Monday, December 12, 2022

लैंगिक न्याय और चुनौतियां

20वीं सदी में प्रषासन को दो और दृश्टिकोणों से स्वयं को विस्तारित करना पड़ा। जिसमें एक नारीवादी दृश्टिकोण तो दूसरा पारिस्थितिकी दृश्टिकोण षामिल था। इसी दौर में अमेरिका और इंग्लैण्ड जैसे देषों में नारीवाद की विचारधारा को कहीं अधिक बल मिला। महात्मा गांधी ने भी महिलाओं को स्वतंत्रता संग्राम की मुख्य धारा में लाने का काम किया। इतना ही नहीं पुरूशों को उनकी षोशक रीतियों के लिए कुछ हद तक जिम्मेदार ठहराया। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 से 18 के अन्तर्गत समता के अधिकार का निरूपण करके लैंगिक न्याय को विधिक और संवैधानिक रूप से कसौटी पर कसने का काम भी किया गया। लैंगिक आधार पर भेदभाव को न केवल इसके माध्यम से समाप्त किया गया बल्कि नीति निदेषक तत्व के अंतर्गत विषेश रियायत और सुविधाओं के साथ नारी षक्ति को सबलता की ओर धकेला भी गया। सुप्रसिद्ध विचारक जे.एस. मिल ने भी “दि सब्जेक्षन ऑफ वूमन में लिखा है कि महिला और पुरूशों की जो मानसिक और स्वभावगत विषेशता और संदर्भ है उनमें साझीदारी होनी चाहिए। दोनों के व्यक्तित्व को आदर्ष बनाने के लिए पुरूशों को स्त्रियोचित्त और स्त्रियों के पुरूशोचित्त गुण को एक दूसरे में समाहित कर लेना चाहिए। उक्त के आलोक में यह विष्लेशित करना सहज है कि लैंगिक न्याय की पराकाश्ठा कई असमानताओं की जकड़न की मुक्ति के बाद ही सम्भव हो सकती है। हिन्दी की चर्चित लेखिका महादेवी वर्मा ने 1930 के दषक में लैंगिक न्याय का मुद्दा भी उठाया और बाद में यह कड़ीबद्ध तरीके से प्रकाषित भी हुआ। गौरतलब है कि लैंगिक न्याय लैंगिक असमानता से उपजी एक आवष्यकता है। 21वीं सदी का तीसरा दषक जारी है और भारतीय होने पर सभी को गर्व भी है। मगर बेटे की पैदाइष पर जष्न और बेटी के पैदा होने पर मायूसी कमोबेष आज भी एक झकझोरने वाला सवाल कहीं न कहीं देखने को तो मिलता है। संदर्भ निहित परिप्रेक्ष्य यह है कि लिंग सामाजिक-सांस्कृतिक षब्द है जो समाज में पुरूश और महिलाओं के कार्य और व्यवहारों को परिभाशित करता है। लेकिन इसी में भेदभाव व्याप्त हो जाये और एक-दूसरे के लिए चुनौती और असमानता साथ ही लैंगिक रूप से कमजोर मानने की प्रथा का विकास हो जाये तो न्याय की मांग स्वाभाविक है।
भारत दुनिया में सबसे युवा देषों में एक है और अनुमान यह भी है कि 2050 तक दुनिया की आधी आबादी भारत समेत महज नौ देषों में होगी। किसी भी देष में बच्चे चाहे बेटा हो या बेटी भविश्य की पूंजी होते हैं और इन्हें गरिमा और सम्मान के साथ परवरिष और समतामूलक दृश्टिकोण के अंतर्गत अग्रिम पंक्ति में खड़े करने की जिम्मेदारी व्यक्ति और समाज की ही है मगर जब विशमताएं और लैंगिक भेदभाव किसी भी वजह से जगह बनाती हैं तो यह समाज के साथ-साथ देष के लिए भी बेहतर भविश्य का संकेत तो नहीं है। वैष्विक लैंगिक अंतराल सूचकांक 2022 के आंकड़े यह दर्षाते हैं कि भारत 146 देषों में 135वें स्थान पर है जबकि साल 2020 के इसी सूचकांक में 153 देषों में भारत 112वें स्थान पर था। इससे साफ तौर पर अंदाजा लगाया जा सकता है कि देष में लैंगिक भेदभाव की जड़ें कितनी मजबूत और गहरी हैं। सवाल यह है कि किस असमानता के पीछे बड़ा कारण क्या है। आर्थिक भागीदारी एवं अवसर की कमी के अलावा षिक्षा प्राप्ति में व्याप्त अड़चनें, स्वास्थ एवं उत्तरजीविता तथा सषक्तिकरण को इसके लिए जिम्मेदार समझा जा सकता है। 