Monday, April 23, 2018

महाभियोग संवैधानिक मगर खेल राजनीतिक

स्वतंत्र भारत में पहली बार सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ महाभियोग लाने के लिए विपक्ष एकजुट हुआ। महाभियोग प्रस्ताव की चर्चा काफी दिनों से थी। बजट सत्र के दौरान कांग्रेस ने इसकी मुहिम षुरू की थी पर मामला थम गया था लेकिन जैसे ही जस्टिस लोया मामले में सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया  विपक्ष ने यह कदम सक्रियता से उठा लिया। नोटिस में जस्टिस दीपक मिश्रा के खिलाफ पांच आधार गिनाये गये जिसमें पद के दुरूपयोग का आरोप भी षामिल है। इसमें कोई दुविधा नहीं कि लोकतांत्रिक व्यवस्था के अन्तर्गत गणतंत्र वाले भारत में जिन संस्थाओं का संविधान में उल्लेख है उसमें न्यायपालिका सर्वाधिक निरपेक्ष और लोक अधिकारों की सुरक्षा के लिए जानी जाती है परन्तु एक सच्चाई यह भी है कि कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच रस्साकसी बरसों से रही है और आज भी कहीं-कहीं कुछ मामलों में दिखती है। दूसरे षब्दों में कहा जाय तो कार्यपालिका यह मनसूबा रखती रही है कि न्यायपालिका उनके मुताबिक चले पर जब-जब ऐसी नौबत आयी है तो संविधान का संरक्षण करने वाली न्यायपालिका अपने दायित्वों से कोई समझौता नहीं किया। राजनीतिक खेल भी खूब होते हैं और न्यायपालिका के नैतिक बल का भी इम्तिहान खूब होता रहा है पर यह बात दावे से कह सकते हैं कि यदि इस संस्था ने दबाव महसूस किया होता तो मूल अधिकार और मानव अधिकार आज तितर-बितर जरूर हुए होते। कांग्रेस ने जिन वजहों से महाभियोग का कदम उठाया वह वजह वाजिब हो सकते है साथ ही संविधान और विधान की दृश्टि से यह गलत भी न हो परन्तु यदि इसमें लेष मात्र भी राजनीति है तो इसे उचित नहीं कहा जायेगा। देष के वित्त मंत्री अरूण जेटली महाभियोग के मामले में कांग्रेस पर यह लानत-मलानत कर रहे हैं कि उसने इसे राजनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया है। वैसे सत्ताधारियों को भी अपने गिरेबान में झांक लेना चाहिए कि क्षेत्राधिकार के बाहर रसूक बढ़ाने से वे भी बाज आयें। गौरतलब है कि जब प्रधान न्यायाधीष टीएस ठाकुर थे तब कार्यपालिका के बीच दूरी भी थी और कुछ दरक भी थी। यह क्यों नहीं समझते कि न्यायपालिका संविधान की वह स्वतंत्र और निरपेक्ष संस्था है जो किसी भी समस्या का सार्थक हल है। 
भारतीय संविधान के भाग 5 के अध्याय 4 के अन्तर्गत अनुच्छेद 124 से 147 के बीच उच्चत्तम न्यायालय की पूरी व्यवस्था दी गयी है। जिसमें कहा गया है कि कोई न्यायाधीष 65 वर्श की आयु तक पद धारण कर सकेगा और राश्ट्रपति को सम्बोधित कर अपने हस्ताक्षर सहित लेख द्वारा पद त्याग कर सकेगा। परन्तु अनुच्छेद 124(4) में यह व्यवस्था भी है कि उच्चत्तम न्यायालय के किसी न्यायाधीष को साबित कदाचार या असमर्थता के आधार पर महाभियोग द्वारा हटाया जा सकता है। देष की षीर्श अदालत के प्रधान न्यायाधीष जस्टिस दीपक मिश्रा को हटाने की कवायद इसी को ध्यान में रखकर बीते कुछ दिनों से देखी जा रही है। कांग्रेस समेत 7 विपक्षी दलों ने इस प्रस्ताव को आगे बढ़ाया भी परन्तु राज्यसभा के सभापति और उपराश्ट्रपति वैंकेया नायडू ने इसे खारिज कर दिया वजह प्रस्ताव का मेरिट में न होना बताया गया है। ऐसा फैसला लेने से पहले उपराश्ट्रपति ने कानून के विषेशज्ञों से इस पर सलाह-मषविरा भी किया। गौरतलब है कि देष का उपराश्ट्रपति राज्यसभा के पदेन सभापति होते हैं ऐसे में यह फैसला सभापति का है न कि उपराश्ट्रपति का। प्रस्ताव निरस्त होने के बाद कांग्रेस के पास क्या विकल्प है यह भी समझना होगा। कांग्रेस सुप्रीम कोर्ट जा सकती है और सभापति के फैसले को चुनौती भी दे सकती है। इसकी न्यायिक समीक्षा हो सकती है। ध्यान देने योग्य बात यह भी है कि महाभियोग की प्रक्रिया किन आरोपों पर लागू हो सकती है। नियम यह कहता है कि जब इस तरह का कोई नोटिस दिया जाता था तो राज्यसभा सचिवालय दो बातों की जांच करता है पहली जांच उन सांसदों की जिन्होंने इस पर हस्ताक्षर किये हैं और दूसरे यह देखना कि इसमें नियमों का पालन किया गया है या नहीं।
