Friday, June 24, 2022

बढ़ती महंगाई और लुढ़कता रूपया

एक बड़ी सामान्य सी कहावत है कि जब कमाओगे तब आटा, दाल, चावल का भाव पता चलेगा। इन दिनों यह कथन कहीं अधिक चरितार्थ है और बड़े से बड़े कमाईगीर को भी इसका भाव पता चल रहा है। गौरतलब है कि खुदरा महंगाई दर की तरह ही थोक महंगाई दर में भी बढ़ोत्तरी का सिलसिला इन दिनों बाकायदा जारी है। भारत में थोक मूल्य सूचकांक के आधार पर मुद्रास्फीति की दर का आंकलन किया जाता है। मुद्रास्फीति का सामान्य नियम यह है कि इससे मुद्रा के मूल्य में कमी तथा सामान्य कीमत स्तर में वृद्धि हो जाती है और जब यही वृद्धि चैतरफा प्रहार करने लगे तब महंगाई से हाहाकार मचना स्वाभाविक हो जाता है। थोक मूल्य सूचकांक में परिवर्तन की दर ही मुद्रास्फीति कहलाती है। गौरतलब है कि अप्रैल में थोक महंगाई दर 15.08 फीसद दर्ज की गयी जो पिछले 9 साल के मुकाबले सर्वाधिक है। इतनी बड़ी महंगाई के लिए बड़े पैमाने पर बिजली और ईंधन की कीमतों में हो रहे बढ़ोत्तरी मुख्य रूप से जिम्मेदार है। गौरतलब है कि अप्रैल में ईंधन और बिजली में 38.66 फीसद और विनिर्मित उत्पादों में 10.85 प्रतिषत की बढ़ोत्तरी हुई। इतना ही नहीं खाद्य पदार्थों की कीमत से जुड़े थोक सूचकांक भी 8.88 फीसद पहुंच गया। जब खाद्य पदार्थों से जुड़े थोक सूचकांक में वृद्धि होती है तब सब्जी, दूध, फल, अण्डा समेत अनेक वस्तुओं की कीमतें आसमान छूने लगती हैं। अप्रैल माह का उदाहरण देखें तो सब्जी के थोक दाम में भी साल 2021 के अप्रैल की तुलना में 23.24 फीसद की बढ़ोत्तरी हुई है। चूल्हे पर पक रही किसी भी प्रकार की सब्जी में आलू का षामिल होना अमूमन देखा जा सकता है। अप्रैल 2021 की तुलना में इस अप्रैल में आलू का दाम 19.84 प्रतिषत अधिक महंगा था। फलों की हालत भी 10.89 फीसद की तुलनात्मक बढ़ोत्तरी के कारण आम आदमी इसकी पहुंच से दूर रहा। सुखद केवल यह रहा कि प्याज का थोक भाव पिछले साल की तुलना में मामूली गिरावट लिए रहा। खाद्य तेल की कीमत भी 15 फीसद से अधिक बढ़ी हुई देखी जा सकती है। सरकारी आंकड़े पर नजर डालें तो पेट्रोल के थोक दाम में 60.63 की वृद्धि जबकि यही पेट्रोल इसी साल मार्च में 53.44 प्रतिषत की बढ़ोत्तरी पर था। डीजल के दाम में भी तुलनात्मक वृद्धि आसमान छू रही है और रसोई गैस का तो हाल पूछिये ही मत। इसने भी लोगों का जीना हराम किया हुआ है। रसोई गैस के मामले में भी थोक दाम में 38.48 फीसद की बढ़त देखी जा सकती है। 

भारत जैसे विकासषील देष में महंगाई का तेजी से बढ़ना किसी दुःखद और अनचाही घटना से कम नहीं है। अभी भी देष में हर चैथा व्यक्ति गरीबी रेखा से नीचे है और 2011 की जनगणना के हिसाब से इतना ही अषिक्षित भी। गरीबी के मामले में आंकड़ों को लेकर हमेषा संदेह रहा है। बहुधा ऐसा देखा गया है कि महंगाई के मामले में भी सरकारें बहुत देर से जागती हैं। अनियंत्रित अर्थव्यवस्था के बीच देष के नागरिकों की सांसे उखड़ती रहती हैं और सरकारें गरीबी, महंगाई, बेरोजगारी जैसे समावेषी समस्याओं पर राजनीतिक मुलम्मा चढ़ाती रहती हैं। सरकार की ही माने तो 80 करोड़ लोगों को मुफ्त अनाज योजना के अंतर्गत रखा गया है। देष की 136 करोड़ की जनसंख्या में हालंाकि यह निष्चित आंकड़ा नहीं है मगर 2011 के हिसाब से देखें तो 121 करोड़ की जनसंख्या थी। मोटे तौर पर 50 करोड़ से अधिक लोग मुफ्त अनाज योजना से बाहर हैं। इन्हीं 50 करोड़ में करोड़पति, अरबपति और पूंजीपति भी आते हैं साथ ही सेवा क्षेत्र में कार्यरत् नौकरीपेषा तथा मध्यम वर्ग का एक बड़ा समूह भी इसी के बीच होता है। 80 करोड़ जनसंख्या महंगाई के चंगुल में तो है ही बाकी बचे 50 करोड़ भी कम-ज्यादा इसके घात से वंचित नहीं है। चंद अमीरों और उद्योगपति घरानों को छोड़ दिया जाये तो महंगाई के कोहराम से सभी कराह रहे हैं। कोरोना के चलते कमाई भी गयी और महंगाई ने रही सही कमर भी तोड़ने का काम किया। हमारी अर्थव्यवस्था का एक बड़ा पक्ष यह है कि देष की सरकारें आर्थिक नीतियां किसके लिए बनाती हैं। अमीर, अमीर हो रहा है और गरीब जमींदोज हो रहा है। हद तो यह भी है कि आसमान चीर देने वाली महंगाई के इस दौर में कोई राजनीतिक दल सड़क पर दिखाई नहीं देता है। इसके पीछे कारण या तो महंगाई को व्यापक स्वीकार्यता मिल गयी है या फिर विरोध की आवाज में दम नहीं है। या फिर सरकार की नीतियों से सभी संतुश्ट हैं। 