2022 के इस आंकड़े में आइसलैण्ड जहां इस मामले में षीर्श पर है वहीं निम्न प्रदर्षन के मामले में अफगानिस्तान को देखा जा सकता है। हैरत यह भी है कि पड़ोसी देष नेपाल, बांग्लादेष, श्रीलंका, मालदीव और भूटान की स्थिति भारत से बेहतर है जबकि दक्षिण एषिया में पाकिस्तान और अफगानिस्तन का प्रदर्षन भारत से खराब है। यह बात भी समझा जाये तो कोई अतार्किक न होगा कि कोविड के चलते व्याप्त मंदी ने महिलाओं को भी बाकायदा प्रभावित किया और लैंगिक अंतराल सूचकांक में तुलनात्मक गिरावट आयी। गौरतलब है कि लैंगिक असमानता को जितना कमजोर किया जायेगा लैंगिक न्याय व समानता को उतना ही बल मिलेगा। संविधान से लेकर विधान तक और सामाजिक सुरक्षा की कसौटी समेत तमाम मोर्चों पर लैंगिक असमानता को कमतर करने का प्रयास दषकों से जारी है मगर सफलता मन माफिक मिली है इस पर विचार भिन्न-भिन्न होना स्वाभाविक है।
भारत एक धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य है। लैंगिक आधार पर भेदभाव को व्यावहारिक और सैद्धांतिक दोनों दृश्टि से समाप्त करने की कवायद जारी है। हालांकि कई ऐसे कानून मौजूद हैं जो लैंगिक न्याय के सिद्धांत का उल्लंघन करते हैं इसमें समुदाय विषेश के पर्सनल लॉ भी हैं। जहां ऐसे प्रावधान निहित हैं जो महिलाओं के अधिकारों को न केवल कमजोर करते हैं बल्कि भेदभाव से भी युक्त हैं। समान नागरिक संहिता को संविधान के नीति निदेषक तत्व के अंतर्गत अनुच्छेद 44 में देखा जा सकता है। चूंकि भारत लैंगिक समता के लिए प्रयास करने वाला देष है ऐसे में समान सिविल संहिता एक आवष्यक कदम के रूप में समझा जा सकता है। इसके होने से समुदाय के बीच कानूनों में एकरूपता और पुरूशों तथा महिलाओं के अधिकारों में बीच समानता का होना स्वाभाविक हो जायेगा। इतना ही नहीं विषेश विवाह अधिनियम 1954 किसी भी नागरिक के लिए चाहे वह किसी भी धर्म का हो, सिविल मैरिज का प्रावधान करता है। जाहिर है इस प्रकार किसी भी भारतीय को किसी भी धार्मिक व्यक्तिगत कानून की सीमाओं के बाहर विवाह करने की अनुमति देता है। साल 1985 के षाह बानो केस में सर्वोच्च न्यायालय ने दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के अंतर्गत उसके पक्ष में निर्णय दिया था जिसमें पत्नी, बच्चे और माता-पिता के रखरखाव के सम्बंध में सभी नागरिकों पर लागू होता है। इतना ही नहीं देष की षीर्श अदालत ने लम्बे समय से लम्बित समान नागरिक संहिता अधिनियमित करने की बात भी कही। 1995 के सरला मुदगल मामला हो या 2019 का पाउलो कॉटिन्हो बनाम मारिया लुइज़ा वेलेंटीना परोरा मामला हो सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू करने के लिए कहा। गौरतलब है कि समान नागरिक संहिता लैंगिक न्याय की दिषा में भी एक महत्वपूर्ण कदम है इससे न केवल व्यक्तिगत कानूनों की सीमाओं में बंधे असमानता को रोका जा सकेगा बल्कि नारी की प्रगतिषील अवधारणा और उत्थान को भी मार्ग दिया जा सकेगा। इस बात पर गौर किया जाये कि साल 2030 तक विष्व के सभी देष अपने वैष्विक एजेण्डे के अंतर्गत न केवल गरीबी उन्मूलन व भुखमरी की समाप्ति से युक्त हैं बल्कि स्त्री-पुरूश के बीच समानता के साथ लैंगिक न्याय समेत कई लक्ष्य को हासिल करने की जद्दोजहद में है। ऐसे में बहुआयामी लक्ष्य के साथ लैंगिक न्याय को भी प्राप्त करना किसी भी देष की कसौटी है और भारत इससे परे नहीं है। लिंग आधारित समस्याओं का बने रहना न केवल देष में बहस का मुद्दा खड़ा करता है बल्कि विकसित होने के पैमाने को भी अधकचरा बनाये रखता है। विष्व बैंक ने बरसों पहले कहा था कि यदि भारत की पढ़ी-लिखी महिलाएं कामगार हो जायें तो देष की जीडीपी सवा चार फीसद रातों रात बढ़ सकती है। यहां ध्यान दिला दें कि यदि यही विकास दर किसी तरह प्राप्त कर लिया जाये तो जीडीपी दहाई में होगी और 5 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था के सपने को भी पंख लग जायेंगे।
