भारतीय इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ है जब देष के राश्ट्रपति एवं प्रधानमंत्री ने षिक्षक दिवस की पूर्व संध्या पर अपनी-अपनी पाठषालाएं लगायी। जब एक युग की षुरूआत होती है और भविश्य के प्रति बड़ी चिन्ता जताई जाती है तो इस बात का भी प्रमाण मिलने लगता है कि देर-सवेर कुछ बेहतर होगा। षिक्षक दिवस और कृश्ण जन्माश्टमी का दिन भी संयोग से एक ही है। यह एक ऐसा अनूठा अवसर है जहां षिक्षा और संकल्प दोनों को भारी बढ़त मिल सकती है। दोनों ही षीर्शस्थ पदों पर आसीन नेताओं ने षिक्षा की महत्ता पर तो प्रकाष डाला ही साथ ही छात्रों के जीवन में मां और षिक्षक की भूमिका को भी उजागर किया। बताया कि बेहतर होने के लिए क्या कुछ करना होता है। किसी भी राश्ट्र को यदि समग्र विकास चाहिए तो षिक्षा ही पहली प्राथमिकता होगी। षिक्षा से विष्लेशण षक्ति बढ़ती है, सत्य-असत्य का ज्ञान होता है और जीवन खोज में अर्थ की प्राप्ति भी होती है। नैतिक मूल्यों को वास्तविक रूप से निर्वहन करने में भी षिक्षा ही अहम् है मगर यह कहना कठिन है कि राश्ट्रपति और प्रधानमंत्री की प्रेरणा उन षिक्षकों तक भी पहुंचेगी जो षिक्षा को मौजूदा परिदृष्य में अपने निजी हित को साधने का जरिया मान बैठे हैं। देष की षिक्षा व्यवस्था काफी हद तक संरचनात्मक एवं प्रक्रियात्मक तौर पर कमजोर है जिससे संतुश्ट तो नहीं हुआ जा सकता। हालांकि केन्द्र सरकार एक नई षिक्षा नीति तैयार करने में लगी हुई है पर परिणाम क्या होगा यह लागू किये जाने के बाद ही पता चलेगा।
देष के प्रधानमंत्री एवं राश्ट्रपति का स्कूली छात्रों के साथ समय बिताना एक अनूठी परम्परा की षुरूआत है। राश्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने बाकायदा षिक्षक की तरह क्लासरूम में जाकर एक घण्टा देष का राजनीतिक इतिहास पढ़ाया। उन्होंने लोकतंत्र में हर समस्या के समाधान की बात कही साथ ही जन लोकपाल का समर्थन किया। प्रधानमंत्री ने जताया कि स्कूलों में दिए जाने वाले चरित्र प्रमाण पत्र की जगह अब एप्टीट्यूड सर्टिफिकेट दिया जाना चाहिए। देखा जाए तो वर्तमान में सिविल सेवा सहित कई परीक्षाओं में एप्टीट्यूड को षामिल किया गया है। उन्होंने कहा कि मां जन्म देती है और गुरू जीवन। असल में जब भी षिक्षा व्यवस्था पर चिन्ता जतायी जाती है तो दो बातें स्पश्ट किया जाना जरूरी होता है पहला यह कि षिक्षा के प्रति जो दृश्टिकोण समाज का है उसमें अभी कितना सुधार करना है और क्यों करना है, दूसरा यह केवल रोजगार प्राप्ति का जरिया न होकर व्यक्तित्व प्राप्ति का एक नजरिया भी बने। प्रधानमंत्री की सलाह डिग्री और नौकरी के दायरे से बाहर निकलने की है, इसे सामाजिक प्रतिश्ठा से नहीं जोड़ने की है जो बच्चे जिस क्षेत्र में जाना चाहें वहां जाने देने से है। उन्होंने यह भी कह डाला कि मां-बाप जो नहीं कर पाते वह बच्चों से करवाना चाहते हैं। वर्तमान षिक्षा व्यवस्था पर प्रधानमंत्री की कही गयी बात सौ फीसदी सही ठहरती है। भारत की षिक्षा व्यवस्था समुचित है कहना कठिन है पर स्कूली बच्चे षिक्षा व्यवस्था से दबे हुए हैं इसे कहने में कोई कठिनाई नहीं है। नौनिहालों का जो हाल आज की षिक्षा में है वो कहीं अधिक प्रताड़ित करने वाली है। जिसे हम बड़े सहज तरीके से आज की पीढ़ी में बौद्धिक बाढ़ की संज्ञा देकर छुपा जाते हैं।