एक ओर जहां महंगाई का षोर है तो वहीं दूसरी ओर डाॅलर के मुकाबले रूपया भी गिर रहा है। कहा जाये तो बढ़ती महंगाई और लंढकता रूपया का यह दौर है। गिरते रूपए का सबसे बड़ा असर यह है कि आयात महंगा हो जाता है और निर्यात सस्ता हो जाता है। भारत अपने कुल तेल का करीब 83 फीसद आयात करता है जैसे-जैसे रूपया गिरेगा कच्चे तेल का आयात बिल बढ़ेगा जाहिर है इससे पेट्रोल, डीजल के दामों में वृद्धि होगी जिसका सीधा असर परिवहन पर पड़ेगा तत्पष्चात् माल महंगे हो जाते हैं और फिर अन्ततः थाली का भोजन भी कहीं अधिक कीमत वसूलने लगता है। जब ऐसी परिस्थितियां पैदा हो जायें तो राजनीति की नहीं अर्थनीति की आवष्यकता पड़ती है। अनियंत्रित महंगाई से पार पाना और लगातार रूपए को संभालना चुनावी भाशण से तय नहीं होता इसका सीधा सरोकार आर्थिक थिंक टैंक से है। सरकार एक बड़ी मषीनरी होती है। वह ऐसी चीजों के लिए जवाबदेह है, ऐसे में महंगाई के मारे लोगों को आष्वस्त करना जरूरी है। आने वाले दिनों में महंगाई का हाल क्या होगा, कब तक इस पर नियंत्रण पाया जा सकेगा इस पर भी सरकार को होमवर्क तेज कर देना चाहिए। रिज़र्व बैंक ने रेपो दर बढ़ाकर यह इषारा कर दिया है कि बैंकों से ऋण लेना तुलनात्मक महंगा होगा और वित्त मंत्री ने रिज़र्व बैंक के इस कृत्य पर हैरानी जतायी थी। इन दिनों फलक पर बड़ा सवाल यह तैर रहा है कि जनता को महंगाई से राहत कैसे मिले। वर्श 2013-14 की तुलना में मौजूदा मुद्रास्फीति की स्थिति अलग है जहां अतीत में खुदरा मूल्य सूचकांक की वृद्धि अधिक थी वहीं थोक मूल्य सूचकांक इस समय स्पीड लिए हुए है। 1991 में बेतहाषा महंगाई, विकास दर कम होना और विदेषी रिज़र्व कम होने से एक डाॅलर 17.90 रूपए पर पहुंच गया। जो 2011 आते-आते 44 रूपए तक पहुंच गया। मगर यही अगस्त 2013 में बढ़कर लगभग 69 रूपए हो गया। तब आज की मौजूदा सरकार विपक्ष में थी और कहीं अधिक हमलावर थी मगर आज एक डाॅलर के मुकाबले रूपया 78 के आस-पास पहुंच गया है बावजूद इसके विपक्ष बेफिक्र है और सरकार बेसुध पड़ी हुई है। रोचक यह भी है कि आजादी के वर्श भारत में एक डाॅलर की कीमत 4.16 रूपए तक थी। इतना ही नहीं 1950 से 1965 के बीच यानी डेढ़ दषक तक डाॅलर के मुकाबले रूपया 4.76 के साथ स्थिर बना रहा और इसके बाद लुढ़कने की रिवायत षुरू हुई और आज तक वह संभल नहीं पाया है और उदारीकरण के बाद गिरावट कहीं अधिक तेजी से देखी जा सकती है। हालांकि कभी डाॅलर के मुकाबले रूपया संभला है तो कभी स्थिर रहा और कभी गिरता रहा मगर कीमत तो देष की जनता चुकाती रही।

 दिनांक : 23/05/2022


डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

(वरिष्ठ  स्तम्भकार एवं प्रशासनिक चिंतक)

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ  पॉलिसी एंड एडमिनिस्ट्रेशन 

लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर

देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)

No comments:

Post a Comment