Monday, April 30, 2018

चीन यात्रा से भारत को आखिर क्या मिला!

जब कूटनीतिक कसौटी पर चीन को कसने की बारी आती है तो बीते सात दषकों की पड़ताल यह इषारा करती है कि इसमें चीनी अधिक और मिठास कम ही रही है। प्रधानमंत्री मोदी लगभग चार वर्शों के कार्यकाल में चार बार चीन की यात्रा कर चुके हैं। इस उम्मीद में कि पड़ोसी से सामाजिक-सांस्कृतिक समरसता के साथ आर्थिक उपादेयता भी परवान चढ़ेगी पर सीमा विवाद और चीन की सामरिक नीतियों ने दूरियों को कभी पाटने का अवसर ही नहीं दिया। निष्चित तौर पर यह राहत की बात है कि प्रधानमंत्री मोदी और चीनी राश्ट्रपति षी जिनपिंग के बीच उन्हीं के षहर वुहान में दो दिवसीय अनौपचारिक षिखर वार्ता सकारात्मक माहौल में हुई और सही मोड़ पर रही। हालांकि यह दोनों देष के नेताओं के बीच एक ऐसी षिखर वार्ता थी जिसका न कोई निष्चित एजेण्डा था और न ही किसी प्रकार की घोशणा पत्र जारी करने की औपचारिकता थी। चार मुद्दे पर सहमति बनी जिसमें सीमा पर षान्ति, अफगानिस्तान के साथ काम करने और विषेश प्रतिनिधि नियुक्त करने समेत आतंक पर सहयोग षामिल था। गौरतलब है कि यह यात्रा दोनों देषों के बीच उस संतुलन को प्राप्त करने की कोषिष थी जो जून 2017 में डोकलाम विवाद के चलते उपजे थे और 73 दिन तनाव में गुजरे थे। हालांकि जुलाई के अन्तिम दिनों में डोकलाम से दोनों देष की सेना पीछे हट गयी थी इसके पीछे बड़ी वजह अगस्त के प्रथम सप्ताह में ब्रिक्स की बैठक थी और चीन इस बैठक में ऐसा कोई संदेष नहीं देना चाहता था जिससे उसकी स्थिति को दुनिया दूसरी नजर से देखे। डोकलाम विवाद कोई हल्का विवाद नहीं था क्योंकि चीन ने भारत को उतना तो धमकाने का काम किया ही था जितना कि युद्ध के लिए जरूरी हो जाता है पर यहां भारत ने बहुत संयम दिखाया था और यही भारत की मजबूती भी है।
मोदी ने अपने दौरे में सम्बंधों की बेहतरी के लिए जो पांच सूत्री एजेण्डा पेष किया उसकी तुलना प्रथम प्रधानमंत्री नेहरू के 1954 के पंचषील से की जा रही है जिसमें समान दृश्टिकोण, बेहतर संवाद, मजबूत रिष्ता और साझा विचार समेत साझा समाधान षामिल है। ध्यान यहां यह भी देना है कि जब किसी भी देष की हकीकतें दो प्रकार की हो जाती हैं तो सुविधा के बजाय दुविधा बढ़ती है और भरोसा भी कमजोर होता है। चीन इस धारणा से बहुत अलग नहीं है। डोकलाम के समय चीन की हकीकतें कुछ और बयान कर रही थी पर अब षायद कुछ और बावजूद इसके सावधान तो भारत को ही रहना पड़ेगा। हालांकि मोदी और जिनपिंग ने यात्रा के दूसरे दिन भारत-चीन सीमा पर षान्ति बहाल रखने का संकल्प लिया परन्तु इसका फायदा तब है जब चीन इस पर कायम रहे। गौरतलब है कि 1954 के पंचषील के बाद भारत और चीन अपने समझौते से देषीय सम्प्रभुता के साथ दोस्ती की मिसाल कायम कर रहे थे पर 1962 में चीन की हकीकत कुछ और दिखी। जिनपिंग ने कहा है कि उनका देष मोदी के बताये पंचषील के नये सिद्धांतों से प्रेरणा लेकर भारत के साथ सहयोग और काम करने को तैयार है। विचार अच्छे हैं मगर अर्थ इसी रूप में रहे तो। अच्छी बात है कि ऐसी अनौपचारिक वार्ता से अच्छी बातें बाहर आती हैं। इसमें कोई दुविधा नहीं कि भारत और चीन का सम्बंध प्रतिबद्धता और सहयोग पर आधारित है और इस दिषा में सहयोग की और जरूरत भी है। भारत को परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह (एनएसजी) से लेकर आतंकी मसूद अजहर समेत आतंकवाद जैसे मुद्दे पर चीन के सहयोग की जरूरत है जबकि चीन को मिसाइल टैक्नोलाॅजी कंट्रोल रिज़ीम (एमटीसीआर) समेत जिनपिंग के महत्वाकांक्षी योजना वन बेल्ट, वन रोड को सफल बनाने में भारत को साथ की आवष्यकता है। हालांकि वन बेल्ट, वन रोड के मामले में भारत पहले ही नाराजगी जता चुका है क्योंकि यह परियोजना पाक अधिकृत कष्मीर से होकर जा रही है।
