Monday, December 12, 2022

आर्थिक आरक्षण मूल ढांचे का उल्लंघन नहीं

जो सामान्य श्रेणी के हैं मगर आर्थिक रूप से कमजोर हैं उनके लिए 10 फीसद आरक्षण देने का प्रावधान साल 2019 में किया गया था। जाहिर है इसमें अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति व अन्य पिछड़ा वर्ग षामिल नहीं है। गौरतलब है इनके लिए पहले से ही आरक्षण का प्रावधान देखा जा सकता है। दोनों में अंतर यह है कि एससी, एसटी और ओबीसी के लिए सामजिक व षैक्षणिक पिछड़े के कारण यह सुविधा मिली हुई है। गौरतलब है कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 15 व 16 में सामाजिक, षैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए 27 फीसद आरक्षण का प्रावधान 1993 से क्रियान्वित किया गया है। बषर्ते यह सिद्ध किया जा सके कि वे अन्य वर्गों के मुताबिक उक्त मामले में पिछड़े हैं अर्थात् क्रीमी लेयर में नहीं हैं। अब एक नई व्यवस्था के अन्तर्गत 14 जनवरी 2019 से लागू आर्थिक आरक्षण का प्रावधान को भी षीर्श अदालत ने सही ठहरा दिया है। ध्यानतव्य हो कि संविधान के 103वें संषोधन के तहत सवर्णों में आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (ईडब्ल्यूएस) के लिए 10 फीसद आरक्षण के मामले को षीर्श अदालत में चुनौती दी गयी थी जिसमें यह सवाल संलग्न था कि यह प्रावधान संविधान के मूल ढांचे का उल्लंघन करता है। यह मामला इतना गम्भीर समझा गया कि इसमें 40 याचिकायें दायर की गयी थी जिसमें सभी का तर्क कमोबेष मूल ढांचे से ही सम्बंधित था। न्याय की दहलीज पर दूध का दूध और पानी का पानी करना षीर्श अदालत का स्वभाव रहा है। इस मामले में भी सुप्रीम कोर्ट ने अपनी मुहर लगाकर फिलहाल मामले को न्याय में तब्दील कर दिया है। हालांकि 1992 के इन्दिरा साहनी बनाम भारत संघ मामले में षीर्श अदालत ने आरक्षण को लेकर लक्ष्मण रेखा खींची थी। पहला यह कि जाति आधारित आरक्षण की अधिकतम सीमा 50 फीसद तय की, दूसरा आर्थिक आधार पर आरक्षण दिया जाना संविधान में उल्लेखित समता के मूल अधिकार का उल्लंघन है जिसमें यह भी स्पश्ट था कि संविधान के अनुच्छेद 16(4) में आरक्षण का प्रावधान समुदाय के लिए है न कि व्यक्ति के लिए। गौरतलब है कि 1991 में पीवी नरसिम्हा राव की सरकार ने जब आर्थिक आधार पर 10 फीसद आरक्षण के प्रस्ताव को लेकर आगे बढ़ना चाह राह थी तब षीर्श अदालत की 9 सदस्यीय पीठ ने इसे खारिज किया था।
फिलहाल आरक्षण के इस मुद्दे पर सितम्बर 2022 में पांच सदस्यीय संविधानपीठ का गठन हुआ और इस पर सुनवाई षुरू की गयी। गरीब सवर्णों के आरक्षण को सुप्रीम कोर्ट ने कायम रखते हुए बीते 7 नवम्बर को फैसला सुना दिया और स्पश्ट कर दिया कि आरक्षण की यह व्यवस्था कायम रहेगी। हालांकि प्रधान न्यायाधीष समेत दो जजो ने इस पर असहमति जताई और पांच जजों की पीठ में तीन ने इसके पक्ष में अपनी राय दी। अन्ततः इस पर मुहर लग गयी। इसी के साथ राजनीतिक हलकों में सियासत भी नया रूप लेने लगी। गौरतलब है कि राश्ट्रीय जनता दल, डीएमके जैसे दल ने संसद में इस विधेयक का विरोध किया था जबकि आम आदमी पार्टी, सीपीआई व एआईडीएमके ने वोटिंग के दौरान वॉकऑउट किया। देखा जाये तो षीर्श अदालत के इस फैसले के बाद मोदी सरकार की नीतिगत जीत हुई है और वर्ग विषेश में जो अनिष्चितता व्याप्त थी वह भी विराम ले लिया है। विरोध वाला सुर यह है कि आरक्षण के प्रावधान का अर्थ सामाजिक पिछड़ेपन को दूर करना न कि आर्थिक विशमता का समाधान करना है। अपने पूर्व के फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने भी कहा था कि संविधान में आरक्षण सामाजिक गैर बराबरी को दूर करने के इरादे से रखा गया है। लिहाजा इसका इस्तेमाल गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम के रूप में नहीं किया जा सकता। ईडब्ल्यूएस आरक्षण के अन्तर्गत वे सवर्ण षामिल हैं जिनकी परिवार की आय सालाना आठ लाख रूपए से कम, कृशि योग्य भूमि पांच एकड़ से अधिक न हो, हजार फुट से कम साइज़ का घर हो इसके अलावा अधिसूचित नगर पालिका व गैर अधिकसूचित पालिका में क्रमषः 100 गज और 200 गज से कम का प्लॉट निर्धारित है।
