Friday, June 24, 2022

प्रशासनिक सेवा और महिलाएं

वर्श 1921 में संयुक्त राश्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) के अंतर्गत लोक प्रषासन में लैंगिक समानता को लेकर एक रिपोर्ट तैयार की गयी। जिसमें स्पश्ट किया गया कि लैंगिक समानता एक समावेषी और जवाबदेह लोक प्रषासन के मूल में है। रिपोर्ट में यह भी संकेत था कि नौकरषाही और लोक प्रषासन में महिलाओं का समान प्रतिनिधित्व बनाये रखने से सरकारी कामकाज में बड़ा सुधार होता है। इतना ही नहीं सेवाओं को विभिन्न सार्वजनिक हितों के प्रति कहीं अधिक उत्तरदायी और जवाबदेह भी बनाता है। गुणवत्ता में तो इजाफा होता ही है इसके साथ ही लोक संगठनों के बीच आपसी भरोसा और विष्वास भी बढ़त में रहता है। गौरतलब है कि देष आजादी के 75वें वर्श में है और इसे लेकर सरकार द्वारा निर्धारित अमृत महोत्सव का दौर चल रहा है। स्वतंत्रता की इतनी लम्बी यात्रा के बाद इस स्वाभाविक प्रष्न से परहेज नहीं किया जा सकता कि यदि भारत को महाषक्ति बनना है साथ ही न्यू इण्डिया व आत्मनिर्भर की अवधारणा को फलक पर लाना है तो नई नौकरषाही और महिलाओं की बराबरी को हाषिये पर नहीं रख सकते। मार्च 2020 में संसद में एक बयान के दौरान सरकार ने स्पश्ट किया था कि वह ऐसे कार्यबल बनाने के प्रयास में है जो लैंगिक संतुलन को प्रतिबिम्बित और प्रदर्षित करता है मगर सच यह है कि इसे लेकर जमीनी हकीकत कुछ और है। चुनौतियों से भरे देष और उम्मीदों से अटे लोग तथा वृहद् जवाबदेही के चलते सरकार के लिए विकास और सुषासन की राह पर चलने के अलावा कोई अन्य विकल्प नहीं है। भूमण्डलीकरण का दौर है जाहिर है लोक सेवा का परिदृष्य भी नया करना होगा। जिसके लिए प्रषासनिक सेवा में लैंगिक असमानता को कमतर करना प्राथमिकता होनी चाहिए। सामाजिक-आर्थिक न्याय की दृश्टि का विहंगम स्वरूप सुषासन है और पारदर्षिता तथा जवाबदेही के साथ खुलापन को पूरा अवसर देना उसी सुषासन की प्रकृति है। प्रषासनिक सेवाओं में महिलाओं की उपस्थिति बढ़ने से ऐसी सेवाएं न केवल कार्यबल की दृश्टि से मजबूत होंगी बल्कि संवेदनषीलता का भी परिचायक हो सकती हैं। विकास की क्षमता पैदा करना, भ्रश्टाचार पर लगाम लगाना और जनता का बकाया विकास उन तक पहुंचाने जैसी तमाम बातें महिलाओं की भागीदारी बढ़ाकर काफी हद तक समुचित किया जा सकता है। हित पोशण का सिद्धांत भी यही कहता है कि लोकतंत्र के भीतर सब कुछ जनता की ओर मोड़ देना चाहिए यही सुषासन की पराकाश्ठा भी है और इससे प्रषासनिक सेवाओं को लैंगिक समानता का मौका भी मिलेगा।

