आम जीवन से गायब हो चुका रेडियो पुनः अस्तित्व में मानो तब आया जब वर्श 2014 में अक्टूबर की तीन तारीख से मोदी के ‘मन की बात‘ की षुरूआत हुई। यह आकाषवाणी पर प्रसारित होने वाला अब ऐसा कार्यक्रम बन गया है जिसके जरिए भारत के प्रधानमंत्री मोदी न केवल इसका प्रयोग नागरिकों को सम्बोधित करने में करते हैं बल्कि उनसे संवाद भी स्थापित कर रहे हैं। ‘मन की बात‘ का प्रसारण जब पहली बार हुआ तो यह अंदाजा लगाना कठिन था कि इसके कितने सकारात्मक नतीजे होंगे। इसके चलते न केवल रेडियो की प्रासंगिकता बढ़ी बल्कि देष के सामने एक नया विमर्ष भी तैयार हुआ। पहली बार के प्रसारण में कोई निर्धारित विशय तो नहीं था पर जिस भांति देष के लोगों में सुनने की उत्सुकता थी उसे लेकर कहना सहज है कि एक नई परम्परा की प्रारम्भिकी रेडियो के माध्यम से आविश्कार का रूप ले चुकी थी। किसी भी प्रधानमंत्री का इस प्रकार का सम्बोधन देष में पहले कभी नहीं हुआ था। सबके बावजूद रोचक तथ्य यह है कि ऐसे सम्बोधन अब तक कितने असरदार सिद्ध हुए हैं? बहरहाल जब से ‘मन की बात‘ का सिलसिला षुरू हुआ प्रति माह की दर से यह निरन्तरता लिए हुए है। दूसरी बार इसका प्रसारण 2 नवम्बर, 2014 को हुआ था जिसमें काला धन, स्वच्छता अभियान आदि विशय इसके केन्द्र बिन्दु थे। हर बार एक नये विशय के साथ लगभग प्रतिमाह इसे देखा जा सकता है। बीते 26 जनवरी को गणतंत्र दिवस पर मुख्य अतिथि रहे अमेरिकी राश्ट्रपति बराक ओबामा के साथ 27 जनवरी को चैथी बार मोदी ने ‘मन की बात‘ के अन्तर्गत जनता के पत्रों का रेडियो के माध्यम से उत्तर दिया। कभी युवाओं, कभी परीक्षा में छात्रों का उत्साहवर्धन करते हुए तो कभी बेटी बचाओ जैसे सामाजिक सरोकारों वाले मुद्दे पर यह प्रसारण नियमित रूप लिये हुए है।
बीते दिनों ‘मन की बात‘ में विपक्ष को कुछ बातें खटक गयी। असल में चुनाव आयोग द्वारा बिहार में विधानसभा चुनाव की अधिसूचना जारी की जा चुकी है। भाजपा विरोधी महागठबंधन ने मोदी के ‘मन की बात‘ को आचार संहिता का उल्लंघन करार देते हुए 20 सितम्बर को होने वाले इस कार्यक्रम को लेकर चुनाव आयोग से रोकने की अपील की थी। हालांकि महागठबंधन की मांग पर चुनाव आयोग ने अपना रूख स्पश्ट कर दिया है। संकेत है कि कैबिनेट की बैठक और ‘मन की बात‘ जैसे कार्यक्रम पर रोक सम्भव नहीं है। जाहिर है विरोधी को यह रास नहीं आया होगा। दरअसल ‘मन की बात‘ का कार्यक्रम मोदी द्वारा खोज की गयी एक ऐसी अवधारणा है जो धीरे-धीरे व्यापक पैमाने पर पैर पसार चुकी है। अलग-अलग मुद्दों पर आधारित कार्यक्रम को लोकप्रियता भी भरपूर मात्रा में मिल रही है। ऐसे में चुनावी समर के दौरान इसका मुनाफा भी भाजपा को हो सकता है। इसी आषंका के चलते चुनाव तक इस पर रोक लगाने की गुहार विरोधियों द्वारा लगाई गयी थी। हालांकि अब तक ग्यारह बार हुए इस कार्यक्रम से कोई बड़ा राजनीतिक संदेष देखने को नहीं मिला पर इससे भी इंकार नहीं किया जा सकता कि आगे ऐसी ही निरंतरता बनी रहेगी। हो सकता है कि चुनावी परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए आने वाले दिनों में होने वाली ‘मन की बात‘ में मोदी ऐसा कुछ कहें जिससे मतदाताओं को प्रभावित करने में इसका इस्तेमाल दिखे। जिस प्रकार की राजनीतिक हलचल में पक्ष और विपक्ष की साख दांव पर लगी है उसे देखते हुए ‘मन की बात‘ को पूरी तरह वाजिब कहा जाना थोड़ा कठिन तो है पर चुनाव आयोग ने इस पर दो टूक राय दे दी है।