राजनीति में बेहतर लोग नहीं जा रहे हैं पर सवाल है कि बेहतर किसे कहें? मोदी ने बच्चों को राजनीति में आने के लिए प्रेरित किया यहां भी प्रधानमंत्री का नजरिया उचित है। यदि सही षिक्षा और सही व्यक्ति का संयोजन प्राप्त कर लिया जाए तो यही बच्चे भविश्य की राजनीति को भी बेहतर कर सकते हैं। अच्छा वक्ता पहले अच्छा श्रोता होता है इस कथन का भी मोदी ने प्रयोग करके बच्चों के आंख-कान खोलने की ओर इषारा किया। यह भारत के इतिहास में अनूठा दिन था जब प्रधानमंत्री मोदी और राश्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने बच्चों को राश्ट्र निर्माण का पाठ पढ़ाया। हालांकि कई चुभने वाले पक्ष भी हैं आलम यह है कि युवा भारत में षिक्षा प्राप्त कर बेहतर अवसर की तलाष में विदेष का रूख करते हैं। पलायन खूब हो रहा है पर रूके कैसे अभी तक फाॅर्मूला नहीं मिल पाया है। सवाल है कि क्या षिक्षा आर्थिक उपादेयता को बढ़ाने का एक जरिया है, क्या सामाजिक प्रतिश्ठा हासिल करने का एक तरीका है या फिर जीवन रचना में यह उपजाऊ है। प्रत्येक की दृश्टि में इसके अलग मायने हो सकते हैं पर इस बात से कोई इन्कार नहीं कर सकता कि बेहतर षिक्षा और षिक्षण कार्य सम्मान और आदर्ष का एक अच्छा रूप है। गौरतलब है कि देष की षिक्षा व्यवस्था केवल डिग्री उन्मुख है या उसमें कोई रचनात्मक संवेग भी है। विष्व बैंक भी मानता है कि 90 फीसदी भारतीय ग्रेजुएट काम के लायक नहीं है। बावजूद इसके यह आष्वस्त करने के लिए बेहतर है कि षिक्षा के प्रति चेतना और जागरूकता बीते दो दषकों से खूब बढ़ी है पर चिन्ता का सबब यह है कि षैक्षणिक गुणवत्ता बढ़त के मामले में कमजोर रही है। कमजोर षिक्षा के प्रति जवाबदेही किसकी है इसे लेकर भी बहुत स्पश्ट राय देष में नहीं बन पायी है। प्रधानमंत्री एवं राश्ट्रपति ने षिक्षक दिवस के एक दिन पहले उन आदर्ष बिन्दुओं को तो उकेर दिया जहां से एक समूचित षिक्षा की राह खुलती है पर उनका क्या जो बदलाव की फिराक में बदहाली की स्थिति में पहुंच गये हैं।
षिक्षा सुधार मोदी सरकार की प्राथमिकता में तो है पर 15 माह पुरानी सरकार का षिक्षा नीति पर अभी कोई प्रारूप सामने नहीं आया। षिक्षा कई हिस्सों में बंटी है प्राथमिक, माध्यमिक और उच्च षिक्षा। देष में एक अचरज भरी बात यह भी रही है कि ज्यादातर सुधार उच्च स्तर पर होते रहे हैं जबकि सभी स्तरों से ही समूचा सुधार पाया जा सकता है। तेजी से बदलते विष्व परिदृष्य की चुनौतियों से निपटने के लिए षिक्षा व्यवस्था में भी व्यापक फेरबदल की आवष्यकता है। षायद ही कोई इन बातों से चिन्तित हो कि सरकारी और निजी स्कूलों के बीच अन्तर का बढ़ना ठीक नहीं है। गम्भीर समस्या तो यह भी है कि राश्ट्र विकास के लिए युवा चाहिए और ये डिग्री धारक भी हैं परन्तु षिक्षा की बुनियादी कमी से जूझ रहे हैं। पाठ्यक्रम में परिवर्तन की जरूरत सभी समझते हैं पर जड़ता पीछा नहीं छोड़ रही है। षिक्षा को लेकर राश्ट्रपति और प्रधानमंत्री का पाठषाला लगाने का कार्यक्रम हर हाल में सराहनीय है पर हमें उन नतीजों की भी चिन्ता करनी चाहिए जिसे प्राप्त करके देष आगे बढ़ेगा। संविधान भी षिक्षा और षिक्षार्थियों के लिए कई बातें अमल कराने के लिए जाना जाता है। देष बड़ा है, लोकतांत्रिक व्यवस्था भी बड़ी है, सब कुछ पूरी तरह अमल में अचानक आ पाना सम्भव नहीं है पर बदलते परिप्रेक्ष्य में जो षिक्षा की हालत है उसे देखते हुए कई महत्वाकांक्षी परियोजनाओं की दरकार है। संवैधानिक पदों पर आसीन षीर्शस्थ षिक्षकों ने षिक्षा में सुषासन की रोपाई तो कर दी पर अभी खाद-पानी की कहीं अधिक जरूरत बनी हुई है साथ ही जो बातें राश्ट्रपति और प्रधानमंत्री द्वारा षिक्षा की चिन्ता को लेकर उकेरी गयी हैं उस पर भी अमल करने की आवष्यकता है।
