अर्थषास्त्री थाॅमस राॅबर्ट माल्थस ने लिखा है कि प्रकृति की मेज सीमित संख्या में अतिथियों के लिए सजाई गयी है जो बिना बुलाये आयेंगे वो भूखो मरेंगे। हालांकि माल्थस का यह संदर्भ जनसंख्या और संसाधन से सम्बंधित है मगर इसका रहस्य रोज़गार और सुषासन से भी जुड़ा है। रोज़गार सृजित किये जाते हैं और अवसर की समता से ये युक्त होते हैं जबकि षासन ऐसे ही अवसर देने के चलते सुषासन की ओर होते हैं। जाहिर है रोज़गार और सुषासन का गहरा नाता है। ये वही अर्थषास्त्री हैं जिन्होंने जनसंख्या और संसाधन के अनुपात में यह भी लिखा है कि जनसंख्या गुणोत्तर में बढ़ती है और संसाधन समानांतर क्रम में। इससे यह भी समझने में मदद मिलती है कि आखिर बेरोज़गारी क्यों पनपती है साथ ही यही बेरोज़गारी कई समस्याओं की जननी क्यों है। फिलहाल इन दिनों बेरोज़गारी तीव्र गति लिए हुए है। दुनिया भर में नई तकनीकों के चलते कई पेषे अपने अस्तित्व को खो रहे हैं और रोज़गार के लिए चुनौती बन रहे हैं। भारत में रोज़गार की गाड़ी कहां अटक गयी है इसकी पड़ताल भी जरूरी है। यह संसाधन की कमी के चलते है या रोज़गार चाहने वालों में कौषल की कमी है। जो भी है सुषासन को इस आधार पर भी कसे जाने की परम्परा विगत् कुछ वर्शों से देखी जा सकती है। षासन तब सु अर्थात् अच्छा होता है जब सामाजिक समस्याओं के निदान के लिए संसाधनों का समुचित वितरण और उसके बेहतरीन प्रबंधन में वह सफल हो। जब कोई सरकार अपने नागरिकों को आवष्यक सेवाएं प्रदान करने और उपजी समस्याओं का समाधान देती है तब सुषासन होता है। देष में विकास के जहां नये-नये उपक्रम हैं तो वहीं समस्याओं के मकड़जाल भी देखे जा सकते हैं। इन्हीं में से एक बेरोज़गारी है जिसका सीधा असर नागरिक अच्छा कैसे बन सकता है पर पड़ता है।
प्रासंगिक परिप्रेक्ष्य यह है कि रोज़गार की राह कभी भी समतल नहीं रही और इसे बढ़ाने को लेकर हमेषा चिंता प्रकट की जाती रही है। तमाम कोषिषों के बावजूद रोज़गार के मोर्चे पर खरे उतरने की कसौटी सरकारों के सामने रही और इसका पूरा न पड़ना मानो सुषासन को ही बट्टा लगाया जाता रहा हो। सर्वे कहते हैं कि षिक्षित युवाओं में बेरोज़गारी काफी खराब दषा में चली गयी है। जब एनएसएसओ ने जनवरी 2019 में बेरोज़गारी पर रिपोर्ट जारी कर बताया कि भारत में यह दर 45 साल में सर्वाधिक है तब सरकार की ओर से भी इस पर सवाल उठे थे। इतना ही नहीं इसे झूठा भी करार दिया गया था और कहा गया कि ये अन्तिम आंकड़े नहीं हैं। हालांकि मई 2019 में दूसरी बार सरकार गठन के बाद इसी वर्श में ही श्रम मंत्रालय ने जब बेरोज़गारी के आंकड़े जारी किये तब इसके अनुसार भी देष में 2017-18 में बेरोज़गारी दर 6.1 फीसद की बात सामने आयी जो 45 साल में सबसे अधिक थी और भारतीय अर्थव्यवस्था निगरानी केन्द्र (सीएमआईई) की 2 मार्च 2020 की जारी रिपोर्ट से फरवरी 2020 में यह बढ़कर 7.78 फीसद हो गया। इतना ही नहीं कोविड-19 ने तो रही-सही कसर भी पूरी कर दी और पूरा देष बेरोज़गारी के भंवर में फंस गया। लाॅकडाउन के दौरान तो बेरोज़गारी दर 24.2 फीसद पर चला गया जबकि मार्च में यह आंकड़ा 8.8 फीसद का था। हालांकि कोरोना काल में आॅस्ट्रेलिया, इण्डोनेषिया, जापान, हांगकांग, वियतनाम व चीन समेत मलेषिया जैसे देषों में सबसे अधिक युवा बेरोज़गारी दर बढ़ी। बेषक बेरोज़गारी का उफान इन दिनों जोरों पर है मगर सब कुछ बेहतर करने का प्रयास सरकार की ओर से कमोबेष जारी है। 