहाल देष में महज 4 करोड़ के आस-पास ही करदाता हैं जिसमें आधे ऐसे हैं जिनके द्वारा कर के 50 रूपए भी देय नहीं होते। स्पश्ट है कि मात्र दो करोड़ करदाता सवा सौ करोड़ लोगों के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा रहे हैं। हालांकि संघीय सूची में दर्ज प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष कर को मिला कर धन उगाही के दर्जनों रास्ते है, उनमें एक बड़ा हिस्सा आयकर का भी है। आर्थिक परिपे्रक्ष्य और देषीय विकास की अवधारणा को बिना मजबूत अर्थव्यवस्था के तय किया जाना किसी भी देष के मुखिया के लिए सम्भव नहीं है। षायद यही वजह रही होगी कि प्रधानमंत्री मोदी ने बीते दिन अपने 21वीं बार की मन की बात में आयकर एवं बिना कर चुकाए धन को लेकर कई नसीहते देष को दी। जिसमें 30 सितम्बर तक की अन्तिम तारीख इस बात के लिए नियत है कि काले धन को लोग सफेद कर लें। इस प्रकार की उदारता दिखाने के पीछे भारत की संचित निधि को मजबूत करना है। एक आर्थिक सच्चाई यह भी है कि बिना राजस्व के मजबूती के न तो सबल नीतियां ही बन सकती है और न ही जनता की भलाई के लिए जरूरी क्रियान्वयन ही होगा। सातवें वेतन आयोग के माध्यम से सरकारी कर्मचारियों के जरूरी आर्थिक पक्ष को पटरी पर लाने के लिए जो भार कोश पर बढ़ेगा उसके लिए सरकार को भी नये स्रोत तलाषने होंगे। इसी वेतन आयोग की सिफारिष में सरकार ने 52 तरह के भत्तों को गैर जरूरी समझा है जबकि 36 भत्तों को आपस में मिला दिया है। साफ है कि संतुलित अर्थनीति को सातवें वेतन आयोग के अन्दर से ही झांका जा सकता है।
छन-छन के आई खबर यह भी है कि वेतन आयोग की सिफारिष लागू होने पर देष की अर्थव्यवस्था में तेजी आयेगी जिसका सीधा असर जीडीपी पर भी पड़ेगा। जाहिर है कि मांग मजबूत होगी, ऐसे में आर्थिक वृद्धि के लिए अच्छा रहेगा। वेतन, भत्ते बढ़ने से उपभोक्ताओं की मांग टिकाऊ होगी। अर्थषास्त्रियों की भी राय है कि पैसा अधिक होने से उपभोक्ता वस्तुओं और सेवाओं की मांग पर अच्छा असर रहेगा। मिलाजुला कर कहा जाय तो कमाई बढ़ेगी तो खर्च भी अधिक होगा जो कर्मचारी और बाजार दोनों के लिए बेहतर होगा। अनुमान तो यह भी है कि मुद्रा स्फीति में भी बढ़ोत्तरी हो सकती है। हालांकि इस पर बात करना बेमानी है क्योंकि यह तो कभी भी बढ़ और घट जाती है। षायद ही कोई अर्थषास्त्री इसके चढ़ाव-उतार को लेकर कभी सटीक वर्णन दिया हो। इस बार का मानसून भी तुलनात्मक तीन सालों से बेहतर रहेगा। ऐसे में यदि कीमत बढ़ती भी है तो जेब भरी होने के कारण असर नहीं पड़ेगा या कहा जाय तो पड़ने वाले असर की भरपाई कर लेंगे। सरकार का कठोर कदम आर्थिक उगाही पर भी है। साफ है कि आयकर और उत्पाद षुल्क पर नजर गड़ाने के चलते सरकार बेहतर लाभ की ओर होगी। जाहिर है केन्द्रीय खजाना बढ़त लिए रहेगा। हालांकि जिन संदर्भों को सादगी से समझने की कोषिष की गयी है आर्थिक परिमाप में वे इतने सटीक नहीं उतरते हैं। ऐसे में कुछ उबड़-खाबड़ परिणाम भी समय के साथ पचाने पड़ सकते हैं। 
वेतन वृद्धि की सिफारिष ने देष को न केवल एक नये चर्चा और परिचर्चा का पूरा अवसर दिया है बल्कि देष की अर्थव्यवस्था को भी नये सिरे से पड़ताल करने का मौका भी दिया। प्रत्येक फरवरी के अन्तिम दिन जब आम बजट पेष होता है तो कई संदर्भों में से एक संदर्भ यह भी कहा जाता है कि बजट देष की अर्थव्यवस्था का आइना होता है। उसी तर्ज पर सातवां वेतन आयोग भी सातवीं बार आइने में उतरती देष की आर्थिक तस्वीर का हिस्सा है। हालांकि भारत में वेतन पर खर्च अभी भी कम माना जाता है। विष्व बैंक की 2008 की रिपोर्ट को देखें तो कुल खर्च के अनुपात में वेतन मद पर खर्च 6.57 फीसदी था जो सात सालों में बढ़कर करीब 8.07 हो गया जबकि सातवें वेतन आयोग की सिफारिषों में 8 से 9 फीसदी के बीच रहने की उम्मीद है। अमेरिका, ब्रिटेन जैसे विकसित देषों में वेतन पर दस फीसदी खर्च किया जाता है। हैरत यह है कि पड़ोसी बंग्लादेष और श्रीलंका क्रमषः 23 और 28 फीसदी से अधिक खर्च करते हैं। इसी प्रकार फ्रांस और मिस्र जैसे देष भारत की तुलना में ढ़ाई गुना वेतन पर खर्च करते हैं। हालांकि पड़ोसी पाकिस्तान इस मामले में भारत की तुलना पर आधा ही है। फिलहाल समय से आये इस वेतन आयोग में यह भी संकेत निहित है कि सरकारी कर्मचारी भविश्य की जरूरतों को किस प्रकार साधेंगे।
सुशील कुमार सिंह


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