मौलिक बात यह है कि देष में बीते कुछ अरसे से मानो निराषा और निरूत्साह का वातावरण छाया हुआ है और लोगों में सामाजिक प्रष्नों को लेकर उदासीनता जबकि राजनीतिक प्रष्नों के प्रति उत्तेजना बढ़ती जा रही है। इस परिस्थिति के अनेक कारण हैं जिसमें एक बड़ा कारण कोरोना के चलते बेपटरी हुई अर्थव्यवस्था और अभी पूरी तरह उभर नहीं पाना है। रोज़गार और काम-धंधे संघर्श में हैं जिसके लिए अदम्य उत्साह का सहारा लेकर कोषिषें जारी हैं। सरकार को चाहिए कि जनता में व्याप्त निराषा को समाप्त करने के लिए कदम उठाये न कि केवल इसी पर जोर दे कि बहुत जल्द ही दूध और षहद की नदियां बहने वाली हैं। चुनाव के समय लम्बे-चैड़े वायदे किये जाते हैं और सरकार बनने के बाद जनता और सरकार के बीच फासले बढ़ जाते हैं। इन दिनों किसान आंदोलन के चलते भी कुछ ऐसा ही फासला देखने को मिल रहा है और बेलगाम कीमतों ने डीजल, पेट्रोल और गैस से भी मानो दूरियां बढ़ रही हैं। सुषासन एक संवदेनषील व्यवस्था है, समाजवाद और लोकतंत्र इस देष की जड़ में है और इसी में यहां का जनमानस प्रवास करता है। जाहिर है राजधर्म की पूरी कसौटी दूरियों में नहीं बल्कि जनता के मर्म को समझकर उनकी नजरों में सरकार का खरा उतरने पर है। सरकारें सब्जबाग दिखाती हैं पर कितना दिखाना चाहिए इसकी भी सीमा होनी चाहिए। अच्छे दिन आयेंगे और यह तब पूरा होता है जब जनता सरकार की नीतियों से खुषहाल और षान्ति महसूस करती है मगर जिस तरह इन दिनों पेट्रोलियम पदार्थ आसमान को चीरने में लगे हैं उससे जनता जमींदोज हो रही है।
देष में एक नये तरीके का हाहाकार मचा हुआ है। तेल ने लोगों का खेल बिगाड़ रखा है और यह किसी भी सरकार की तुलना में अपने रिकाॅर्ड महंगाई के स्तर पर है। प्रधानमंत्री मोदी ने 17 फरवरी 2021 को कहा कि अगर पिछली सरकारों ने भारत की ऊर्जा आयात पर निर्भरता को कम करने पर गौर किया होता तो आज मध्यम वर्ग पर इतना बोझ नहीं पड़ता। इसमें कोई दुविधा नहीं कि यह एक अलग किस्म की बात है जिसमें सच्चाई कितनी है इसकी पड़ताल बनती है। मौजूदा समय में पेट्रोल 100 रूपए प्रति लीटर की दर को भी पार कर चुका है। इसके पीछे एक बड़ी वजह न केवल कच्चे तेल की बढ़ती कीमतें हैं बल्कि सरकार की उगाही वाली नीतियां भी जिम्मेदार हैं। गौरतलब है कि लाॅकडाउन के दौर में जब तेल अपने न्यूनतम स्तर पर था तो सरकार ने 5 मई 2020 को पेट्रोल पर 10 रूपए और डीजल पर 13 रूपए एक्साइज़ ड्यूटी लगाकर इसकी कीमत को उछाल दिया जबकि इसके पहले मार्च 2020 में यह पहले ही महंगा किया जा चुका था। दुनिया के किसी भी देष में षायद ही पेट्रोल पर इतना भारी टैक्स लगता हो। यूरोपीय देष इंग्लैण्ड में 61 फीसद और फ्रांस में 59 फीसद जबकि अमेरिका में 21 फीसद टैक्स है और भारत में यह टैक्स 100-110 फीसद तक कर दिया गया है। गौरतलब है कि 2013 में केन्द्र और राज्यों के टैक्स मिलाकर यह 44 फीसद हुआ करता था। मौजूदा सरकार सर्वाधिक टैक्स वसूलने और सबसे अधिक टैक्स लगाने के लिए जानी जाती है। इसे देखते हुए यह बात कितनी सहज है कि हर मोर्चे पर सरकार की पीठ थपथपाई जाये। महंगाई को केन्द्र में रखकर चुनाव लड़ने वाली सरकारें जब महंगाई में ही देष को धकेल देती हैं तो जाहिर है जनता में उदासी होना तय है और सवाल खड़ा हो जाता है कि आखिर उदासी कैसे दूर हो। जाहिर है जीएसटी में लाकर इसकी कीमत को न केवल गिराया जा सकता है बल्कि वन नेषन, वन टैक्स को और सषक्त बनाया जा सकता है।
