Sunday, February 28, 2021

आंदोलन रास्ता है फैसला नहीं !

सरकार और किसान के बीच सीधा संवाद है बावजूद इसके तीन कृशि कानून को लेकर कोई समतल रास्ता बनता नहीं दिख रहा है। कृशि कानून को लेकर दर्जन भर बैठकें दोनों के बीच हो चुकी हैं पर फासले मानो जस के तस बने हुए हैं। एक माह से अधिक वक्त हो गया है और समाधान के मामले में कोई पहल न तो सरकार की ओर से है और न ही किसान की ओर से जबकि जनवरी के आखिर में प्रधानमंत्री मोदी ने कहा था कि बातचीत केवल एक फोन काॅल की दूरी पर है। बैठक से दोनों की दूरी ठीक उसी प्रकार है जैसे आंख बंद कर लेने से समस्या खत्म हाने का भ्रम पैदा कर लेना। यह बात संदेह से परे नहीं कि कानून को लेकर किसान और सरकार की संवादहीनता किस चमत्कार के इंतजार में है। फिलहाल किसान आंदोलन परिवर्तित स्वरूप ग्रहण करता हुआ विस्तार की ओर है और सरकार मानो स्वयं को सिमटा रही है। 

दो टूक यह है कि लोकतंत्र में आंदोलन लोक सषक्तिकरण का एक आयाम होता है न कि इसका अर्थ सरकार के विरूद्ध होना है। यह बात सरकार जानती भी है और समझती भी है क्योंकि सुषासन से भरी सरकारें जनता के मां-बाप के रूप में काम करना चाहती हैं और किसान उनके लाडलों में षामिल होते हैं। कृशि, उद्योग और सेवा में भले ही कृशि का सकल घरेलू उत्पाद सर्वाधिक घटाव वाला रहा हो फिर भी इसे कमतर आंकने की भूल षायद ही कोई सरकार करने की हिम्मत करती हो। हांलाकि कोरोना के कालखण्ड में जब देष की जीडीपी ऋणात्मक 23 पर पहुंच कर जमींदोज हो रही थी तब कृशि का विकास दर 3.4 फीसद धनात्मक के साथ विकास की जमावट में बेहतरीन बनावट का संकेत दे रही थी। हम लोकतंत्र से बंधे हुए हैं ऐसे में किसान आंदोलन से सरकार को यह भी मालूम हो गया है कि जनता रूपी किसान को क्या चाहिए और जब इस मामले में उचित समाधान की राह खुलेगी तो किसान ही नहीं मुनाफे का बड़ा हिस्सा सरकार के हिस्से में भी जायेगा।

सवाल बड़ा है कि क्या सरकार और किसानों के बीच कोई सुलह का फाॅर्मूला है। सरकार पर यह भी आरोप लगाया जा रहा है कि वह आन्नदाता के खिलाफ लड़ने का फैसला कर लिया है जबकि रविन्द्रनाथ टैगोर के इस कथन को संजीदगी से देखें तो किसानों की अहमियत का ठीक-ठाक पता चलता है। उन्होंने कहा है कि ऐ किसान तू सच ही सारे जगत का पिता है। वैसे एक सच्चाई यह भी है कि कृशि क्षेत्र में प्रयोग ज्यादा और असल में काम कम किये गये हैं। समय-समय पर कृशि उठान की योजना और कृशि उत्पाद का 1967 से कीमत का तय किया जाना और उदारीकरण के बाद सुषासन की राह को पुख्ता करना साथ ही समावेषी और सतत् विकास देष में तेजी से प्रसार करना सरकारों की इच्छाषक्ति तो दिखती है मगर तीन दषक में लगभग चार लाख किसानों की मुफलिसी में आत्महत्या करना भी इसकी कमजोर कड़ी रही है। किसानों के हालात क्या है किसी से छुपा नहीं है। 2022 तक सरकार इनकी आय दोगुनी करने की बात बरसों पहले कह चुकी है। देष में कुल जनसंख्या का आधे से अधिक हिस्सा किसानों से भरा है जाहिर है इनके लिए आर्थिक सुषासन की राह खोलने का मतलब देष की मजबूती का यथार्थ की भी पहचान करना है मगर मौजूदा हालत देखें तो अमेरिका में किसान की सालाना आय भारतीय किसानों की तुलना में 70 गुना अधिक है। आंकड़े यह समझने के लिए पर्याप्त हैं कि भारत का किसान गरीब और कर्ज के बोझ में क्यों होता है और सरकार से क्या अपेक्षा करता है। 

किसान स्वामीनाथन रिपोर्ट को अपने भविश्य के लिए बेहतर समझता है जबकि सरकार बिना रिपोर्ट लागू किये इसकी भरपाई का दावा करती है। ध्यान रहे किसान केवल भावनात्मक राजनीति और वोट का ही जरिया नहीं है यह देष की 130 करोड़ से अधिक लोगों की भूख भी षांत करता है। कृशि सुधार के लिए माॅडल चाहे यूरोप या अमेरिका से लायें पर किसानों के विकास के लिए नीतियां तो देष से ही मिलेंगी और जब यही नीतियां और कानून किसानों के मन-माफिक नहीं होते तो आंदोलन एक रास्ता होता है न कि सरकार से फासला।


डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 

लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर

देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)

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