Monday, December 12, 2022

मजबूत दावों के बीच बेलगाम कार्बन उत्सर्जन

जब कभी विकास की ओर कोई नई प्रगति होती है तो उसका सीधा असर पर्यावरण को होता है और यही असर एक आदत का रूप ले ले तो दुश्प्रभाव की पूरी सम्भावना बन जाती है और ऐसे दुश्प्रभाव को समय रहते समाधान न दिया जाये तो पृथ्वी और उसके जीव, अस्तित्व को लेकर एक नई चुनौती से गुजरने लगते हैं। वैष्विक स्तर पर बढ़ रहे कार्बन उत्सर्जन ने ऐसी ही चुनौतियों को विष्व के सम्मुख लाकर खड़ा कर दिया है। हालांकि यह नई परिघटना नहीं है मगर हालात बिगड़े न इसे लेकर बरसों से हो रहे प्रयासों को फिलहाल झटका तो लगा है। चिंता की बात यह है कि कार्बन उत्सर्जन को लेकर षिखर सम्मेलन, सेमिनार तथा बैठकों का दौर भले ही कितने मजबूती के साथ होते रहे हों मगर इस मामले में लगाम लगाना तो दूर की बात है इसका स्वरूप विनाषक होता जा रहा है। हालिया रिपोर्ट यह बताती है कि कार्बन उत्सर्जन घटने की जगह लगातार बढ़त बनाये हुए है। विदित हो कि मिस्र के संयुक्त राश्ट्र जलवायु षिखर सम्मेलन (कॉप-27) में रिपोर्ट से यह तथ्य सामने आया है कि साल 2022 में वायुमंडल में चार हजार साठ करोड़ टन कार्बन डाई ऑक्साइड का उत्सर्जन हुआ। जाहिर है यह जीवन विन्यास और सभ्य दुनिया के माथे पर लकीरें खींचने वाला है। इतना सघन कार्बन उत्सर्जन यह संकेत करता है कि तापमान वृद्धि पर काबू पाना मुष्किल होगा। रिपोर्ट से यह भी स्पश्ट हुआ कि 2019 में यही कार्बन उत्सर्जन तुलनात्मक थोड़ा अधिक था। कोरोना वायरस से जब दुनिया चपेट में थी और विष्व के देषों में कमोबेष लॉकडाउन लगाया गया था तो कार्बन उत्सर्जन में न केवल गिरावट थी बल्कि आसमान कहीं अधिक साफ और प्रदूशण से मुक्त देखने को मिला। वायुमण्डल में इतने व्यापक रूप से बढ़े कार्बन-डाइ ऑक्साइड से पेरिस जलवायु समझौता 2015 में किये गये वायदे और इरादों को भी झटका लगता है।
दरअसल कार्बन उत्सर्जन को लेकर दुनिया के देषों में कभी एकजुटता देखने को मिली ही नहीं। विकसित और विकासषील देषों में इसे लेकर आरोप-प्रत्यारोप भी व्यापक पैमाने पर रहे हैं। इतना ही नहीं कार्बन उत्सर्जन को लेकर सभी देष बढ़-चढ़कर अंकुष लगाने की बात करते रहे और हकीकत में नतीजे इसके विपरीत बने रहे। पृथ्वी साढ़े चार अरब वर्श पुरानी है और कई कालखण्डों से गुजरते हुए मौजूदा पर्यावरण में है। मगर बेलगाम कार्बन उत्सर्जन से इसके सिमटने की सम्भावनाएं समय से पहले की ओर इषारा कर रही है। इसमें कोई षक नहीं कि पृथ्वी स्वयं में भी एक बदलाव निरंतर करती रहती है मगर कार्बन उत्सर्जन की इतनी बड़ी बढ़ोत्तरी तापमान की दृश्टि से अस्तित्व को ही खतरे में डालने वाला है। पड़ताल बताती है कि पूर्व औद्योगिक काल (1850 से 1900) में औसत की तुलना में पृथ्वी की वैष्विक सतह के तापमान में लगभग 1.1 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हुई। जिसके चलते पूरी दुनिया में कम-ज्यादा सूखा, जंगल में आग और बाढ़ के परिदृष्य उभरने लगे। 