चीन के राश्ट्रपति षी जिनपिंग भी भारत की यात्रा कर चुके हैं। सम्भव है कि भारत की तस्वीर से वे भी बाकायदा वाकिफ हैं। दोनों षीर्श नेताओं की मुलाकात से सवाल घटने के बजाय बढ़े हुए दिखते हैं जिसमें एक यह भी है कि आखिर सबके बाद भारत को क्या फायदा मिल रहा है। क्या मुलाकात से सीमा पर चीन की आक्रमकता घटेगी। क्या चीन डोकलाम जैसी स्थितियों से परहेज कर सकेगा। फहरिस्त और बड़ी है पर जब रिष्ते सुधारने होते हैं तो कुछ को नजरअंदाज करना ही होता है। असल में परस्पर परिपक्वता की यहां  बहुत आवष्यकता है और पड़ोसी होने के अर्थ को चीन को तुलनात्मक अधिक समझना है। सभी जानते हैं कि दक्षिण चीन सागर में रणनीतिक मोर्चेबंदी के चलते चीन तुलनात्मक सतर्क है। भारत, अमेरिका, जापान जैसे देष का कई मोर्चे पर साथ होना भी चीन को अखरता है जबकि षक्ति संतुलन के सिद्धान्त में ये अन्तर्निहित सिद्धान्त माने जाते रहे हैं कि ताकत इधर की उधर होती रहती है। जहां तक संदर्भ है चीन यह जरूर चाहता है कि अमेरिका और जापान जैसे देषों के साथ भारत की सामरिक भागीदारी उसके विरूद्ध न हो परन्तु भारत भी यह चाहता है कि पाकिस्तान को चीन उसे भारत के खिलाफ हथियार न बनाये साथ ही भूटान, नेपाल तथा बांग्लादेष समेत हिन्द महासागर में स्थित मालदीव जैसे देषों के साथ वह उस स्थिति तक न जाय जहां से भारत के हित खतरे में पड़ते हों। वैसे ये भी देखा जा रहा है कि अब देषों के बीच कूटनीति निजी सम्बंधों पर टिक गये हैं यही कारण है कि मोदी-जिनपिंग पुराने आधारों से चीजें न तय करके आगे की परिस्थितियों के साथ काम कर रहे हैं।
रणनीति के लिहाज़ से दोनों देषों के बीच परस्पर हो रहे आर्थिक गतिविधियों पर भी नजर डाला जाय तो तस्वीर यह इषारा करती है कि 84 अरब डाॅलर का कारोबार दोनों देष आपस में कर रहे हैं लेकिन यहां पर सर्वाधिक लाभ में चीन ही है। गौरतलब है कि 100 अरब डाॅलर तक इसे पहुंचाने की आम सहमति है। पीएम मोदी ने जिनपिंग से मुलाकात के बाद प्रतिनिधिमण्डल स्तर पर बातचीत में यह भी कहा कि दोनों देषों पर दुनिया की 40 फीसदी आबादी की जिम्मेदारी है। गौरतलब है कि चीन और भारत जनसंख्या के मामले में दुनिया के सबसे बड़े देष हैं और इन्हें सब कुछ उपलब्ध कराना बड़ी जिम्मेदारी है। ऐसे में मोदी ने जो स्ट्रेन्थ की एहमियत बतायी है वह इसके काम आ सकती है। अन्ततः यह भी है कि क्या ऐसी मुलाकातों से भारत वह सब हासिल कर सकता है जिसकी रूकावट चीन है। अगर जिनपिंग के इषारे को समझे तो उनके इस कथन में कि होती रहेंगी ऐसी मुलाकातें सहज पहलू लिये हुए है। षी जिनपिंग का यह कहना कि राश्ट्रीय विकास पर पूरा ध्यान देने, साझा फायदे के मुद्दे पर मदद बढ़ाने और स्थायी समृद्धि तथा वैष्विक षान्ति के लिए सकारात्मक सहयोग सहित तमाम बातें यही इषारा कर रहे हैं कि मुलाकात का कोई नकारात्मक साइड इफैक्ट नहीं है बल्कि ऐसी अनौपचारिक मुलाकातों से पटरी से हटे मुद्दे नजर में रहेंगे और हल करने के सार्थक प्रयास से जुड़े रहेंगे। सम्भव है ऐतिहासिक और अनौपचारिक चीन की इस यात्रा को तुरन्त तो नहीं लेकिन वक्त के साथ लाभ में तब्दील होते षायद देखा जा सकेगा। 

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
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