Saturday, September 12, 2015

नब्बे के दशक के बाद की राजनीति

    भारतीय राजव्यवस्था का इतिहास विचित्र और रोचक दोनों किस्म समेटे हुए है। विचित्र इसलिए कि 65 बरस की उम्र के बावजूद राजव्यवस्था में उन घटकों का निर्माण नहीं हो पाया जहां से संघीय ढांचे को पूरा बल मिलता हो जबकि रोचक इसलिए कि इसमें ऐसा इतिहास सिमटा है जहां कई सोपान व उतार-चढ़ाव षामिल हैं। यह कभी परिपक्व तो कभी गैर परिपक्व का बर्ताव करती रही है। इस सच से भी कोई इंकार नहीं करेगा कि भारतीय राजव्यवस्था के विभिन्न स्तरों के बीच एक सांगठनिक सिद्धांत के तौर पर संघवाद का विचार बहुत प्राचीन है। भारत राज्यों का संघ है और यहीं से संघवाद की मजबूत लकीर खिंचती है। यहां यह रेखांकित करना महत्वपूर्ण है कि जिस संघवाद की परिकल्पना संविधान में निहित थी वह तभी सफल हो सकता है जब लोकतंत्र की आधारषिला व्यापक हो और उसकी जड़ें गहरी हों। देष में लोकतांत्रिक अवधारणा समय के साथ प्रबल और सक्षम होती गयी पर यह सबलता मतदान दर के दायरे में सिमटी रही जबकि असल लोकतांत्रिक चेतना का आभाव इसलिए माना जा सकता है क्योंकि लोक प्रवर्धित अवधारणा का अभी पूरा विस्तार भारत में हुआ ही नहीं है। मत प्रतिषत के आधार पर लोकतंत्र को मजबूत और मनमाफिक कहना समुचित प्रतीत नहीं होता। दरअसल जनता उस पैमाने पर ताकतवर नहीं बन पाई जिस पैमाने पर लोकतंत्र की अवधारणा गढ़ी गयी है। परिप्रेक्ष्य तो यह भी है कि राज्य सरकारें केन्द्र सरकारों का अटूट हिस्सा आज भी नहीं बन पायी हैं। इतना ही नहीं दलीय स्थिति केन्द्र और राज्य के बीच की संघीय स्थिति को तय करती है। केन्द्र और राज्य में एक ही दल की सरकारें हैं तो संघीय ढांचा मजबूत होगा यदि ऐसा नहीं है तो ढांचा कमजोर होगा पर क्या यह पूरा सच है?
    1990 के बाद के काल में भारतीय केन्द्रीय राजनीति में गठबंधन युग की क्रमिक षुरूआत हो चुकी थी। इसी की परिधि में मन्दिर, मण्डल और मार्केट की राजनीति भी घूर्णन कर रही थी। इस बदली फिजा का हाल यह था कि राज्यों की क्षेत्रीय पार्टियों का केन्द्र में दखल बढ़ गया था। राज्य तय करने लगे थे कि केन्द्र की सत्ता की बागडोर किसके हाथ में होगी। इन्हीं दिनों उत्तर प्रदेष से मुलायम सिंह और बिहार से लालू प्रसाद यादव का कद भारतीय राजनीति में फलक पर था और दोनों मुख्यमंत्री के पद पर भी आसीन थे और यह सिलसिला बरसों तक चला जबकि केन्द्र में वी.पी. सिंह तत्पष्चात् चन्द्रषेखर और दूसरी पारी में एच.डी. देवगोड़ा तथा इन्द्र कुमार गुजराल प्रधानमंत्री के तौर पर संघीय सत्ता के अभ्यास में जुटे थे। सियासत का चेहरा कभी स्याह तो कभी चमकदार देखने को मिलता रहा है। संविधान ने सभी को अपना काम बाखूबी बताया है। केन्द्र को क्या करना है और राज्य क्या कर सकते हैं सुनिष्चित किया गया है। हालांकि संघीय अवधारणा हर हाल में केन्द्र उन्मुख है। वक्त के साथ सियासत थोड़ी मटमैली भी होती गयी। इसका मूल कारण लोकतंत्र में जात-पात और धर्म का खूब अनुप्रयोग होना था। हैरत तो इस बात की रही है कि जो जिस जाति से था उसका नेता बना हुआ था। जातियों के नाम पर ध्रुवीकरण करने में उत्तर प्रदेष और बिहार के नेता अगुवा के रूप में थे जिसमें मुलायम सिंह, मायावती और लालू प्रसाद का उदाहरण गैर वाजिब नहीं होगा। इतना ही नहीं जातीय सियासत के खेल में रचे बसे प्रदेषों ने नये-नये अवतारों को जन्म दिया पर इस सच से अनभिज्ञ रहे कि प्रदेष का विकास और जनता की इच्छा क्या है? जाति वोट हथियाने का एक अच्छा जरिया बनी आज भी इसे आजमाने से नेता नहीं चूकते।