संदर्भ तो यह भी है कि पहले होने वाले ‘मन की बात‘ को लेकर विरोधी न तो तूल देते थे, न ही तवज्जो और न ही उनके मन में यह भय था कि मोदी की इन बातों से उनकी सियासी दांवपेंच पर कोई असर पड़ेगा। परिवर्तित परिस्थितियों को देखते हुए ‘मन की बात‘ के विरोध में अब विपक्ष की बात का उभार हुआ है। ऐसे में बखेड़ा यह खड़ा हो जाता है कि विपक्ष की ‘मन की बात‘ बनाम मोदी के ‘मन की बात‘ का जन मानस के पटल पर क्या चित्र बनेगा। इसमें कोई दो राय नहीं कि 15 महीने की मोदी सरकार 12वीं बार इस कार्यक्रम के अन्तर्गत जनता के समक्ष रूबरू होने जा रही है जिसका फलसफा एक नये विशय और विमर्ष के साथ जन भागीदारी का होना सुनिष्चित है। निष्चित तौर पर तो नहीं पर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि प्रधानमंत्री मोदी का रूख इस बार कुछ भिन्न हो सकता है और चुनाव आयोग से लेकर विरोधी तक जरूर इस बार रेडियो के इस कार्यक्रम पर कड़ी दृश्टि रख सकते हैं तथा उन पक्षों की पड़ताल भी इसमें षामिल हो सकती है जो मतदाताओं को रिझाने में इस्तेमाल की गयी हो। जहां तक लगता है मोदी एक चतुर षासक हैं स्थिति और परिस्थिति को भांपते हुए ऐसा षायद वे कुछ नहीं करेंगे जिससे कि विरोधियों को किसी प्रकार का अवसर मिले। यह भी सही है कि दिल्ली चुनाव हारने के बाद भाजपा के लिए बिहार चुनाव काफी हद तक नाक की लड़ाई भी है। सारे विरोधी जिस कदर एक होकर मोदी को चुनौती देने में लगे हैं इससे साफ है कि आरोप-प्रत्यारोप आगे भी खूब देखने को मिलेंगे।
देष की राजनीति में सियासत की जितनी बातें की जाती हैं यदि उसमें कुछ फीसदी देष की बात हो जाए तो इस प्रकार की जकड़न से सभी को मुक्ति मिल सकती है। सखाराम गणेष देउस्कर ने एक पुस्तक की रचना की जिसका नाम ‘देष की बात‘ है। सवाल है कि क्या मोदी के ‘मन की बात‘ में ‘देष की बात‘ षामिल नहीं है? बहुतायत में ऐसा देखा गया है कि जब सियासत को परवान चढ़ाना होता है तो हर प्रकार का पलटवार षामिल होता है। बेषक महागठबंधन का एतराज जायज न हो पर उनकी चिंता को पूरी तरह नाजायज भी नहीं कहा जा सकता। जदयू, राजद और कांग्रेस के चुनाव तक ‘मन की बात‘ के प्रसारण पर रोक लगाने की गुहार क्या पूरी तरह दरकिनार की जा सकती है? यद्यपि चुनाव आयोग की ‘मन की बात‘ क्या है ये आने वाले दिनों में और अधिक मुखर हो सकती है। विपक्ष के ‘मन की बात‘ बनाम मोदी के ‘मन की बात‘ का झगड़ा तो फिलहाल खड़ा ही है। ऐसे में एहतियात बरतने की जिम्मेदारी भी दोनों की है। चुनाव की अधिसूचना जारी होने से पहले ही