Wednesday, September 26, 2018

--- तो कैसे अपराधविहीन होगी राजनीति!

....तो कैसे अपराधविहीन होगी राजनीति!
जब देष की शीर्ष अदालत यह कहती है कि राजनीति में अपराधीकरण का होना विनाषकारी और निराषाजनक है तब यह सवाल पूरी ताकत से उठ खड़ा होता है कि अपराधविहीन राजनीति आखिर कब? साथ ही यह भी कि इसकी स्वच्छता को लेकर कदम कौन उठायेगा? सुप्रीम कोर्ट ने सरकार और संसद को ही एक प्रकार से इसकी सफाई की जिम्मेदारी दे दी है। अब देखना यह है कि इस अवसर को ये संस्थायें किस तरह भुनाती हैं। राजनीति की सुचिता और नेताओं के आचरण पर सवाल अक्सर उठते रहे हैं पर ऐसा अवसर षायद ही कभी रहा हो कि जब उन्हीं पर भरोसा किया गया जहां अपराध व्याप्त है। उच्चत्तम न्यायालय ने सीधे तौर पर कह दिया है कि अपराधिक पृश्ठभूमि वाले नेताओं को चुनाव लड़ने से वह नहीं रोक सकता। जाहिर है कि मुख्य न्यायाधीष दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यों की संविधानपीठ ने विधायिका के दायरे में घुसने से स्वयं को रोक दिया है मगर कई प्रमुख बिन्दुओं की ओर संकेत देकर यह भी जता दिया कि राजनीति में वर्चस्व को प्राप्त कर चुके अपराध से षीर्श अदालत कहीं अधिक चिंतित है। अदालत के सुझाये बिन्दु जिसमें हर उम्मीदवार को नामांकन पत्र के साथ षपथ पत्र में अपने खिलाफ लगे आरोपों को मोटे अक्षरों में लिखने की बात निहित है साथ ही पार्टियों को उम्मीदवारों पर लगे आरोपों की जानकारी वेबसाइट पर मीडिया के माध्यम से जनता को देनी होगी इसके अलावा उम्मीदवारों के नामांकन दाखिल करने के बाद कम से कम तीन बार पार्टियों की ओर से ऐसा किया जाना जरूरी है और अदालत ने यह भी सुझाया कि जनता को यह जानने का हक है कि उम्मीदवार का इतिहास क्या है। 
यह एक गम्भीर विशय है कि देष की राजनीति में बाहुबल, धनबल समेत अपराध का खूब मिश्रण हो गया है। देष की सबसे बड़ी पंचायत में अगर एक तिहाई सदस्य अपराधिक आरोपों से लिप्त है तो नागरिकों का भविश्य क्या होगा इसका अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है। इससे भी ज्यादा गम्भीर चिंता का विशय यह है कि सत्तासीन भाजपा के जनप्रतिनिधि इस मामले में सबसे ऊपर हैं जबकि मुख्य विपक्षी कांग्रेस इसके बाद आती है। सवाल दो हैं पहला यह कि अपराध को राजनीति में किसने प्रवेष कराया, दूसरा इसे फलने-फूलने का अवसर किसने दिया। कांग्रेस को सबसे अधिक करीब छः दषक सत्ता चलाने का अनुभव है। जाहिर है अपराध का वास्ता और समतल रास्ता इन्हीं के दौर में खुला। भाजपा कई बार गठबंधन के साथ सत्ता में रही पर मौजूदा मोदी सरकार के काल में अपराध मुक्त विधायिका की संकल्पना थी पर हकीकत कुछ और है। पड़ताल बताती है कि लोकसभा के 542 सांसदों में 179 के विरूद्ध अपराधिक मामले हैं इनमें 114 गम्भीर अपराध की श्रेणी में आते हैं। इसी तरह राज्यसभा में 51 के खिलाफ अपराधिक मुकदमे चल रहे हैं यहां भी 20 गम्भीर अपराध की सूची में षामिल हैं। चैकाने वाला तथ्य यह है कि भाजपा के सांसदों में सर्वाधिक 107 ने अपराधिक मामलों की घोशणा की है और 64 पर गम्भीर मामले चल रहे हैं। कमोबेष कांग्रेस, एआईडीएमके, सीपीआईएम, आरजेडी, टीडीपी, एनसीपी, बीजेडी, इनलो, सपा व बसपा के इक्का-दुक्का ही सही किसी न किसी सदस्य पर इसी प्रकार का आरोप है। इससे भी बड़ा चैकाने वाला सत्य यह है कि महिलाओं के खिलाफ अपराध के मामले में महाराश्ट्र के सांसद और विधायक सबसे ऊपर हैं। भड़काऊ भाशण हत्या, अपहरण समेत कई मामलों में माननीय इसमें लिप्त देखे जा सकते हैं। उच्चत्तम न्यायालय की यह बात गौर करने वाली है कि 1993 के मुम्बई धमाके में अपराधी, पुलिस, कस्टम अधिकारी और नेताओं का गठजोड़ सबसे ज्यादा महसूस हुआ। ऐसे में सम्भव है कि कहीं न कहीं ऐसे गठजोड़ ने राजनीति में अपराधीकरण को संबल प्रदान करने का काम किया जो लोकतंत्र के लिहाज़ से बहुत घातक है। 