लेखक, वरिश्ठ स्तम्भकार एवं रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन के निदेषक हैं
सुशील कुमार सिंह
निदेशक
प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्ससाइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2710900, मो0: 9456120502
देष के प्रधानमंत्री एवं राश्ट्रपति का स्कूली छात्रों के साथ समय बिताना एक अनूठी परम्परा की षुरूआत है। राश्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने बाकायदा षिक्षक की तरह क्लासरूम में जाकर एक घण्टा देष का राजनीतिक इतिहास पढ़ाया। उन्होंने लोकतंत्र में हर समस्या के समाधान की बात कही साथ ही जन लोकपाल का समर्थन किया। प्रधानमंत्री ने जताया कि स्कूलों में दिए जाने वाले चरित्र प्रमाण पत्र की जगह अब एप्टीट्यूड सर्टिफिकेट दिया जाना चाहिए। देखा जाए तो वर्तमान में सिविल सेवा सहित कई परीक्षाओं में एप्टीट्यूड को षामिल किया गया है। उन्होंने कहा कि मां जन्म देती है और गुरू जीवन। असल में जब भी षिक्षा व्यवस्था पर चिन्ता जतायी जाती है तो दो बातें स्पश्ट किया जाना जरूरी होता है पहला यह कि षिक्षा के प्रति जो दृश्टिकोण समाज का है उसमें अभी कितना सुधार करना है और क्यों करना है, दूसरा यह केवल रोजगार प्राप्ति का जरिया न होकर व्यक्तित्व प्राप्ति का एक नजरिया भी बने। प्रधानमंत्री की सलाह डिग्री और नौकरी के दायरे से बाहर निकलने की है, इसे सामाजिक प्रतिश्ठा से नहीं जोड़ने की है जो बच्चे जिस क्षेत्र में जाना चाहें वहां जाने देने से है। उन्होंने यह भी कह डाला कि मां-बाप जो नहीं कर पाते वह बच्चों से करवाना चाहते हैं। वर्तमान षिक्षा व्यवस्था पर प्रधानमंत्री की कही गयी बात सौ फीसदी सही ठहरती है। भारत की षिक्षा व्यवस्था समुचित है कहना कठिन है पर स्कूली बच्चे षिक्षा व्यवस्था से दबे हुए हैं इसे कहने में कोई कठिनाई नहीं है। नौनिहालों का जो हाल आज की षिक्षा में है वो कहीं अधिक प्रताड़ित करने वाली है। जिसे हम बड़े सहज तरीके से आज की पीढ़ी में बौद्धिक बाढ़ की संज्ञा देकर छुपा जाते हैं।
राजनीति में बेहतर लोग नहीं जा रहे हैं पर सवाल है कि बेहतर किसे कहें? मोदी ने बच्चों को राजनीति में आने के लिए प्रेरित किया यहां भी प्रधानमंत्री का नजरिया उचित है। यदि सही षिक्षा और सही व्यक्ति का संयोजन प्राप्त कर लिया जाए तो यही बच्चे भविश्य की राजनीति को भी बेहतर कर सकते हैं। अच्छा वक्ता पहले अच्छा श्रोता होता है इस कथन का भी मोदी ने प्रयोग करके बच्चों के आंख-कान खोलने की ओर इषारा किया। यह भारत के इतिहास में अनूठा दिन था जब प्रधानमंत्री मोदी और राश्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने बच्चों को राश्ट्र निर्माण का पाठ पढ़ाया। हालांकि कई चुभने वाले पक्ष भी हैं आलम यह है कि युवा भारत में षिक्षा प्राप्त कर बेहतर अवसर की तलाष