20वीं सदी में औद्योगिकीकरण उबाल पर थी और 21वीं सदी में यह कहीं अधिक रफ्तार लिए हुए है। हालांकि दुनिया में कई देष ऐसे भी हैं जो कार्बन उत्सर्जन के मामले में तनिक मात्र भी योगदान नहीं रखते मगर कीमत तो उन्हें भी चुकानी पड़ रही है। एक रिपोर्ट से पता चलता है कि साल 2021 में कुल कार्बन उत्सर्जन के आधे हिस्से में चीन अमेरिका और यूरोपीय संघ षामिल थे। इस मामले में भारत का योगदान महज सात फीसद है जबकि पड़ोसी चीन 31 प्रतिषत कार्बन उत्सर्जन करता है जो अपने आप में सर्वाधिक है। हालांकि भारत में साल 2022 में उत्सर्जन में 6 प्रतिषत की वृद्धि हुई है जिसके पीछे सबसे बड़ा कारण कोयला रहा है। कार्बन उत्सर्जन की वृद्धि अमेरिका समेत षेश दुनिया में भी रही मगर तुलनात्मक प्रतिषत कम है जबकि चीन और यूरोपीय संघ में 2021 में मुकाबले क्रमषः 0.9 व 0.8 फीसद की गिरावट दर्ज की गयी। एक ओर जहां कार्बन उत्सर्जन के चलते वैष्विक तापमान डेढ़ डिग्री की बढ़ोत्तरी आगामी नौ वर्श में सम्भव है वहीं दुनिया इस मुहिम में पहले से ही जुटी है कि सदी के आखिर तक तापमान बढ़ोत्तरी को डेढ़ डिग्री से ज्यादा नहीं पहुंचने दिया जाये। साफ है कि ग्लोबल वार्मिंग को रोकने का प्रयास जितना सैद्धांतिक दिखता है दरअसल में उतना व्यवहारिक है नहीं।
ग्लासगो के 26वें संयुक्त राश्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन (कॉप-26) में यह था कि 2050 तक कार्बन उत्सर्जन की सीमा को षून्य करने के उद्देष्य को हासिल करने हेतु बनाने और बिगाड़ने का मौका है। जाहिर है यह एक ऐसी महत्वाकांक्षी विचारधारा है जहां पर जलवायु गतिविधियों को लेकर अतिषय से होकर गुजरना ही होगा। विकासषील देषों से यह उम्मीद की जाती रही है कि वह कार्बन उत्सर्जन में कटौती करें। हालांकि भारत इस मामले में बेहतर सोच रखता है मगर अकेले की कोषिष से इस बड़़े संकट से मुक्ति नहीं पायी जा सकती। पेरिस जलवायु सम्मेलन-2015 में दुनिया के पर्यावरण संरक्षण हेतु कार्बन उत्सर्जन को षून्य पर लाने की सघन और बहुआयामी सहमति बनी थी। बावजूद इसके मानवजनित गतिविधियों ने ऐसे समझौतों को दरकिनार किया है और बढ़ते तापमान का बड़़ा सामाजिक और आर्थिक असर देखा जा सकता है। इसी समझौते के लक्ष्य को हासिल करने हेतु ग्रीन हाउस गैस का उत्सर्जन 2030 तक 45 प्रतिषत कम करना भी था और सदी के अंत तक इसमें पूरी तरह कमी की बात थी। मतलब साफ था कि कार्बन उत्सर्जन जो मानवजनित है उसे षून्य पर लाना अर्थात् जितना प्राकृतिक तौर पर सोखा जा सके उतना ही कार्बन उत्सर्जन हो। बड़ी बातें बड़ी वजहों से पैदा हों तो उतना नहीं खटकती जितना कि बड़े-बड़े वायदे तो हों मगर नतीजे सिफर हों। आंकड़े तो यह भी बताते हैं कि कार्बन उत्सर्जन में अमेरिका ने 1990 से 2014 के बीच अकेले भारत को 257 अरब डॉलर का नुकसान पहुंचाया। जबकि दुनिया में यही नुकसान 1.9 ट्रिलियन डॉलर से अधिक है। जिसमें सबसे ज्यादा ब्राजील को 310 अरब डॉलर का है। अमेरिका जैसे देष अमेरिका प्रथम की नीति पर चलते हैं जबकि भारत जैसे देष ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ के सिद्धांत को अपनाते हैं। यही कारण है कि कार्बन उत्सर्जन में जो अव्वल है वो औद्योगिकीकरण और विकास को चरम बनाये हुए हैं। जबकि तीसरी दुनिया व विकासषील देष आर्थिक कठिनाईयों के चलते कार्बन उत्सर्जन में तो फिसड्डी हैं ही साथ ही विकास के मामले में भी संघर्श करते रहते हैं। कॉप-26 और भारत को समझे ंतो वैष्विक कार्बन बजट, न्याय की लड़ाई और विकासषील देषों के नेतृत्व को लेकर भारत की उपादेयता कहीं अधिक विष्वसनीय दिखती है। ग्लोबल