मोदी बिहार में परिवर्तन रैली कर चुके हैं और काफी कुछ बातें मंच से भी कह चुके हैं। अभी दर्जन भर रैलियों के माध्यम से उन्हें ‘मन की बात‘ करनी भी है। मन की बात करना एक संवैधानिक अधिकार भी है अन्तर यह है कि यह कि कहीं गयी बात का परिप्रेक्ष्य क्या है। फिलहाल विरोधी का रूख बिहार जीत को लेकर राह आसान करने की है न कि मोदी क्या कहते हैं और क्यों कहते हैं पर है मगर वह यह भी जानते हैं कि चाहे मंच हो या रेडियो मोदी की बात का असर काफी हद तक लोगों को घर करता है। ऐसे में किसी बहाने सरकार या मोदी को घेरना और चुनावी मुनाफे की ओर स्वयं को ले जाना विरोधियों की मजबूरी भी षामिल है।
सुशील कुमार सिंह
निदेशक
रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन
एवं प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2710900, मो0: 9456120502
बीते दिनों ‘मन की बात‘ में विपक्ष को कुछ बातें खटक गयी। असल में चुनाव आयोग द्वारा बिहार में विधानसभा चुनाव की अधिसूचना जारी की जा चुकी है। भाजपा विरोधी महागठबंधन ने मोदी के ‘मन की बात‘ को आचार संहिता का उल्लंघन करार देते हुए 20 सितम्बर को होने वाले इस कार्यक्रम को लेकर चुनाव आयोग से रोकने की अपील की थी। हालांकि महागठबंधन की मांग पर चुनाव आयोग ने अपना रूख स्पश्ट कर दिया है। संकेत है कि कैबिनेट की बैठक और ‘मन की बात‘ जैसे कार्यक्रम पर रोक सम्भव नहीं है। जाहिर है विरोधी को यह रास नहीं आया होगा। दरअसल ‘मन की बात‘ का कार्यक्रम मोदी द्वारा खोज की गयी एक ऐसी अवधारणा है जो धीरे-धीरे व्यापक पैमाने पर पैर पसार चुकी है। अलग-अलग मुद्दों पर आधारित कार्यक्रम को लोकप्रियता भी भरपूर मात्रा में मिल रही है। ऐसे में चुनावी समर के दौरान इसका मुनाफा भी भाजपा को हो सकता है। इसी आषंका के चलते चुनाव तक इस पर रोक लगाने की गुहार विरोधियों द्वारा लगाई गयी थी। हालांकि अब तक ग्यारह बार हुए इस कार्यक्रम से कोई बड़ा राजनीतिक संदेष देखने को नहीं मिला पर इससे भी इंकार नहीं किया जा सकता कि आगे ऐसी ही निरंतरता बनी रहेगी। हो सकता है कि चुनावी परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए आने वाले दिनों में होने वाली ‘मन की बात‘ में मोदी ऐसा कुछ कहें जिससे मतदाताओं को प्रभावित करने में इसका इस्तेमाल दिखे। जिस प्रकार की राजनीतिक हलचल में पक्ष और विपक्ष की साख दांव पर लगी है उसे देखते हुए ‘मन की बात‘ को पूरी तरह वाजिब कहा जाना थोड़ा कठिन तो है पर चुनाव आयोग ने इस पर दो टूक राय दे दी है।
संदर्भ तो यह भी है कि पहले होने वाले ‘मन की बात‘ को लेकर विरोधी न तो तूल देते थे, न ही तवज्जो और न ही उनके मन में यह भय था कि मोदी की इन बातों से उनकी सियासी दांवपेंच पर कोई असर पड़ेगा। परिवर्तित परिस्थितियों को देखते हुए ‘मन की बात‘ के विरोध में अब विपक्ष की बात का उभार हुआ है। ऐसे में बखेड़ा यह खड़ा हो जाता है कि विपक्ष की ‘मन की बात‘ बनाम मोदी के ‘मन की बात‘ का जन मानस के पटल पर क्या