मौसम विभाग के अनुमान को देखें तो जून से षुरू होने वाला मानसून 30 सितम्बर तक कायम रहता है पर इस साल सितम्बर माह षुरू होते ही यह उजाड़ की स्थिति में है। बचे हुए दिन में अच्छी बारिष के आसार फिलहाल तो बहुत कम है। पिछले 5 वर्शों में वर्श 2013 के मानसून को छोड़ दिया जाए तो बारिष के हालात देष में अच्छे नहीं रहे। पिछले 2 वर्शों से होने वाली मानसूनी गिरावट माथे पर बल लाने वाली है। लगातार कमजोर मानसून होने का क्या मतलब है? इसकी पड़ताल करके इससे पड़ने वाले प्रभावों का लेखा-जोखा करना भी जरूरी है। विगत् मार्च-अप्रैल में फसलें बेमौसम बारिष के चलते बर्बाद हुईं और अब बारिष के मौसम में यही फसलें चुल्लु भर पानी के लिए तरस रही हैं। भारत को कृशि प्रधान देष कहा जाता है आज भी 65 फीसदी आबादी खेती पर ही निर्भर रहती है बावजूद इसके यह क्षेत्र सबसे पिछड़ा है। किसानों की समस्याओं पर ध्यान देने की फुर्सत न तो सरकार को है और न ही इनके हिमायतियों को पर इस आरोप को दोनों खारिज करेंगे जरूर। जो राजनीतिक दल किसानों और खलिहानों की राजनीति करके अपने वोट दर मजबूत करने में मषगूल हैं उन्हें भी यह चेत नहीं है कि किसान गम्भीर झंझवात में फंसने के चलते दम तोड़ रहा है। केन्द्रीय खूफिया विभाग ने भी हाल ही में किसानों की आत्महत्या के बढ़ते मामले पर एक रिपोर्ट सरकार को दी थी जिसमें आत्महत्या की वजह प्राकृतिक भी है और कृत्रिम भी। असमान बारिष, ओलावृश्टि, सिंचाई की दिक्कतें, सूखा और बाढ़ को प्राकृतिक वजह की श्रेणी में रखा गया जबकि कीमतें तय करना, नीतियां बनाना और विपणन के कार्य को मानव निर्मित वजह बताई गयी है।
किसानों की आत्महत्या के जारी आंकड़ों को भी झुठलाने में रसूकदार आगे हैं। ताजा हाल यह है कि महाराश्ट्र का मराठवाड़ा इलाका हाल के वर्शों में सबसे ज्यादा सूखे की चपेट में रहा है। यहां जीवन यापन के भीशण खतरे उत्पन्न हो चुके हैं और अकेले बीड़ जिले में बीते अगस्त में 105 किसानों ने आत्महत्या कर ली। जिसके चलते इस साल तक का आंकड़ा अब 177 का हो गया। अनुमान तो यह भी जताते हैं कि देष में हर 30 मिनट में एक किसान आत्महत्या करता है। इस आधार पर प्रत्येक दिन 48 अन्नदाता अपनी जान देने में समर्थ हैं। वर्श 2014 भी किसानों की आत्महत्या में बढ़ोत्तरी वाला ही था। गणना बताती है कि लगातार 12 वर्शों से महाराश्ट्र इस मामले में अव्वल बना हुआ है। पिछले दो दषक में 3 लाख से अधिक किसान आत्महत्या कर चुके हैं और इसकी बड़ी वजह भूख के साथ कर्ज का लगातार बढ़ना भी है। बैंकों से कर्ज की खास सुविधा नहीं होने की वजह से सूदखोरों एवं महाजनों पर इनकी निर्भरता ने इन्हें कहीं का नहीं छोड़ा। 25 से 50 फीसदी की दर पर कर्ज लेकर किसान तबाही के उस मंजर तक पहुंच गये हैं जहां से स्वयं से लौटने की ताकत तो उनमें षायद नहीं है। विडम्बना यह है कि फसल न हो तो और अधिक हो जाए तो दोनों परिस्थितियों में किसान दर्द से जूझता है। पिछले सात दषकों में किसान नीति पर फुर्सत से काम नहीं किया गया। बहुत सारी कृशि से सम्बन्धित सरकारी नियोजन आये पर किसानों के हितों को संरक्षित नहीं कर पाये। विषाल आंकड़ों के दबाव में किसान दबता चला गया और पारदर्षी नीति के आभाव में उसके हाथ खाली ही रह गये।