बेषक भारतीय समाज में लिंग असमानता का मूल कारण इसकी पितृसत्तात्मक व्यवस्था रही है। मगर इसकी यह जड़ अब उतनी मजबूत नहीं कही जा सकती। भारत में महिलाओं के लिए बहुत से सुरक्षात्मक उपाय बनाये गये हैं। महिलाओं के साथ अत्याचार आज भी खतरनाक स्तर पर है इससे इंकार नहीं किया जा सकता मगर यही महिलाएं प्रत्येक क्षेत्र में अपनी उपस्थिति भी दर्ज करा रही हैं इससे भी सभी वाकिफ हैं। सिविल सेवा परीक्षा में तो कई अवसर ऐसे आये हैं जब महिलाएं न केवल प्रथम स्थान पर रही हैं बल्कि एक बार तो लगातार 4 स्थानों तक और एक बार तो लगातार 3 स्थानों तक महिलाएं ही छायी रहीं। उक्त परिप्रेक्ष्य एक बानगी है कि लिंग असमानता या लैंगिक न्याय को लेकर चुनौतियां तो हैं मगर वक्त के साथ लैंगिक समानता भी प्रगति किया है। दहेज प्रथा का प्रचलन आज भी है जिसे सामाजिक बुराई या अभिषाप तो सभी कहते हैं मगर इस जकड़न से गिने-चुने ही बाहर हैं। कन्या भ्रूण हत्या पर कानून बने हैं फिर भी यदा-कदा इसका उल्लंघन होना प्रकाष में आता रहता है। आंकड़े बताते हैं कि भारत में 52 फीसदी महिलाओं पर घरेलू हिंसा कम-ज्यादा होता है। यह भी लैंगिक न्याय की दृश्टि से चुनौती बना हुआ है जबकि घरेलू हिंसा कानून 2005 से ही लागू है। महिलाओं को आज की संस्कृति के अनुसार अपनी रूढ़िवादी सोच को भी बदलना होगा। पुरूशों को महिलाओं के समानांतर खड़ा करना या महिलाएं पुरूशों से प्रतियोगिता करें यह समाज और देष दोनों दृश्टि से सही नहीं है बल्कि सहयोगी और सहभागी दृश्टि से उत्थान और विकास को प्रमुखता दे यह सभी के हित में है। यह बात जितनी सहजता से कही जा रही है यह व्यावहारिक रूप से उतना है नहीं। मगर एक कदम बड़ा सोचने से दो और कदम अच्छे रखने का साहस यदि विकसित होता है तो पहले लैंगिक न्याय की दृश्टि से एक आदर्ष सोच तो लानी ही होगी। फिलहाल लैंगिक समानता का सूत्र सामाजिक सुरक्षा और सम्मान से होकर गुजरता है। समान कार्य के लिए समान वेतन, मातृत्व अवकाष, जेंडर बजटिंग समेत कई ऐसे परिप्रेक्ष्य देखे जा सकते हैं जहां लैंगिक न्याय को पुख्ता करना आसान हो जाता है। राजनीतिक सषक्तिकरण के मापदण्डों को देखें तो भारत 2020 में इसमें भागीदारी को लेकर 18वें स्थान पर रहा है और मंत्रिमण्डल में भागीदारी के मामले में भारत विष्व में 69वें स्थान पर था। बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ, वन स्टॉप सेंटर योजना, महिला हेल्पलाइन योजना, महिला सषक्तिकरण केन्द्र तथा राश्ट्रीय महिला आयोग जैसी तमाम संस्थाएं लैंगिक समानता और न्याय की दृश्टि से अच्छे कदम हैं। बावजूद इसके लैंगिक न्याय को लेकर चुनौतियां भी कमोबेष बरकरार हैं।

 दिनांक : 22/11/2022



डॉ0 सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाउंडेशन ऑफ पॉलिसी एंड एडमिनिस्ट्रेशन
लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर
देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)
मो0: 9456120502

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