     मौजूदा स्थिति में भारत की राजनीति कई बदलाव के साथ यहां तक पहुंची है। नब्बे के दषक से अब तक क्रमिक रूप से गठबंधन एवं महागठबंधन की सरकार और अब पूर्ण बहुमत की सरकार को रेखांकित होते हुए देखा जा सकता है। एक बात स्पश्ट करना मुनासिब लगता है कि जब मई, 2014 में लोकसभा चुनाव के नतीजे आये तो षायद ही किसी को उम्मीद रही हो कि भाजपा को पूरा बहुमत मिलेगा। इस चुनाव का सकून वाला पक्ष यह है कि काफी हद तक जातीय ध्रुवीकरण से यह विमुख था पर जब यही चुनाव प्रदेष स्तर पर होता है तो जातीय ध्रुवीकरण मुखर हो जाता है। चारा घोटाले में फंसे लालू प्रसाद की राजनीतिक यात्रा कब की समाप्त हो चुकी है पर सियासत की बिसात पर वंषवाद को उकेरने का विचार उनका थमा नहीं। सियासत की मजबूरी में अटके लालू प्रसाद आने वाली पीढ़ी के लिए सत्ता की जमीन तैयार करना चाहते हैं जबकि बिहार के राजनीतिक गलियारे में यह आरोप-प्रत्यारोप रहे हैं कि लालू और राबड़ी के कार्यकाल में बिहार का बेड़ा गर्क हुआ है। नीतीष कुमार लालू विरोध में ही सत्ता हथियाए थे आज उन्हीं के साथ सत्ता में काबिज रहना चाहते हैं। अगड़ा-पिछड़ा, दलित-महादलित, सुषासन-कुषासन आदि के आधार पर सियासत की रोटी सेकने का कारोबार आज भी जारी है। किसी भी राजनेता पर कितनी उंगली उठाई जाए इसे एक बार में तय नहीं किया जा सकता। अगर क्षेत्रीयता को हम कांग्रेस पार्टी के सांगठनिक चरित्र के तौर पर देखते हैं तो हमें भारतीय राजनीति का एक अलग ही संयोग और प्रयोग देखने को मिलता है। जिस कदर कांग्रेस क्षेत्रीय पार्टियों के साथ प्रादेषिक स्तर के चुनाव में ताल ठोंक रही है उससे उसकी व्यथा को बाखूबी समझा जा सकता है। भारतीय राजनीति के इतिहास में कांग्रेस के इतने बुरे दिन कभी नहीं आये थे। उत्तर प्रदेष और बिहार में कांग्रेस नब्बे के दषक से ही मिटती रही है और अब लोकसभा में भी हाषिये पर खड़ी है। बावजूद इसके एक अन्तर कांग्रेस में यह है कि इसने जाति की राजनीति उस पैमाने पर नहीं कि जिस पैमाने पर लालू, मुलायम और मायावती जैसे लोगों ने की है।
    नब्बे और बाद के दषक में तो क्षेत्रीय राजनीति इतनी मजबूत हो गयी कि उसने कई बार देष की विदेष नीति तक पर प्रभाव डालने की कोषिष कर दी। बहुत दिन नहीं हुए जब यूपीए-2 के दरमियान पष्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के साथ बांग्लादेष जाने को तैयार नहीं हुईं क्योंकि तीस्ता जल बंटवारे के मामले में अनबन थी। हालांकि वर्तमान हालात भी कम खराब नहीं है। प्रधानमंत्री मोदी के नीति आयोग की बैठक में पष्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री की उपस्थिति यहां भी नहीं थी। यह केन्द्रीय और क्षेत्रीय सियासत की एक जंग है जो न समाप्त हो सकती है और न ही इसके आसार दिखाई देते हैं। राज्य को लोकतांत्रिक होने की प्रवृत्ति उसके विकास को तय करती है पर अति क्षेत्रीय होने या बुजुर्वा होने या फिर विरासत की मान्यता से सत्ता चलाने वालों के लिए उक्त बातें बेमानी होती हैं। गौरतलब है कि भारत एक ऐसी अर्धसंघीय स्थिति वाला देष है जहां जिम्मेदारी बंटने के बावजूद घालमेल की सम्भावना बनी रहती है। मसलन कार्यकारी और वित्तीय मामले में ऐसा होता रहा है। यहां महत्वपूर्ण है कि मुद्दों पर सौदेबाजी न करते हुए विकास के खेल को खेला जाये तो लोकतंत्र भी मजबूत होगा और जनता भी सुखी होगी। भारतीय लोकतंत्र के सुदृढ़ीकरण का काम फिलहाल अभी अधूरा है यह तभी पूरा होगा जब संविधान के बुनियादी मूल्य और इसके स्वरूपों के प्रति सम्मान बढ़े न कि सियासत की चाह में असल मकसद को ही नजरअंदाज करें।

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन
एवं  प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2710900, मो0: 9456120502


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