किसानों के मामले में सरकारों की नीतियां बेषक ढुलमुल रही हैं। किसानों की आत्महत्या से जुड़े आंकड़ों में भी काफी लीपापोती होती है। राश्ट्रीय अपराध रिकाॅर्ड ब्यूरो के आंकड़ों पर षायद ही कोई विष्वास करता हो। स्वयं ब्यूरो भी विष्वास करने में ईमानदारी से कतरा सकता है। किसानों की मुष्किलें बड़ी हैं और तादाद में भी ज्यादा हैं ऐसे में कृशि और किसान दोनों को प्राथमिकता में रखना कहीं अधिक जरूरी है जबकि नजारा यह है कि कृशि जो प्राथमिक सेक्टर में आती है वह भारत में गैर गम्भीर नजरिए से देखी जा रही है। सरकारों ने कृशि और किसानों के लिए एड़ी चोटी का जोर नहीं लगाया। खामियाजा यह है कि किसान अपना पूरा सामथ्र्य स्वयं को समाप्त करने में लगा रहा है। फसल की बर्बादी हो तो आत्महत्या, कर्ज का बोझ बढ़ जाए तो आत्महत्या, परिवार का लालन-पालन करने में नाकाम हो तो आत्महत्या यदि इन सब से बच भी गया तो भूख से पीछा नहीं छुड़ा पाता। फसलों की कीमतें तय करने के मामले में भी अचूक रणनीति देखने को नहीं मिलती। बीते मंगलवार को प्रधानमंत्री मोदी ने अपने आवास पर देष के षीर्श उद्योगपतियों के साथ बैठक की जिसमें कई मंत्री भी षामिल हुए। बैठक में खेती, किसानी पर खूब चर्चा हुई, उद्योगपतियों को निवेष के सुझाव भी दिये गये। दिलचस्प यह है कि इस बैठक में न ही कोई किसान नेता था और न ही उनका कोई प्रतिनिधि। मोदी ने कहा अब वक्त आ गया है खेतीबाड़ी, सिंचाई सुविधाओं के साथ खाद्य प्रसंस्करण उद्योग पर भी निवेष किया जाए। यह देखने वाली बात होगी कि काॅरपोरेट के साथ खलिहान सेक्टर को जोड़ने की मोदी की कवायद भविश्य में किसानों का कितना भला करती है।
पन्द्रह माह पुरानी मोदी सरकार किसानों के मामले में गम्भीर और चिंतित तो रही है पर कोई खास योजना अभी धरातल पर देखने को नहीं मिली। वजह जल्दी तलाषनी होगी ताकि किसान भूख से न मरे। तमाम आधुनिक उपकरण होने के बावजूद खेत-खलिहान का अधिक पिछड़ा होना सही नहीं है। ऐसा नहीं है कि समस्याएं पिछड़े राज्यों में ही हैं बल्कि कहा जाए तो जहां-जहां किसान हैं कम-ज्यादा सभी स्थानों पर भूख और आत्महत्या के षिकार हैं। हैरतपूर्ण बात है कि जो प्रदेष पैदावार में और फसलों की परवरिष में कुछ बेहतर हैं वहां भी आत्महत्या का सिलसिला थमा नहीं है। पंजाब, गुजरात, मध्यप्रदेष, उत्तर प्रदेष और तमिलनाडु इसमें क्रमिक रूप से षामिल हैं। ऐसे मामले प्रति वर्श की दर से लगातार बढ़ भी रहे हैं जबकि सरकारें सांत्वना के साथ छोटा-मोटा मुआवजा और राहत पैकेज का एलान कर अपने दायित्व से मुक्त हो जाती हैं पर समस्या जस की तस बनी रहती है। आत्महत्या का चक्र तो जारी रहता है फर्क यह है कि सिर्फ चेहरे बदलते रहते हैं। मानसून का कमजोर होना केवल कम बारिष की ही समस्या नहीं है बल्कि किसानों की मौत की आहट भी है। क्या इस आहट को समय रहते सुना जा सकता है। जिस प्रकार की देषीय राजनीति है और जिस भांति किसान हाषिये पर हैं उसे देखते हुए उम्मीद करना बेमानी