Wednesday, April 11, 2018

भारत बंद मे सुशासन की खोज

यहां यह समझ लेना बहुत जरूरी है कि मनुश्य के विविध कार्यक्षेत्रों में भी विकास के लिए क्रान्तियों के जरिये रास्ता साफ होता रहा है पर यही विकास भारत बंद से मिलेगा षायद ही कोई समर्थन करे। वर्ग की परिभाशा और वर्गविहीन समाज की व्याख्या करने वाले लोगों की संख्या देष में कम नहीं है। जब हम यह कहते हैं कि स्वतंत्रता, समता और समरसता आदि के आदर्षों को हमें सिद्ध करना है तो हमारा अर्थ उस अर्थ से भिन्न होता है जो मुद्दों को उभार कर देष के लिए ही प्रतिरोधक बन जाते हैं और राजनीति करते हैं। गौरतलब है कि बीते 2 अप्रैल और 10 अप्रैल को यानी सप्ताह भर के भीतर दो बार भारत बंद हुआ। किसका भारत अधिक बंद था इस पर भी विमर्ष जारी है। जाहिर है भारत विविधता से भरा देष है पर यहां की एकता भी बेमिसाल है। इसी के बीच अपने-अपने हिस्से की लड़ाई भी यहां रही है। बरसों से संघर्श को बड़ा दिखाने के लिए भारत बंद करने की प्रथा रही है और उसी क्रम में यह बंद भी षामिल है पर इस पर भी मंथन होना चाहिए कि बंद क्यों था और हासिल क्या हुआ? 2 अप्रैल के भारत बंद के केन्द्र में एससी/एसटी एक्ट था। गौरतलब है सुप्रीम कोर्ट ने इस एक्ट में तत्काल एफआईआर और गिरफ्तारी की मनाही की बात कही थी जिसे लेकर वर्ग विषेश ने इसे अपने विरूद्ध समझा और संघर्श की जो सीमा हो सकती है वहां तक पहुंचने की कोषिष की जिसका नतीजा भारत बंद था। इस बंद से दस राज्य हिंसा की चपेट में आये आगजनी में अनेक पुलिसकर्मियों समेत सैकड़ों घायल हुए और दर्जन भर की जिन्दगी समाप्त हुई जबकि सैकड़ों हिरासत में भी लिए गये। 
2 अप्रैल के भारत बंद के प्रतिउत्तर में 10 अप्रैल को भी भारत बंद किया गया। पहला बंद जिस तरह सफलता के लिए जाना जाता है दूसरा वाला वैसा नहीं था। जाहिर है 10 अप्रैल के बंद को जनता ने नकार दिया। आंकड़े भी बताते हैं कि द्विज और दलित जातियों का यहां आंकड़ा 15 और 85 फीसदी में है। जाहिर है छोटे और बड़े बंद का असर इसके कारण भी सम्भव है। भले ही लोगों ने समझदारी दिखा कर 10 अप्रैल वाले भारत बंद को बेअसर कर दिया हो मगर बिहार के कुछ जिलों में बंद की आड़ में हिंसा हुई जबकि कई राज्यों में एहतियात और सतर्कता के नाम पर जीवन अस्त-व्यस्त रहा। ऐसा नहीं है कि इसमें तकलीफ जनता को ही हुई है बल्कि सुरक्षा बलों को भी अकारण परेषानी का सामना करना पड़ा है। ज्यादातर इलाकों में धारा 144 लागू की गयी थी यह बंद 2 अप्रैल के बंद की तुलना में न तो उतना हिंसक था और न ही उतना सार्थक। यहां दो दुविधा है पहला यह कि भारत बंद के दौरान यदि हिंसा से देष जले और नागरिक इसके षिकार हों साथ ही पूरी व्यवस्था चैपट हो जाय तो क्या इसे बड़ा बंद कहेंगे जबकि दूसरी दुविधा ये है कि देष के संविधान के सीमाओं को ध्यान में रखते हुए बिना व्यवस्था को बिगाड़े और देष की दुर्दषा किये बिना आंदोलन बड़ा हो जाय तो इसे बड़ा संघर्श कहेंगे। यदि इन दोनों में किसी एक का चुनाव करना हो तो षायद दूसरे बंद के प्रति आकर्शण अधिक होगा। हालांकि बंद कैसा भी हो यदि भारत बंद है तो कहीं से उचित नहीं कहा जा सकता भले ही सरकार या अदालत ऐसे दबाव से निर्णय ही क्यों न लेती हों। समाज में इसका इस तरह के संदर्भ का प्रत्येक अपने तरीके से अर्थ निकालेंगे। अमन पसंद लोग न तो सनसनी चाहेंगे और न ही देष में संकट साथ ही अफवाहों से भी गुरेज रखते हैं। यही तमाम कारण हैं कि 10 अप्रैल के बंद को जनता ने नकारा और यह भी चेताने की कोषिष की कि समस्या का हल का कुछ और विकल्प हो सकता है। इसमें भी दुविधा नहीं कि करोड़ों की तादाद में बेरोजगार युवा हैं जो खाली हैं और किसी भी आंदोलन को ताकत भी दे सकते हैं और दुरूपयोग भी कर सकते हैं। 
