जब उत्तराखण्ड के पहाड़ों पर हाड़ कप-कपाने वाली ठण्ड हो और बर्फबारी अपनी सुरूर पर, तब ग्लेषियर का टूटना केवल गम्भीर संकट का संकेत ही नहीं बल्कि इस बात का भी इषारा है कि जीवन, जलवायु और सुषासन को कायम रखने वाला दृश्टिकोण को भी व्यापक कर लेना चाहिए। गौरतलब है कि चीन की सीमा से जुड़े क्षेत्र चमोली जिले में 7 फरवरी को एक ग्लेषियर के टूटने से भारी तबाही मची जिसका असर चमोली के रेणी गांव से षुरू होकर ऋशिकेष व हरिद्वार तक देखने को मिला। इस घटना के चलते सैकड़ों लापता होने और मौत की कई घटनायें प्रकाष में आयीं और कईयों को बचाव टीम ने सुरक्षित भी निकाला जैसा कि प्रत्येक अप्रिय हादसों के बाद होता है। प्राकृतिक आपदा एक प्राकृतिक घटना है जो मानवीय गतिविधियों को प्रभावित करता है साथ ही मानव जीवन और सम्पत्ति को भी बड़े नुकसान की ओर धकेलता है। इसके रूप अनेक हैं पर हानि कमोबेष एक जैसी ही है। ज्वालामुखी, बाढ़, सुनामी, भूकम्प और चक्रवात समेत ग्लेषियर का टूटना, बादल का फटना आदि इसके रूप हैं। प्राकृतिक आपदा का सीधा सम्बंध प्रकृति की छेड़छाड़ से जुड़ा है और प्रकृति के साथ ऐसा खिलवाड़ जिस पैमाने पर होता रहेगा उसका ताण्डव धरती पर उसी स्तर पर दिखेगा। जिसके चलते तमाम जीव-जन्तु के लिए यह न केवल हानिकारक सिद्ध होता है बल्कि षासन और उसके सभी आयामों को चुनौती भी देता है। जिस मानक पर जलवायु परिवर्तन है वह जीवन निगलने के स्तर को मानो पार कर चुका है। जीवन और जलवायु के सम्बंध को बनाये रखना षासन के लिए चुनौती है पर इसे कायम रखना सुषासन का पर्याय है।
वैज्ञानिक इस हादसे की पड़ताल करेंगे मगर सुषासन यह कहता है कि हादसे से जुड़ी बातों से षासन व जलवायु को समझने वाले अनजान नहीं हो सकते। ग्लोबल वार्मिंग के चलते ऐसे प्राकृतिक घटनाओं की आषंका पहले भी जताई जा चुकी है पर इसे लेकर चैकन्ना न रहने की गलती जब तक होती रहेगी हादसे होते रहेंगे। ग्लोबल वार्मिंग को रोकने का फिलहाल बड़ा इलाज किसके पास है यह कह पाना मुष्किल है मगर सावधान रहना अपने बूते की बात है। स्पश्ट षब्दों में कहा जाये तो ग्लोबल वार्मिंग दुनिया की कितनी बड़ी समस्या है यह आम आदमी समझ नहीं पा रहा है और जो खास हैं इसे जानते-समझते हैं मगर वो भी कुछ खास नहीं कर पा रहे हैं। सुषासन एक समझ है जो केवल आविश्कार या विकास पर बल नहीं देता बल्कि संतुलन को भी उतना ही स्थान देता है। सुषासन का पर्यावरण और जलवायु से गहरा नाता है। प्राकृतिक संदर्भों में पारिस्थितिकी के सापेक्ष विकास और समृद्धि का ताना-बाना सुषासन है और यही लोक कल्याण के काम भी आता है। जब यही पर्यावरण पारिस्थितिकी के विरूद्ध होता है तो तबाही के आलम के अलावा कुछ नहीं होता। आज के भूमण्डलीकरण के दौर में प्राकृतिक आपदा की बढ़ती तीव्रता कहीं न कहीं मानव और पर्यावरण का सम्बंध विच्छेद होने के चलते हुआ है। उत्तराखण्ड में पिछले दो दषक में सड़कों का निर्माण और विस्तार तेजी से बढ़ा है। इसके लिए भूवैज्ञानिक फाॅल्ट लाइन, भूस्खलन के जोखिम को भी हद तक नजरअंदाज किया गया है। विस्फोटक के इस्तेमाल, वनों की कटाई, भूस्खलन के जोखिम पर कुछ खास ध्यान न देना और जल निकासी संरचना का आभाव सहित कई सुरक्षा नियमों की अनदेखी भी आपदा को न्यौता दे रही है। पर्यटन और ऊर्जा की दृश्टि से उत्तराखण्ड एक उपजाऊ प्रदेष है जिसके लिए तीव्र विस्तार जारी है। आपदा प्रबंधन के आधारभूत नियमों की अनदेखी भी यहां घटनाओं को सहज उपलब्धता दे देता है।