भारत में आरक्षण एक सामाजिक सच है और इस मान्यता पर भी आधारित हो चला है कि इस प्रावधान से ही प्रगति का रास्ता खुलेगा। दरअसल एक सच्चाई यह भी है कि वोट की राजनीति ने भी आरक्षण को एक संवेदनषील मुद्दा बना दिया है। सवर्ण जातियों को भाजपा अपना मजबूत वोट बैंक मानती है हालांकि मौजूदा सरकार जिस पैमाने पर संख्या बल के मामले में है वह सभी के प्राप्त वोटों का ही जोड़ है। आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों को आरक्षण के पीछे सरकारों की नीतियां भी कमोबेष दोशी रही हैं। दुविधा यह है कि जिन सरकारों को विकास का दरिया बहाकर आरक्षण प्राप्त वर्गों को बिना आरक्षण के ही मजबूत आधार दे देना चाहिए, यह सोच तो दूर की कौड़ी सिद्ध हो रही है बल्कि जो सवर्ण आर्थिक रूप से स्वयं को सबल बनाने में पहले से ही सक्षम रहे उसे भी अब आरक्षण देना पड़ रहा है। वैसे इसका एक दूसरा पहलू यह भी है कि आर्थिक मापदण्डों के आधार पर आरक्षण प्रदान करना समाज में एकीकृत करने की दिषा में एक कदम भी है जिसमें धारा से छिन्न-भिन्न हो रहे लोगों को फिर से मुख्य प्रवाह में लाना इसमें षामिल देखा जा सकता है। दो टूक यह भी है कि मुख्य विपक्षी कांग्रेस ने भी सुप्रीम कोर्ट के फैसले का स्वागत किया है। निहित परिप्रेक्ष्य यह भी है कि आरक्षण षब्द कई तर्क को विकसित करते हैं मगर सच यह है कि समतामूलक दृश्टिकोण के बगैर भी भारत मजबूत नहीं होगा और इसके लिए आरक्षण आवष्यक भी हो जाता है।
आर्थिक रूप से दिया जाने वाला आरक्षण होना चाहिए या नहीं यह न्यायाधीषों के बीच सहमति व असहमति से समझा जा सकता है। सहमत न्यायाधीषों की ओर से जो कथन दिखते हैं उसमें यह सामाजिक आर्थिक असमानता खत्म करने के लिए है मगर इसका तात्पर्य यह नहीं कि यह अनंतकाल तक रहना चाहिए। इसे आर्थिक रूप से कमजोर तबके को मदद पहुंचाने के रूप में देखा जाये ऐसे में इसे अनुचित नहीं कहा जा सकता। जबकि सहमति के पक्ष में तीसरा कथन यह है कि केवल आर्थिक आधार पर आरक्षण संविधान के मूल ढांचे और समता के अधिकार का उल्लंघन नहीं करता है जबकि असहमति के अन्तर्गत यह कथन भी काफी प्रभावषाली है कि 103वां संविधान संषोधन संविधान के बुनियादी ढांचे का उल्लंघन है। संविधानिक रूप से निशिद्ध भेदभाव को बढ़ावा देता है और समानता पर आघात है। यह कथन न्यायमूर्ति एस रविन्द्र भट का है जिस पर प्रधान न्यायाधीष ने भी अपनी सहमति जताई। फिलहाल न्यायाधीषों के कथन की समीक्षा के आलोक में कुछ भी बहुत मजबूती से ढ़ूंढ़ पाना षायद सभी के लिए कठिन होगा मगर इस सच्चाई से कोई अनभिज्ञ नहीं है कि देष की षीर्श अदालत ने सवर्णों के प्रावधान किए गये 10 फीसद आरक्षण को सही ठहराया। आरक्षण की नई व्यवस्था यह भी दर्षाती है कि 75 साल की आजादी से भरे भारत में विकासात्मक नीतियां उस आधार को तय करने में अभी भी कमतर हैं जहां से सभी के लिए समुचित राह मिल सके। ऐसे में आरक्षण एक ऐसा नियोजन बन जाता है जो ‘साथी हाथ बढ़ाना‘ को चरितार्थ करता है।

दिनांक : 22/11/2022



डॉ0 सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाउंडेशन ऑफ पॉलिसी एंड एडमिनिस्ट्रेशन
लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर
देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)
मो0: 9456120502

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