यह बात दुर्भाग्यपूर्ण है कि कानून जानते हुए भी एक निष्चित सीमा तक महाभियोग के मुद्दे को सार्वजनिक नहीं किया जा सकता राजनीतिक दल इस पर सार्वजनिक बहस कर रहे हैं इसे लेकर हम सभी बहुत क्षुब्ध हैं। सुप्रीम कोर्ट की यह टिप्पणी वाकई में गौर करने वाली है। सबको पता है कि जब महाभियोग लाने वाले विपक्षी इसे अंजाम तक पहुंचा ही नहीं सकते तो जान-बूझकर ऐसा काम क्यों कर रहे हैं जिससे देष में न्यायपालिका के मामले में संदेह वाली छवि बन रही हो। सुप्रीम कोर्ट के निर्णय ऐसे होते हैं जिसमें न कोई पक्षपात है और न ही किसी प्रकार का द्वेश है और न ही इससे कोई आहत होता है। कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि कोई फैसला जब सरकार या विपक्ष के मन मुताबिक नहीं होता तो ये न्यायाधीषों को कटघरे में खड़ा कर देते हैं। षायद यही वजह रही होगी कि षीर्श अदालत ने कहा कि जस्टिस लोया मामले की याचिका आपराधिक अवमानना के समान थी और उसका इरादा न्यायपालिका पर हमला करना था। इतना ही नहीं न्यायालय ने यह भी देखा कि मामले विषेश में वकील साक्ष्य गढ़ने की कोषिष कर रहे थे। सुप्रीम कोर्ट का भी मानना है कि जनहित याचिका जरूरी है परन्तु उसका दुरूपयोग चिंताजनक है। महाभियोग पर जिस प्रकार विपक्षी जोर दिये उससे ऐसा लगता है कि न्यायपालिका की कार्यषैली से लोकतंत्र को खतरा हो गया है जबकि सच्चाई यह है कि इसके उलट न्यायपालिका ही लोकतंत्र को खतरे से बचाता रहा है।
वैसे एक बात समझना बड़ा जरूरी है कि कांग्रेस ने अन्य विपक्षियों का साथ लेकर यदि महाभियोग जैसे कदम उठाये हैं तो क्या इसके पीछे सत्तासीन को जिम्मेदार ठहराना कुछ हद तक सही नहीं है। केन्द्र में सत्ताधारी भाजपा और हिंदुत्व के उभार से लगातार सरकारें विस्तार ले रही हैं। मौजूदा समय में केवल चार राज्यों तक कांग्रेस सिमटी हुई है जबकि 22 राज्यों में सहयोगियों सहित भाजपा की सरकार चल रही है। इतनी बड़ी सत्ताधारी विस्तार के चलते केन्द्र सरकार ने कई संवैधानिक संस्थाओं को कुछ हद तक मन माफिक करने की कोषिष भी की है। ऐसा नहीं है कि यह पहली बार हो रहा है इन्दिरा गांधी के षासन काल में न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच भी तनाव थे। गौरतलब है कि न्यायपालिका के अधिकारों को भी चोट पहुंचाने की कोषिष की गयी थी तब न्यायपालिका ने अपने क्षेत्राधिकार का उपयोग करते हुए उन्हीं दिनों संविधान के कुछ हिस्सों को मसलन मूल अधिकार जैसों को मूल ढांचा घोशित किया था ताकि सरकारें जनता का तनिक मात्र भी अहित न कर पायें और आज भी षीर्श अदालत विधायिका और कार्यपालिका की उस मनमानी पर अंकुष लगाती है जो बिंदु संविधान को चोट पहुंचाते हैं। अति आत्मविष्वास से भरी मौजूदा सरकार भी कुछ ऐसी स्थितियां पैदा कर रही हैं या कर सकती है जो विपक्ष को अखर रहा है। न्यायालय के कुछ निर्णयों में जहां निरपेक्षता पर सवाल उठ रहा है उसे लेकर कुछ हद तक सत्ता भी जिम्मेदार है। इन दिनों अयोध्या मामला सुप्रीम कोर्ट में है और इस पर भी निर्णय आना है जिसे लेकर भी संदेह व्याप्त हो सकता है। जो न्यायपालिका और देष दोनों दृश्टि से सही नहीं है। ऐसे में प्रष्न उठना लाज़मी है कि क्या न्यायाधीषों का उपयोग राजनीतिक उद्देष्यों के लिए किया जा रहा है। वास्तव में राजनीति के तहत मुख्य न्यायाधीष को निषाना बनाकर महाभियोग में घसीटना सही तो नहीं है परन्तु संविधान के कदाचार को लेकर ऐसा कदम उठाना कांग्रेस का अधिकार भी है जिस पर सभापति के निर्णय से विराम लग गया है। फिलहाल समय की कसौटी पर सभी को खरा उतरना है परन्तु ध्यान रहे कि ये देष की वे मानक संस्थायें हैं जिसके बने रहने से देष बनता है और जिस पर संदेह होने से देष बिखरता है। रही बात राजनीति की तो दूध का धुला कोई नहीं है न सत्ता न विपक्ष। 

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

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