1 फरवरी 2021 को पेष बजट में एमएसएमई, मैन्यूफैक्चरिंग सेक्टर और मेक इन इण्डिया को बढ़ावा देकर रोज़गार और अर्थव्यवस्था दोनों को मजबूत करने का प्रयास सरकार की ओर से फिलहाल दिखता है। जहां तक सवाल मेक इन इण्डिया का है सरकार ने संकल्प लिया था कि साल 2025 तक मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र का योगदान बढ़ाकर 25 प्रतिषत तक लाया जायेगा। इस कार्यक्रम के जरिये भारत, चीन और ताइवान जैसे विनिर्माण केन्द्रों का भी अनुसरण कर रहा है। ऐसा करने से आयात में कमी आयेगी, तकनीकी आधार विकसित होंगे और नौकरियों में इजाफा होगा। हालांकि यह कार्यक्रम उस स्तर की सफलता से ओत-प्रोत नहीं है इसके पीछे ढांचागत बाधायें, जटिल श्रम कानून और नौकरषाही का संकुचित फ्रेम भी रास्ते का कमोबेष रूकावट माना जा रहा है।
विष्व बैंक के आंकड़े को देखें तो स्पश्ट होता है कि भारत में कई वर्शों से देष की अर्थव्यवस्था में उत्पादन क्षेत्र के योगदान में कुछ खास बदलाव नहीं आया है। जब बदलाव कमतर होगा तो रोज़गार कमजोर होगा और बेरोज़गारी बढ़ेगी। इसके उलट चीन, कोरिया और जापान जैसे अन्य एषियाई देषों में स्थिति कहीं अधिक बदलाव और विनिर्माण क्षेत्र अलग रूप लिए हुए है। बेषक सरकार सत्ता के पुराने डिजा़इन से बाहर निकल गयी हो मगर रोज़गार के मामले में दावे और वायदे अभी भी दूर की कौड़ी है। देष युवाओं का है और रोज़गार को लेकर यहां तुलनात्मक सक्रियता अधिक रहती है मगर स्किल डवलेपमेंट की कमी के चलते भी बेरोज़गारी अपने षबाब पर है। देष में स्किल डवलेपमेंट सेंटर भी अधिक नहीं है और जो हैं वो भी हांफ रहे हैं। भारत में स्किल डवलेपमेंट के 25 हजार केन्द्र हैं। जबकि चीन में ऐसे केन्द्रों की संख्या 5 लाख हैं और दक्षिण कोरिया जैसे छोटे देष में भी एक लाख हैं। सुषासन की बयार कैसे बहे और जीवन अच्छा कैसे रहे यह लाख टके का सवाल है। सवाल मौजूदा सरकार का नहीं है सवाल बीते 7 दषकों के रोज़गारमूलक ढांचे का है। देष में 50 फीसद से अधिक आबादी खेती-किसानी से जुड़ी है और सभी जानते हैं कि यहां भी आमदनी का घटाव और रोज़गार की सीमितता के चलते यह अस्तित्व के लिए खतरा पैदा कर देती है। किसानों की बीते तीन दषकों में लाखों की तादाद में आत्महत्या इस बात को पुख्ता करती है। हालांकि कोरोना के समय में विकास दर वित्त वर्श 2020-21 के प्रथम और द्वितीय तिमाही में उद्योग और सेवा क्षेत्र जमींदोज हो गये थे वहीं कृशि विकास दर 3.4 के साथ अव्वल रहा। इसमें कोई दो राय नहीं कि सरकारी नौकरी सभी को नहीं मिल सकती और यह लगातार घट भी रही हैं। 8वीं पंचवर्शीय योजना जहां समावेषी विकास को लेकर आगे बढ़ रही थी वहीं 10वीं पंचवर्शीय योजना में सरकारी नौकरियों में कटौती का सिलसिला देखा जा सकता है जो अब कहीं अधिक आगे की बात हो गयी है। जाहिर है ऐसे में स्वरोजगार एक बड़ा विकल्प है पर इसके लिए भी आर्थिक सुषासन की ही आवष्यकता है।