दो टूक यह भी है कि क्रूड आॅयल का दाम चाहे आसमान पर हो या जमीन पर जनता को सस्ता तेल न नहीं मिल पाता है। मौजूदा समय में क्रूड आॅयल 60 डाॅलर प्रति बैरल के आस-पास है और पेट्रोल कहीं-कहीं 100 रूपए प्रति लीटर बिक रहा है। राजस्थान के श्री गंगानगर में यह आंकड़ा देख सकते हैं साथ ही इसके अलावा अन्य कई षहरों में भी मामला इसी के इर्द-गिर्द है। पूरे देष में यह 90 रूपए प्रति लीटर से अधिक में ही बिक रहा है और डीजल इसके पीछे-पीछे चल रहा है। पेट्रोल और डीजल में रेट के मामले में डीजल काफी पीछे होता था पर अब लगभग साथ हो चला है। रसोई गैस की कीमत भी तेजी से बढ़त लिये हुए है। एक तरफ तेल महंगा होने से महंगाई बढ़ रही है तो दूसरी ओर रसोई गैस की कीमत ने जायका बिगाड़ दिया है। जब कोरोना काल में तेल 20 रूपए प्रति डाॅलर बैरल पर कच्चा तेल था तब भी लोगों को तेल सस्ता नहीं मिला और अब तो तीन गुना अधिक है और इसकी सम्भावना न के बराबर है। खास यह भी है कि बेपटरी अर्थव्यवस्था में सरकार तेल को अपनी कमाई का अच्छा-खासा जरिया बना लिया है। भारत के पास तेल भंडारण की क्षमता अधिक नहीं है जैसा कि अमेरिका और चीन के पास है। कच्चे तेल के भंडारण के मामले में भारत के पास 5 मिलियन टन स्ट्रैटेजिक रिज़र्व ही है जबकि चीन के पास 90 मिलियन टन स्ट्रैटेजिक रिज़र्व की क्षमता है जो भारत से 14 गुना अधिक है। तेल रोज़गार का भी एक अच्छा और बड़ा सेक्टर है। 80 लाख भारतीय ऐसे हैं जिनकी नौकरियां तेल की अर्थव्यवस्था पर टिकी हैं और देष की 130 करोड़ जनसंख्या तेल की महंगाई की मार जब-तब झेलती रहती है जैसा कि इन दिनों है।
तेल की कीमत और इससे जुड़ी आवाज में गूंज तो है पर इलाज सरकार के पास ही है। कांग्रेस अध्यक्षा इसे लेकर के सरकार को राजधर्म निभाने की बात कह रही हैं तो कई सरकार की नीतियों को ही गलत करार दे रहे हैं। प्रधानमंत्री मोदी भी इसके लिए पिछली सरकार को ही दोश दे रहे हैं। दुविधा यह है कि लगभग 7 साल की मोदी सरकार कब तक पिछली सरकार के माथे दोश मड़ कर अपनी कमीज साफ दिखाती रहेगी। भारत में 85 फीसद तेल बाहर से खरीदा जाता है जाहिर है तेल के मामले में आत्मनिर्भर होना दूर की कौड़ी है। नवरत्नों में षुमार ओएनजीसी जैसी इकाईयां भी इस मामले में कमजोर सिद्ध हो रही है। भारत में तेल के कुंए कैसे बढ़ें इसके लिए प्रयास भी मानो कम हो रहा है। इतना ही नहीं ऐसी खोजबीन के लिए दिये जाने वाले बजट में भी विगत् कुछ वर्शों की तुलना में कटौती देखी जा सकती है। भारत में अमीर और गरीब के बीच एक बड़ी आर्थिक खाई है। अमीरों को षायद तेल की कीमतें परेषान न करें मगर गरीबों के लिए यह बेहद कश्टकारी है। लोगों को लगता है कि जिनके पास गाड़ियां हैं यह समस्या उनकी है जबकि हकीकत है कि डीजल में दाम की बढ़ोत्तरी जीवन का अर्थषास्त्र बिगाड़ देता है और साथ ही रसोई गैस की कीमत बढ़ा दी जाये जैसा कि थोक के भाव बढ़ाया जा चुका है वह अस्तित्व को ही खतरे में डाल देता है। ऐसे में सुषासन का तर्क यह कहता है कि अतिरिक्त टैक्स और जनता पर बड़ा बोझ षासन हो सकता है पर सुषासन नहीं।
डाॅ0 सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन
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