में विदेष का रूख करते हैं। पलायन खूब हो रहा है पर रूके कैसे अभी तक फाॅर्मूला नहीं मिल पाया है। सवाल है कि क्या षिक्षा आर्थिक उपादेयता को बढ़ाने का एक जरिया है, क्या सामाजिक प्रतिश्ठा हासिल करने का एक तरीका है या फिर जीवन रचना में यह उपजाऊ है। प्रत्येक की दृश्टि में इसके अलग मायने हो सकते हैं पर इस बात से कोई इन्कार नहीं कर सकता कि बेहतर षिक्षा और षिक्षण कार्य सम्मान और आदर्ष का एक अच्छा रूप है। गौरतलब है कि देष की षिक्षा व्यवस्था केवल डिग्री उन्मुख है या उसमें कोई रचनात्मक संवेग भी है। विष्व बैंक भी मानता है कि 90 फीसदी भारतीय ग्रेजुएट काम के लायक नहीं है। बावजूद इसके यह आष्वस्त करने के लिए बेहतर है कि षिक्षा के प्रति चेतना और जागरूकता बीते दो दषकों से खूब बढ़ी है पर चिन्ता का सबब यह है कि षैक्षणिक गुणवत्ता बढ़त के मामले में कमजोर रही है। कमजोर षिक्षा के प्रति जवाबदेही किसकी है इसे लेकर भी बहुत स्पश्ट राय देष में नहीं बन पायी है। प्रधानमंत्री एवं राश्ट्रपति ने षिक्षक दिवस के एक दिन पहले उन आदर्ष बिन्दुओं को तो उकेर दिया जहां से एक समूचित षिक्षा की राह खुलती है पर उनका क्या जो बदलाव की फिराक में बदहाली की स्थिति में पहुंच गये हैं।
षिक्षा सुधार मोदी सरकार की प्राथमिकता में तो है पर 15 माह पुरानी सरकार का षिक्षा नीति पर अभी कोई प्रारूप सामने नहीं आया। षिक्षा कई हिस्सों में बंटी है प्राथमिक, माध्यमिक और उच्च षिक्षा। देष में एक अचरज भरी बात यह भी रही है कि ज्यादातर सुधार उच्च स्तर पर होते रहे हैं जबकि सभी स्तरों से ही समूचा सुधार पाया जा सकता है। तेजी से बदलते विष्व परिदृष्य की चुनौतियों से निपटने के लिए षिक्षा व्यवस्था में भी व्यापक फेरबदल की आवष्यकता है। षायद ही कोई इन बातों से चिन्तित हो कि सरकारी और निजी स्कूलों के बीच अन्तर का बढ़ना ठीक नहीं है। गम्भीर समस्या तो यह भी है कि राश्ट्र विकास के लिए युवा चाहिए और ये डिग्री धारक भी हैं परन्तु षिक्षा की बुनियादी कमी से जूझ रहे हैं। पाठ्यक्रम में परिवर्तन की जरूरत सभी समझते हैं पर जड़ता पीछा नहीं छोड़ रही है। षिक्षा को लेकर राश्ट्रपति और प्रधानमंत्री का पाठषाला लगाने का कार्यक्रम हर हाल में सराहनीय है पर हमें उन नतीजों की भी चिन्ता करनी चाहिए जिसे प्राप्त करके देष आगे बढ़ेगा। संविधान भी षिक्षा और षिक्षार्थियों के लिए कई बातें अमल कराने के लिए जाना जाता है। देष बड़ा है, लोकतांत्रिक व्यवस्था भी बड़ी है, सब कुछ पूरी तरह अमल में अचानक आ पाना सम्भव नहीं है पर बदलते परिप्रेक्ष्य में जो षिक्षा की हालत है उसे देखते हुए कई महत्वाकांक्षी परियोजनाओं की दरकार है। संवैधानिक पदों पर आसीन षीर्शस्थ षिक्षकों ने षिक्षा में सुषासन की रोपाई तो कर दी पर अभी खाद-पानी की कहीं अधिक जरूरत बनी हुई है साथ ही जो बातें राश्ट्रपति और प्रधानमंत्री द्वारा षिक्षा की चिन्ता को लेकर उकेरी गयी हैं उस पर भी अमल करने की आवष्यकता है।
लेखक, वरिश्ठ स्तम्भकार एवं रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन के निदेषक हैं
सुशील कुमार सिंह
निदेशक
प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्ससाइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2710900, मो0: 9456120502
No comments:
Post a Comment