पड़ताल बताती है कि भारतीय प्रषासनिक सेवा में साल 1951 में पहली बार महिलाओं को षामिल करने का फैसला किया गया। इसी वर्श इस सेवा के लिए केवल एक महिला अन्ना राजम का चयन आईएएस के लिए हुआ था। सात दषक का लम्बा रास्ता तय करने के बाद साल 2020 में आईएएस में महिलाओं की कुल संख्या 13 फीसद है। पड़ताल में और बारीकी भरी जाये तो अषोका यूनिवर्सिटी में त्रिवेदी सेंटर फाॅर पाॅलिटिकल डेटा (टीसीपीडी) द्वारा जो आंकड़े संकलित किये गये उसके विष्लेशण में अर्थात् भारतीय प्रषासनिक अधिकारी डेटा बेस को लेकर किये गये समीक्षा से यह स्पश्ट होता है कि 1951 से 2020 के बीच सिविल सेवाओं में प्रवेष करने वाले 11569 आईएएस अधिकारियों में महिलाओं की संख्या बामुष्किल 1527 रही। हालांकि यह आंकड़ा लैंगिक असमानता को व्यापकता तो देते हैं मगर इस बात की राहत भी इसमें है कि इकाई से षुरू महिला प्रषासनिक अधिकारी की संख्या आज डेढ़ हजार से अधिक है। लैंगिक असमानता केवल प्रषासनिक सेवा में संख्या मात्र से ही नहीं है बल्कि महिलाओं की इस सेवा में आने को लेकर विचार भी अलग थे। अध्ययन से स्पश्ट हुआ कि आईएएस परीक्षा उत्तीर्ण करने वाली अन्ना राजम जब इंटरव्यू देने गयी तो इंटरव्यू बोर्ड ने उन्हें हतोत्साहित किया तथा प्रषासनिक सेवा के बदले विदेष या केन्द्रीय सेवाओं पर विचार करने के लिए कहा। प्रषासनिक सेवा में उनके चयन के बाद नियुक्ति पत्र में यह षर्त थी कि षादी की स्थिति में उनकी सेवा समाप्त कर दी जायेगी।  उक्त बंदिष यह बताती है कि महिलाओं के लिए प्रषासनिक सेवा में पैर जमाना पुरूश सत्ता के बीच से होकर गुजरने जैसा था। हालांकि बाद में इसमें संषोधन हुआ और पहली महिला आईएएस अन्ना राजम ने 1985 में विवाह किया। गौरतलब है कि उनके पति रिज़र्व बैंक आॅफ इण्डिया के गवर्नर आर. एन. मल्होत्रा थे। जाहिर है भारतीय प्रषासनिक सेवा में महिलाओं की राह इतनी आसान तो नहीं थी। हालांकि अब समय के साथ जमाना बदला है और न केवल खुलापन आया बल्कि लैंगिक समानता को लेकर भी लोगों की राय सकारात्मक हुई है। ऐसे में प्रषासनिक सेवाओं में भले ही महिलाओं की स्थिति महज कुछ ही प्रतिषत है मगर लगातार बढ़ती उनकी उपस्थिति संतोशजनक ही कही जायेगी। 

दो टूक यह भी है कि आईएएस बनने की राह दिन-प्रतिदिन कठिन होती जा रही है। हालांकि संसाधन तेजी से बढ़े हैं और इंटरनेट आदि के चलते इसके प्रति पहुंच भी आसान हुई है। बावजूद इसके यह देष की सबसे बड़ी और कठिन परीक्षा में गिनी जाती है। मौजूदा समय में सिविल सेवा परीक्षा में दस लाख से अधिक आवेदक होते हैं और महज कुछ सौ का ही चयन होता है जिसमें आईएएस की संख्या तो महज डेढ-दो सौ के बीच होती है। इसमें भी ज्यादा संख्या पुरूशों की ही रहती है। संघ लोक सेवा आयोग (यूपीएससी) के आंकड़ों पर नजर डालें तो साल 2017 की सिविल सेवा की परीक्षा में कुल आवेदकों में 30 प्रतिषत महिलायें थी। 3 जनवरी 2022 तक भारत सरकार के 92 सचिवों में से मात्र 14 फीसद यानी 13 ही महिलायें देखी जा सकती हैं। आंकड़े की तीक्ष्णता को थोड़ा और बढ़ायें तो दिसम्बर 2021 तक देष के कुल 36 राज्य एवं केन्द्र षासित प्रदेषों में केवल दो महिलायें ही मुख्य सचिव थीं। विदित हो कि देष के सबसे वरिश्ठ प्रषासनिक अधिकारी कैबिनेट सचिव होता है। अब तक इस पद पर एक भी महिला नहीं पहुंच पायी है। टीसीपीडी का आंकड़ा यह भी संकेत दे रहा है कि अधिकतर महिलायें अपना कार्यकाल पूरा करके ही सेवानिवृत्ति लेती हैं बावजूद इसके पुरूशों की तुलना में उनसे ऐच्छिक सेवानिवृत्ति की उम्मीद की जाती है। गौरतलब है कि महिलायें किसी भी सेवा में हों जिम्मेदारी दोहरी होती है। दफ्तरी कामकाज के अलावा घर को संभालना और ठीक से भूमिका निभाना साथ ही संतुलन को बनाये रखना इनकी जिम्मेदारी है जो अपने आप में चुनौतीपूर्ण है। हालांकि यह काफी हद तक किसी बोझ से कम नहीं है। वर्श 2004 में पूर्व यूपीएसएसी चेयरमैन पीसी होता की अध्यक्षता में सिविल सेवा समिति स्थापित की गयी थी। समिति की रिपोर्ट में महिला अधिकारियों पर घरेलू जिम्मेदारियों का अतिरिक्त बोझ को रेखांकित किया गया। यह बात और है कि इस समिति में एक भी महिला सदस्य थी ही नहीं। छठे वेतन आयोग की सिफारिष पर केन्द्र सरकार ने 2008 में महिला कर्मचारियों हेतु प्रसूत या अवकाष 180 दिन और बच्चों की देखभाल के लिए मिलने वाले अवकाष को दो साल के लिए बढ़ा दिया था। 