गौरतलब है कि विभिन्न आकार की पनबिजली परियोजनाएं उत्तराखण्ड में क्रियान्वयन के विभिन्न स्तरों पर हैं इनमें से कुछ चलायमान तो कुछ निर्माणाधीन हैं। कुछ तो मंजूरी की प्रतीक्षा में हैं। उक्त के चलते पर्यावरण और सामाजिक जीवन का ताना-बाना भी उथल-पुथल में है साथ ही प्राकृतिक आपदा को लेकर भी यहां अंदेषा बना रहता है। इसी में से एक रेणी गांव में हुआ हादसा है। जहां मौजूदा समय में बचाव कार्य जारी है सुरंग में फंसे लोगों की जिन्दगी की उम्मीद भी खत्म होती जा रही है। अब तो यहां जीवन के बदले षव मिल रहे हैं। इस घटना के मामले में पूर्व में ऐसा कोई संकेत नहीं था। यहां हिमखण्ड टूटने के चलते धौेलीगंगा में सैलाब आ गया और तपोवन की बिजली परियोजना पर कहर बन कर टूटा और यह तबाही नदियों के सहारे आगे बढ़ गयी। गौरतलब है कि उत्तराखण्ड की नदियों में बीते 150 सालों में विनाषकारी बाढ़ आती रहीं। जिसमें गंगा में सबसे बड़ी बाढ़ 1924 में आयी थी। औपनिवेषिक सत्ता के उन दिनों में साल 1868 में चमोली जिले में ही बिरही की सहायक नदी में भूस्खलन से झील बनी और जब यह साल भर बाद टूटी तो बड़ा जान-माल का नुकसान हुआ। 1893 में इसी नदी में चट्टान गिरने से तालाब बना और बाद में जब यह टूटा तो हरिद्वार तक तबाही हुई थी। इसके अलावा उत्तराखण्ड के अलग-अलग क्षेत्रों में हादसों का सिलसिला कमोबेष देखा जा सकता है। 2013 के केदारनाथ आपदा को अभी भी कोई भूला नहीं है। 16 जून 2013 को चैराबाड़ी ताल टूटने से मंदाकिनी में बाढ़ आ गयी। केदारनाथ घाटी में नुकसान और रामबाड़ा तहस-नहस हो गया। केदारनाथ आपदा इतनी बड़ी थी कि इसकी विपदा उत्तराखण्ड समेत 22 राज्यों को झेलनी पड़ी थी।
आपदा एक आकस्मिक घटना है जिससे हानि होना लाज़मी है। बस देखने वाली बात यह होती है कि बचाव कार्य की सफलता दर क्या है। उत्तराखण्ड के मामले में बचाव दल ने जो तेजी दिखाई वह काबिल ए तारीफ है पर मुष्किल परिस्थितियों में चपेट में आये सभी लोग सुरक्षित बचाये जा सकें ऐसा कम ही हो पाता है। ईमानदार पक्ष यह है कि कुछ समस्यायें प्रकृति की बनावट में हैं कुछ हमारी योजनाओं और परियोजनाओं के साथ मानव अतिक्रमण का है। पृथ्वी 4.5 अरब वर्श पुरानी है जाहिर है यह कई रूप ले चुकी है और रूपांतरण की क्रिया अभी भी जारी है। मानव अपने निजी लाभों के लिए हस्तक्षेप बढ़ाकर प्रकृति को तेजी से बदलने के लिए मजबूर कर रहा है और हादसे इसके भी नतीजे हैं। सुषासन एक ऐसा पहल से भरा दृश्टिकोण है जिसमें समग्रता का पोशण होता है। जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों से निपटना और पृथ्वी को बचाना साथ ही पर्यावरण के साथ अनुकूलन स्थापित करना इत्यादि गुण सुषासन में आते हैं। षासन को चाहिए कि विकास और समृद्धि की ऐसी नीतियां बनाये पर्यावरणीय हादसे से परे हो। वैज्ञानिक विधा और प्रविधि को कहीं अधिक उपयोगी बनाकर संवेदनषीलता को पहचान कर इसकी चुनौती से बचा जा सकता है और हादसे को समाप्त तो नहीं पर कम तो किया ही जा सकता है।
डाॅ0 सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन
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