है। जिस कदर भारत में किसान टूटकर आत्महत्या कर रहा है इससे यह संकेत मिलता है कि अन्नदाताओं का जीवन निहायत कम कीमत का है। अचरज तो यह भी है कि आंकड़ों की बाजीगरी में मौतों की संख्या घटा दी जाती है। मुआवजे इतने कम होते हैं कि उससे लेष मात्र की समस्या भी हल नहीं की जा सकती और पीड़ा से जकड़ा किसान कराह कर रह जाता है। सवाल है कि आखिर कब तक किसान मरते रहेंगे, षायद ही किसी सरकार ने किसानों को मन माफिक कुछ दिया हो पर सच यह है कि किसानों से वोट लेकर पूरी सत्ता जरूर कब्जाई जाती रही है।
लेखक, वरिश्ठ स्तम्भकार एवं रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन के निदेषक हैं
सुशील कुमार सिंह
निदेशक
प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्ससाइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2710900, मो0: 9456120502
किसानों की आत्महत्या के जारी आंकड़ों को भी झुठलाने में रसूकदार आगे हैं। ताजा हाल यह है कि महाराश्ट्र का मराठवाड़ा इलाका हाल के वर्शों में सबसे ज्यादा सूखे की चपेट में रहा है। यहां जीवन यापन के भीशण खतरे उत्पन्न हो चुके हैं और अकेले बीड़ जिले में बीते अगस्त में 105 किसानों ने आत्महत्या कर ली। जिसके चलते इस साल तक का आंकड़ा अब 177 का हो गया। अनुमान तो यह भी जताते हैं कि देष में हर 30 मिनट में एक किसान आत्महत्या करता है। इस आधार पर प्रत्येक दिन 48 अन्नदाता अपनी जान देने में समर्थ हैं। वर्श 2014 भी किसानों की आत्महत्या में बढ़ोत्तरी वाला ही था। गणना बताती है कि लगातार 12 वर्शों से महाराश्ट्र इस मामले में अव्वल बना हुआ है। पिछले दो दषक में 3 लाख से अधिक किसान आत्महत्या कर चुके हैं और इसकी बड़ी वजह भूख के साथ कर्ज का लगातार बढ़ना भी है। बैंकों से कर्ज की खास सुविधा नहीं होने की वजह से सूदखोरों एवं महाजनों पर इनकी निर्भरता ने इन्हें कहीं का नहीं छोड़ा। 25 से 50 फीसदी की दर पर कर्ज लेकर किसान तबाही के उस मंजर तक पहुंच गये हैं जहां से स्वयं से लौटने की ताकत तो उनमें षायद नहीं है। विडम्बना यह है कि फसल न हो तो और अधिक हो जाए तो दोनों परिस्थितियों में किसान दर्द से जूझता है। पिछले सात दषकों में किसान नीति पर फुर्सत से काम नहीं किया गया। बहुत सारी कृशि से सम्बन्धित सरकारी नियोजन आये पर किसानों के हितों को संरक्षित नहीं कर पाये। विषाल आंकड़ों के दबाव में किसान दबता चला गया और पारदर्षी नीति के आभाव में उसके हाथ खाली ही रह गये।
किसानों के मामले में सरकारों की नीतियां बेषक ढुलमुल रही हैं। किसानों की आत्महत्या से जुड़े आंकड़ों में भी काफी लीपापोती होती है। राश्ट्रीय अपराध रिकाॅर्ड ब्यूरो के आंकड़ों पर षायद ही कोई विष्वास करता हो। स्वयं ब्यूरो भी विष्वास करने में ईमानदारी से कतरा सकता है। किसानों की मुष्किलें बड़ी हैं और तादाद में भी ज्यादा हैं ऐसे में कृशि और किसान दोनों को प्राथमिकता में रखना कहीं अधिक जरूरी है जबकि नजारा यह है कि कृशि जो प्राथमिक सेक्टर में आती है वह भारत में गैर गम्भीर नजरिए से देखी जा रही है। सरकारों ने कृशि और किसानों के लिए एड़ी चोटी का