विदित हो कि अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम के सम्बंध में बीते 20 मार्च को देष की षीर्श अदालत के फैसले के विरोध में दलित और आदिवासी संगठनों के तरफ से आयोजित भारत बंद का असर व्यापक रहा है मगर षान्तिपूर्ण कतई नहीं। उत्तर प्रदेष, मध्य प्रदेष, राजस्थान, बिहार, पंजाब, गुजरात और हरियाणा समेत कई प्रान्त हिंसा और आगजनी के षिकार हुए। बसें जलाई गयीं, निजी वाहन भी आग के हवाले किये गये और रेल सम्पत्ति को भी नुकसान पहुंचाया गया। ट्रेनें क्षतिग्रस्त भी हुईं और लेटलतीफ भी। गौरतलब है कि एससी/एसटी एक्ट 1989 के तहत तुरंत गिरफ्तारी पर रोक लगाने और अग्रिम जमानत रोक लगाने का फैसला वर्ग-विषेश को पचा नहीं। निहित संदर्भ यह भी है कि दलित हों या चाहे समाज के अन्तिम पायदान पर खड़ा अन्य तबका उनके मामले पर भारत बंद का समर्थन किया जा सकता है क्योंकि लोकतंत्र में किसी फैसले का विरोध करने का अधिकार नागरिकों को है पर जब कानून अपने हाथ में लेते हैं और सार्वजनिक सम्पत्ति को तहस-नहस करते हैं तब यह संविधान के लिए चुनौती बन जाती है। भले ही ऐसा करने से इसकी सफलता दर ही क्यों न बढ़ती हो। गौरतलब है कि अदालत का मकसद कानून के दुरूपयोग को रोकना मात्र है। कोर्ट ने कहा है कि वे बेगुनाहों के लिए चिंतित है और झूठी षिकायत पर किसी बेगुनाह को जेल नहीं जाना चाहिए। जेल जाना भी एक दण्ड है, अनुच्छेद 21 में मिले जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार पर विचार करते हुए अदालत ने बेगुनाहों को बचाने के लिए ऐसा फैसला दिया। फिलहाल वर्ग विषेश के विरोध को देखते हुए कह सकते हैं कि फैसले का संकेत उन तक वैसा नहीं पहुंचा जैसा न्यायालय पहुंचाना चाहता था। दो टूक यह भी है कि इसमें राजनीति भी खूब हुई है नहीं तो किसकी मजाल कि सर्वोच्च न्यायालय के खिलाफ भारत बंद करे। हालांकि लोकतंत्र है आवाज नहीं दबाई जा सकती।
भारत की सामाजिकी और वर्ग संरचना हजारों वर्श पुरानी है। समाजषास्त्रीय दृश्टिकोण यह इषारा तो करते हैं कि सवर्णों को और मानवीय होना चाहिए। जब तक इस देष के सवर्ण जातियों में रत्ती भर भी इसकी गिरावट बनी रहेगी दलितों को अपमान और अनादर होने की सम्भावना बरकरार रह सकती है। आरोप यह भी रहता है कि सरकारी दफ्तर से लेकर स्कूल, काॅलेज समेत विभिन्न संस्थाओं में सवर्णों का ही बोलबाला है और दलित भेदभाव के षिकार होते रहे हैं। यह एक सामाजिक अत्याचार तो है और सामाजिक दुराव भी पर इस मामले में केवल सवर्णों को ही दोशी ठहरा देना पूरा न्याय नहीं है। कानूनों की आड़ में कुछ लोगों में बदले की भावना से भी ज्याद्तियां हुई हैं एससी/एसटी एक्ट इससे जुदा नहीं है। सभी इस बात से वाकिफ हैं कि 1961 के दहेज एक्ट के दुरूपयोग की बात होती रही है। इसकी आड़ में कुछ ने ससुराल पक्ष के सभी सदस्यों को भी जेल भिजवाया है। बहरहाल खास यह भी है कि एससी/एसटी एक्ट के इर्द-गिर्द दलित राजनीति भी उभरी है और इसमें संषोधन को लेकर जो प्रसंग आया वह भी कहीं से गैरवाजिब नहीं है। भारत सुषासन से भरा देष है जिसकी परिभाशा ही लोक प्रवर्धित अवधारणा से प्रेरित है जिसके केन्द्र में आर्थिक और सामाजिक न्याय निवास करता है। जाहिर है भारत बंद व्यवस्था को षून्य की ओर धकेलता है जबकि समस्या का हल षिखर की ओर ले जाता है। जो भारत बंद में सुषासन खोज रहे हैं वो सियासत कर रहे हैं और कुछ हद तक देष की षक्ल बिगाड़ रहे हैं। बावजजूद इसके यह बात सभी को सोचना है कि जो उन्हें अच्छा नहीं लगता वो षायद दूसरों को भी अच्छा नहीं लगता। अगर 2 अप्रैल का भारत बंद एक वर्ग-विषेश को अच्छा नहीं लगा तो 10 अप्रैल वाला भी दूसरे वर्ग को अच्छा नहीं लगा होगा।


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
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