संयुक्त राश्ट्र ने सुषासन को सहस्राब्दिक विकास लक्ष्यों का एक अत्यावष्यक घटक माना है क्योंकि सुषासन गरीबी, असमानता एवं मानव जाति की अनेकों खामियों के खिलाफ संघर्श के लिए यह एक आधार भूमि की रचना करता है। जाहिर है इसका आधारभूत ढांचा तभी मजबूत होगा जब युवाओं के हाथ में काम होगा। पिछले कुछ वर्शों से यह बहस हुई है कि नौकरियां तो उपलब्ध हुई हैं मगर कुषल लोगों की ही कमी है। यूपी के मौजूदा मुख्यमंत्री ऐसा कहकर आलोचना भी झेल चुके हैं पर एक हकीकत यह है कि कुषल लोगों की कमी तो है। राश्ट्रीय कौषल मिषन को लेकर इस दिषा में उठाया गया कदम सटीक हो सकता है मगर सफल कितना है आंकड़े नहीं हैं। मानव श्रम को कुषल बनाने के लिए नये अभिकरणों को भी खोलना होगा। 65 फीसद युवाओं वाले देष में एजूकेषन और स्किल के स्तर पर रोज़गार की उपलब्धता स्वयं ही बड़ी चुनौती है। मुद्रा योजना के माध्यम से ऋण धारकों को 12 करोड़ से अधिक रोज़गार धारक के तौर पर सरकार ने माना। कहीं-कहीं तो यह आंकड़ा 16 करोड़ से अधिक का दिखता है जो पूरी तरह गले नहीं उतरता है। क्योंकि रोज़गार के लिए ऋण लेना यह बात पूरी तरह पुख्ता नहीं करता कि सभी को उसी दर से सफलता मिली है। वैसे देखें तो साल 2027 तक भारत सर्वाधिक श्रम-बल वाला देष होगा। अर्थव्यवस्था की गति बरकरार रखने के लिए रोज़गार के मोर्चे पर भी खरा उतरना होगा। भारत सरकार के एक अनुमान के अनुसार साल 2022 तक 24 सेक्टरों में 11 करोड़ अतिरिक्त मानव संसाधन की जरूरत होगी। ऐसे में पेषेवर और कुषल का होना उतना ही आवष्यक है। इसके लिए न केवल सुषासनिक ढांचा बनाना होगा बल्कि टूट चुकी अर्थव्यवस्था और उमड़े बेरोज़गारी के सैलाब को रोकने के लिए नये पैटर्न की खोज भी करनी होगी। रोज़गार कहां से और कैसे बढ़े इसकी भी चिंता स्वाभाविक है। आॅटोमेषन के चलते इंसानों की जगह मषीने लेती जा रही हैं इससे भी नौकरी आफत में है। छंटनी के कारण भी लोग दर-दर भटकने के लिए मजबूर हैं। विष्व बैंक कुछ साल पहले ही कहा था कि भारत में आईटी इंडस्ट्री में 69 फीसद नौकरी पर आॅटोमेषन का खतरा मंडरा रहा है। साल 2018 का एक सर्वेक्षण है जो भारत में औपचारिक क्षेत्र में रोज़गार की संख्या को 6 करोड़ बताता है। इसके अलावा रक्षा क्षेत्र को छोड़ दिया जाये तो डेढ़ करोड़ लोग सरकारी सेवा में कार्यरत हैं। कुल मिलाकर इस आंकड़े के हिसाब से 7.5 करोड़ लोग संगठित और औपचारिक क्षेत्रों में काम कर रहे हैं जबकि असंगठित क्षेत्र में बेरोज़गारी कसौटी में ही नहीं आ पा रही है। वैसे गैर कृशि क्षेत्र में रोज़गार पाये लोगों की संख्या 24 करोड़ बतायी गयी है। मगर कोविड 19 के इस बुरे दौर में करोड़ों की तादाद में जिस कदर नौकरियां गयी हैं और कल कारखाने बंद हुए हैं उसे देखते हुए रोज़गार की कसौटी किस मानक पर है कुछ खास सुझाई नहीं देता है। फिलहाल सरकार को चाहिए कि एक अदत नौकरी की तलाष करने वाले युवाओं के लिए रोज़गार का रास्ता समतल बनाये।
डाॅ0 सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन
लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर
देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)
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