चित्र बनेगा। इसमें कोई दो राय नहीं कि 15 महीने की मोदी सरकार 12वीं बार इस कार्यक्रम के अन्तर्गत जनता के समक्ष रूबरू होने जा रही है जिसका फलसफा एक नये विशय और विमर्ष के साथ जन भागीदारी का होना सुनिष्चित है। निष्चित तौर पर तो नहीं पर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि प्रधानमंत्री मोदी का रूख इस बार कुछ भिन्न हो सकता है और चुनाव आयोग से लेकर विरोधी तक जरूर इस बार रेडियो के इस कार्यक्रम पर कड़ी दृश्टि रख सकते हैं तथा उन पक्षों की पड़ताल भी इसमें षामिल हो सकती है जो मतदाताओं को रिझाने में इस्तेमाल की गयी हो। जहां तक लगता है मोदी एक चतुर षासक हैं स्थिति और परिस्थिति को भांपते हुए ऐसा षायद वे कुछ नहीं करेंगे जिससे कि विरोधियों को किसी प्रकार का अवसर मिले। यह भी सही है कि दिल्ली चुनाव हारने के बाद भाजपा के लिए बिहार चुनाव काफी हद तक नाक की लड़ाई भी है। सारे विरोधी जिस कदर एक होकर मोदी को चुनौती देने में लगे हैं इससे साफ है कि आरोप-प्रत्यारोप आगे भी खूब देखने को मिलेंगे।
देष की राजनीति में सियासत की जितनी बातें की जाती हैं यदि उसमें कुछ फीसदी देष की बात हो जाए तो इस प्रकार की जकड़न से सभी को मुक्ति मिल सकती है। सखाराम गणेष देउस्कर ने एक पुस्तक की रचना की जिसका नाम ‘देष की बात‘ है। सवाल है कि क्या मोदी के ‘मन की बात‘ में ‘देष की बात‘ षामिल नहीं है? बहुतायत में ऐसा देखा गया है कि जब सियासत को परवान चढ़ाना होता है तो हर प्रकार का पलटवार षामिल होता है। बेषक महागठबंधन का एतराज जायज न हो पर उनकी चिंता को पूरी तरह नाजायज भी नहीं कहा जा सकता। जदयू, राजद और कांग्रेस के चुनाव तक ‘मन की बात‘ के प्रसारण पर रोक लगाने की गुहार क्या पूरी तरह दरकिनार की जा सकती है? यद्यपि चुनाव आयोग की ‘मन की बात‘ क्या है ये आने वाले दिनों में और अधिक मुखर हो सकती है। विपक्ष के ‘मन की बात‘ बनाम मोदी के ‘मन की बात‘ का झगड़ा तो फिलहाल खड़ा ही है। ऐसे में एहतियात बरतने की जिम्मेदारी भी दोनों की है। चुनाव की अधिसूचना जारी होने से पहले ही मोदी बिहार में परिवर्तन रैली कर चुके हैं और काफी कुछ बातें मंच से भी कह चुके हैं। अभी दर्जन भर रैलियों के माध्यम से उन्हें ‘मन की बात‘ करनी भी है। मन की बात करना एक संवैधानिक अधिकार भी है अन्तर यह है कि यह कि कहीं गयी बात का परिप्रेक्ष्य क्या है। फिलहाल विरोधी का रूख बिहार जीत को लेकर राह आसान करने की है न कि मोदी क्या कहते हैं और क्यों कहते हैं पर है मगर वह यह भी जानते हैं कि चाहे मंच हो या रेडियो मोदी की बात का असर काफी हद तक लोगों को घर करता है। ऐसे में किसी बहाने सरकार या मोदी को घेरना और चुनावी मुनाफे की ओर स्वयं को ले जाना विरोधियों की मजबूरी भी षामिल है।
सुशील कुमार सिंह
निदेशक
रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन
एवं प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
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