जोर नहीं लगाया। खामियाजा यह है कि किसान अपना पूरा सामथ्र्य स्वयं को समाप्त करने में लगा रहा है। फसल की बर्बादी हो तो आत्महत्या, कर्ज का बोझ बढ़ जाए तो आत्महत्या, परिवार का लालन-पालन करने में नाकाम हो तो आत्महत्या यदि इन सब से बच भी गया तो भूख से पीछा नहीं छुड़ा पाता। फसलों की कीमतें तय करने के मामले में भी अचूक रणनीति देखने को नहीं मिलती। बीते मंगलवार को प्रधानमंत्री मोदी ने अपने आवास पर देष के षीर्श उद्योगपतियों के साथ बैठक की जिसमें कई मंत्री भी षामिल हुए। बैठक में खेती, किसानी पर खूब चर्चा हुई, उद्योगपतियों को निवेष के सुझाव भी दिये गये। दिलचस्प यह है कि इस बैठक में न ही कोई किसान नेता था और न ही उनका कोई प्रतिनिधि। मोदी ने कहा अब वक्त आ गया है खेतीबाड़ी, सिंचाई सुविधाओं के साथ खाद्य प्रसंस्करण उद्योग पर भी निवेष किया जाए। यह देखने वाली बात होगी कि काॅरपोरेट के साथ खलिहान सेक्टर को जोड़ने की मोदी की कवायद भविश्य में किसानों का कितना भला करती है।
पन्द्रह माह पुरानी मोदी सरकार किसानों के मामले में गम्भीर और चिंतित तो रही है पर कोई खास योजना अभी धरातल पर देखने को नहीं मिली। वजह जल्दी तलाषनी होगी ताकि किसान भूख से न मरे। तमाम आधुनिक उपकरण होने के बावजूद खेत-खलिहान का अधिक पिछड़ा होना सही नहीं है। ऐसा नहीं है कि समस्याएं पिछड़े राज्यों में ही हैं बल्कि कहा जाए तो जहां-जहां किसान हैं कम-ज्यादा सभी स्थानों पर भूख और आत्महत्या के षिकार हैं। हैरतपूर्ण बात है कि जो प्रदेष पैदावार में और फसलों की परवरिष में कुछ बेहतर हैं वहां भी आत्महत्या का सिलसिला थमा नहीं है। पंजाब, गुजरात, मध्यप्रदेष, उत्तर प्रदेष और तमिलनाडु इसमें क्रमिक रूप से षामिल हैं। ऐसे मामले प्रति वर्श की दर से लगातार बढ़ भी रहे हैं जबकि सरकारें सांत्वना के साथ छोटा-मोटा मुआवजा और राहत पैकेज का एलान कर अपने दायित्व से मुक्त हो जाती हैं पर समस्या जस की तस बनी रहती है। आत्महत्या का चक्र तो जारी रहता है फर्क यह है कि सिर्फ चेहरे बदलते रहते हैं। मानसून का कमजोर होना केवल कम बारिष की ही समस्या नहीं है बल्कि किसानों की मौत की आहट भी है। क्या इस आहट को समय रहते सुना जा सकता है। जिस प्रकार की देषीय राजनीति है और जिस भांति किसान हाषिये पर हैं उसे देखते हुए उम्मीद करना बेमानी है। जिस कदर भारत में किसान टूटकर आत्महत्या कर रहा है इससे यह संकेत मिलता है कि अन्नदाताओं का जीवन निहायत कम कीमत का है। अचरज तो यह भी है कि आंकड़ों की बाजीगरी में मौतों की संख्या घटा दी जाती है। मुआवजे इतने कम होते हैं कि उससे लेष मात्र की समस्या भी हल नहीं की जा सकती और पीड़ा से जकड़ा किसान कराह कर रह जाता है। सवाल है कि आखिर कब तक किसान मरते रहेंगे, षायद ही किसी सरकार ने किसानों को मन माफिक कुछ दिया हो पर सच यह है कि किसानों से वोट लेकर पूरी सत्ता जरूर कब्जाई जाती रही है।
लेखक, वरिश्ठ स्तम्भकार एवं रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन के निदेषक हैं
सुशील कुमार सिंह
निदेशक
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