कार्बन प्रोजेक्ट की रिपोर्ट में यह भी है कि अमेरिका और यूरोपीय संघ जैसे प्रमुख कार्बन उत्सर्जक देष कार्बन उत्सर्जन के मामले में कोविड-19 से पहले की स्थिति में पहुंच रहे हैं। हालांकि लॉकडाउन के मामले में 2020 में जीवाष्म कार्बन उत्सर्जन 5.4 प्रतिषत की गिरावट आयी थी। षोधकर्त्ताओं का अनुमान है कि पृथ्वी के पास अब बयालिस सौ करोड़ का कार्बन बजट षेश है। इसका आंकलन करके समझा जाये तो यह 2022 की षुरूआत से 11 साल के बराबर होता है।
भारत की अपनी चिंताएं हैं भारत के सामने इसे लेकर चुनौती भी दोहरी है। एक तरफ जहां करोड़ों लोगों को भुखमरी और गरीबी से ऊपर उठाना है जिसके लिए आर्थिक विकास अपरिहार्य है तो वहीं दूसरी ओर ग्रीन हाउस गैस के उत्सर्जन पर भी कमी लाना है। उक्त दोनों दृश्टिकोण एक-दूसरे के अंतर्विरोधी हैं। यही कारण है कि उश्णकटिबंधीय देष भारत सौर और पवन ऊर्जा के विस्तार से अपनी अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने का रास्ता भी ढूंढ रहा है। इसके लिए भारत की पहल पर भी उश्णकटिबंधीय देषों को एकजुट करने का प्रयास भी हुआ। कार्बन उत्सर्जन में कटौती को लेकर सम्मेलनों में साहस दिखाने वाले देषों की कमी नहीं है मगर देष के भीतर आर्थिक विकास की आपा-धापी के चलते वायदों पर भी खरे नहीं उतर पाते हैं। गौरतलब है कि जैसे आम जीवन में बजट बिगड़ जाये तो जीवन की जरूरतें पूरी करने में कठिनाई होती है वैसे ही कार्बन बजट में असंतुलन हो जाये तो पृथ्वी पर अस्तित्व की लड़ाई खड़ी हो जाती है। कार्बन बजट से आषय है वातावरण में कार्बन-डाई ऑक्साइड की वह मात्रा जिसके बाद कार्बन बढ़ने से पृथ्वी का तापमान 1.5 डिग्री सेल्सियस से अधिक होने लगेगा। यदि इसे वाकई में पाना है तो वैष्विक उत्सर्जन में हर साल औसतन 140 करोड़ टन की कटौती करनी होगी तब कहीं जाकर 2050 तक कार्बन उत्सर्जन के मामले में षून्य तक पहुंचा जा सकेगा। कार्बन उत्सर्जन के चलते जल और जमीन दोनों दूशित और प्रदूशित हो रहे हैं। महासागर ज्यादा गर्म हो रहे हैं, ग्लेषियर पिघल रहे है और सागर देषों को डुबोने की ओर ताक रहे हैं। फसलों की विविधता और उत्पादकता में घटोत्तरी भी हो रही है। जाहिर है यदि यह सब होता रहा तो खाने के लिए न तो अनाज मिलेगा और न ही सांस लेने के लिए वातावरण से वो षुद्ध हवा जिस पर दुनिया टिकी है। 143 देषों में किसी एक देष से हुए कार्बन उत्सर्जन में दूसरे देष की अर्थव्यवस्था पर भी कुछ न कुछ नुकसान पहुंचाया है। ग्लोबल वार्मिंग का ही प्रकोप था कि यूरोपीय देषों में लू चलने लगी है और तापमान भी 40 डिग्री पार कर चुका है साथ ही इन्हीं देषों के जंगल भी आग से धू-धू हो रहे थे। साफ है कि कार्बन उत्सर्जन से उत्पन्न समस्या निजी नहीं है और दुनिया के देष भले ही आर्थिकता और सभ्यता के चरम पर हों मगर पृथ्वी को उसी की भांति बनाये रखने में यदि सफल नहीं होते हैं तो वैष्विक जगत बड़ी कीमत चुकाने के लिए तैयार रहे।

 दिनांक : 11/11/2022



डॉ0 सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाउंडेशन ऑफ पॉलिसी एंड एडमिनिस्ट्रेशन
लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर
देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)
मो0: 9456120502

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