देष को महाषक्ति बनना हो या भारत को महान इसके लिए नागरिकों का विकास प्राथमिकता में रखना होगा जिसके लिए विकास का प्रषासन चाहिए और इस विकास के प्रषासन को पाने के लिए अच्छे प्रषासनिक अधिकारी की आवष्यकता होती है। जिसमें केवल पुरूश अधिकारियों से इसकी परिपूर्ति सम्भव नहीं है। लैंगिक असमानता को कम करते हुए महिलाओं की भागीदारी बढ़ाना नैतिक रूप से भी उचित है और नई कार्य संस्कृति की दृश्टि से भी समुचित करार दी जायेगी। भारत भ्रश्टाचार के मामले में भी दुनिया के पायदानों में ऊपर ही है। महिलाओं की प्रषासनिक अधिकारी के रूप में पहुंच लैंगिक संतुलन के साथ सामाजिक समता का भी द्योतक है और कहा जाये तो कुछ हद तक भ्रश्टाचार पर भी लगाम सम्भव हो सकता है। यहां स्पश्ट कर दें कि पूजा सिंघल जैसे प्रषासनिक अधिकारी इसके अपवाद हैं। हालांकि जिस तरह झारखण्ड में उनके भ्रश्टाचार का खुलासा हुआ है वह प्रषासनिक अधिकारियों में संदेह को हवा देने जैसा है। भारत विविध संस्कृति, भाशा, रहन-सहन, खान-पान, क्षेत्र व विचार आदि की विषिश्टता से युक्त है। आईएएस में सबके लिए रास्ता खुला है।  राश्ट्रीय सूचना विज्ञान केन्द्र के आंकड़े से स्पश्ट होता है कि कर्नाटक और तेलंगाना दो राज्य कैडर ऐसे हैं जहां 30 प्रतिषत अधिकारी महिलायें हैं जबकि जम्मू-कष्मीर, सिक्किम, बिहार, त्रिपुरा और झारखण्ड में यह आंकड़ा 15 फीसद से कम है। विष्व बैंक के उस कथन को यहां उद्घाटित करना उचित है कि यदि भारत की नारी स्वयं को उपजाऊ बनाये तो देष की जीडीपी में 4.22 फीसद का इजाफा होगा। हालांकि यहां बात केवल आईएएस में कार्यरत् महिलाओं की हो रही है मगर महिला सषक्तिकरण की दृश्टि से सभी कार्य क्षेत्र को समेटना सही रहेगा। षिक्षा में बदलाव और समाज में खुलापन साथ ही लड़कियों के प्रति बदला दृश्टिकोण प्रषासनिक अधिकारी समेत अन्यों में कैरियर बनाना आसान हुआ है। बावजूद इसके आईएएस के तौर पर कई उच्चस्त पदों पर महिलायें आज तक नहीं पहुंची हैं और पुरूशों की तुलना में प्रतिषत भी गिरा हुआ है। कहा जाये तो प्रषासनिक सेवा में महिलाओं की उपस्थिति कम जरूर है मगर इसका ग्राफ प्रतिवर्श ऊंचा तो हो रहा है। जाहिर है सुषासन को बढ़त देने के लिए प्रषासन में लैंगिक असमानता को समाप्त करना होगा साथ ही इनकी उपादेयता को उपलब्धिमूलक बनाकर समस्याओं को समाधान देना भी आसान रहेगा। 

  दिनांक : 16/05/2022


डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

(वरिष्ठ  स्तम्भकार एवं प्रशासनिक चिंतक)

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ  पॉलिसी एंड एडमिनिस्ट्रेशन 

लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर

देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)

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