राजनीति में अपराध का धुंआधार चलन पर डेढ़ दषक पीछे चलें तो पता चलता है कि साल 2004 से 2014 के दौरान सम्पन्न संसद और विधानसभा के चुनाव में कुल 62847 उम्मीदवार चुनाव लड़े जिसमें 11063 पर अपराधिक मामले चल रहे थे जो गणना में 18 फीसदी होते हैं। इसमें से आधे प्रत्याषियों पर जघन्य अपराध के मामले थे। सुप्रीम कोर्ट ने विधि आयोग की रिपोर्ट के जरिये देष के सामने राजनीति के अपराधीकरण की जो तस्वीर रखी वह होष पख्ता करने वाले हैं। अपराधियों की श्रेणियों में बंटवारा किया जाय तो सर्वाधिक 31 फीसदी हत्या या हत्या के प्रयास व गैर इरादतन हत्या के आरोप से लिप्त है। 14 फीसदी ऐसे हैं जिन पर महिलाओं के अपहरण का मामला है और इतने ही जालसाजी के आरोप से घिरे हैं। दुराचार से जुड़े अपराध जहां चार फीसदी हैं वहीं चुनाव में कानून तोड़ने वाले पांच फीसदी बताये जा रहे हैं। रोचक यह है कि 2004 में निर्वाचित लोकसभा में दागी सांसदों की संख्या 24 फीसदी थी जो 2009 में बढ़कर 30 फीसदी हो गयी। गम्भीर यह भी है कि देष के मौजूदा विधायकों में 31 फीसदी पर अपराधिक मामले हैं उत्तर प्रदेष इस पर सबसे ऊपर है। सवाल तो फिर उठेंगे कि संसद और विधानसभाएं दागियों से कब मुक्त होंगी। जब कोई भी राजनीतिक दल सत्ता की फिराक में अपने एजेण्डे को जनता के सामने रखता है तो यह बात पूरे मन से कहता है कि दागियों से न उसका वास्ता है और न उसे टिकट दिया जायेगा फिर आखिर इतने खेप के भाव सदन में दागी क्यों पहुंच जाते हैं। सम्भव है कि जनता से बहुत कुछ छुपाया जाता है इसलिये षीर्श अदालत ने उम्मीदवारों का इतिहास जनता के सामने रखने का सलाह दिया वो भी तीन बार बताने की बात कही। षीर्श अदालत के हालिया दृश्टिकोण से कई राजनीतिक अपराधी यह सोच रहे होंगे कि अदालत इस मामले में अब कुछ करने नहीं जा रही जबकि सच्चाई यह है कि अदालत की अपनी कुछ स्थितियां होती हैं एक तो कानूनी दायरे में रहकर फैसला देना, दूसरे मौजूदा कानून की खामियां बता उन्हें दूर करने की सलाह देना। षीर्श अदालत ने इन दोनों का अनुपालन किया अब काम विधायिका के साथ राजनीतिक दलों और जनता के जिम्मे है। यदि राजनीति से अपराधीकरण को लेकर अभी भी ये षून्य में रहे तो तबाही तय है। 
सवाल यह रहता है कि दागियों को राजनीति से खत्म करने के लिये कानून कहां है? जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 8 की उपधारा 1, 2 और 3 ऐसे अपराधों की सूची है जिसमें अयोग्यता की दो श्रेणियां हैं पहला भ्रश्टाचार निरोधक जैसे कानून जिसमें दोशी पाये जाने पर व्यक्ति अयोग्य हो जाता है जबकि दूसरी श्रेणी में सजा की अवधि अयोग्यता तय करती है। दर्जन भर ऐसे कानून हैं जिनमें सिर्फ जुर्माने पर 6 साल और जेल होने पर सजा पूरी होने के 6 साल बाद तक चुनाव पर पाबंदी है। लालू प्रसाद यादव, सुरेष कलमाड़ी, रसीद मसूद, ओमप्रकाष चोटाला, अजय चोटाला, ए राजा समेत दर्जनों ऐसे प्रतिबंध के दायरे में मिल जायेंगे। सवाल इसका नहीं है सवाल उसका भी है जो दल जात-पात, क्षेत्रवाद और जिताऊ उम्मीदवार को ध्यान में रखकर अपनी सियासी चाल चलते हैं और उन्हें टिकट देते हैं जो दर्जनों अपराधिक कृत्यों से आरोपित हैं। मौजूदा मोदी सरकार से लोगों को यह उम्मीद थी कि कम से कम इनके दौर में पारदर्षी और अपराधविहीन राजनीति होगी पर यहां भी निराषा और अंधकार ही है। सुप्रीम कोर्ट के ताजा आदेष से राजनीति का अपराधीकरण फिर चर्चे में भले आया हो पर इस पर ठोस कार्यवाही होगी इसे लेकर उम्मीद कम ही है। फिलहाल जिन्हें देष चलाने की जिम्मेदारी है यदि वही आकंठ भ्रश्टाचार और अपराध में डूबे रहेंगे तो संविधान और लोकतंत्र का क्या होगा। सबके बावजूद दागी सदन में न पहुंचे और यहां अपराधविहीन सदस्य हों इसकी जिम्मेदारी राजनीतिक दलों और माननीयों को ही लेनी होगी।

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
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