Monday, September 3, 2018

राफेल पर विपक्ष संतुष्ट क्यों नहीं!

राफेल सौदे को लेकर मोदी सरकार और कांग्रेस की अगुवाई में विपक्ष आमने-सामने है। गौरतलब है कि कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी देष ही नहीं दुनिया के मंच से राफेल सौदे में घोटाले का दावा कर रहे हैं और काफी हद तक सरकार इसे लेकर पलटवार करते हुए स्वयं को पाक-साफ बता रही है। राफेल अनेक भूमिका निभाने वाला व दोहरे इंजन से लैस फ्रांसिसी लड़ाकू विमान है जो वैष्विक स्तर पर सर्वाधिक सक्षम माना जा रहा है पर इसकी खरीदारी को लेकर कई सवाल उठ रहे हैं। अनायास ही राफेल को लेकर मचे बवाल के बीच बोफोर्स की याद ताजा हो जाती है। साल 1987 में जब यह बात सामने आयी थी कि स्वीडन की हथियार कम्पनी बोफोर्स ने भारतीय सेना को तोपें सप्लाई करने का सौदा हथियाने के लिये 80 लाख डाॅलर की दलाली चुकायी थी तब उस समय मौजूदा समय में राफेल को लेकर घोटाले की बात कर रही कांग्रेस की सरकार थी और प्रधानमंत्री राजीव गांधी थे। स्वीडन के रेडियो ने सबसे पहले इसका खुलासा किया बाद में यही बोफोर्स घोटाला या बोफोर्स काण्ड के नाम से देष के लिये एक बहुत बड़ा आघात सिद्ध हुआ। हालांकि राफेल के मामले में अभी बहुत कुछ सच्चाई सामने आना बाकी है पर सरकार का सपाट जवाब है कि उसने फ्रांस से करीब 59 हजार करोड़ की लागत से भारत के 36 लड़ाकू विमान खरीदने की डील की है। राफेल की पूरी पड़ताल और पक्ष व विपक्ष के आरोप-प्रत्यारोप की पूरी समीक्षा के बाद ही दूध का दूध और पानी का पानी कर पाना सम्भव होगा। वैसे जिस तरह राफेल को लेकर सरकार घिरी है उससे यही लगता है कि विपक्ष इस मुद्दे को हथियार बनायेगा और कुछ हद तक सरकार को दिमागी तौर पर इसकी जवाबदेही के लिये जनता के सामने खड़ा करने की कोषिष करेगा। हालांकि यह बात भी समझना सही रहेगा कि राफेल और बोफोर्स के मामले में अलग किस्म की बातें हैं एक विमान है, दूसरा तोप था। बाफोर्स में दलाली खाने का आरोप है जबकि राफेल में विमान की महंगाई के साथ प्रक्रिया पर सवाल उठ रहे हैं। 
दो सरकारों के संदर्भ निहित भाव से युक्त राफेल के बारे में मौजूदा विपक्ष जो उस समय सरकार में था उसका कहना है कि यूपीए सरकार के समय 526 करोड़ प्रति विमान इसकी कीमत थी जो मोदी सरकार के समय 1670 करोड़ रूपए हो गयी। संसद के मानसून सत्र में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने यही आंकड़ा देते हुए सरकार से इस पर जवाब मांगा था और रक्षा मंत्री समेत फ्रांस के राश्ट्रपति का भी जिक्र किया था। हालांकि प्रधानमंत्री के जवाब में किसी प्रकार की गड़बडी में नकार दिया गया था परन्तु विपक्ष इससे संतुश्ट नहीं है। वित्त मंत्री अरूण जेटली ने भी एक फेसबुक पोस्ट में राहुल गांधी पर राफेल मामले में झूठ बोलने और दुश्प्रचार करने का आरोप लगाया था। गौरतलब है पूर्व केन्द्रीय मंत्री अरूण षौरी और यषवंत सिन्हा के साथ प्रषान्त भूशण ने भी प्रेस कांफ्रेंस करके फ्रांस से राफेल लड़ाकू विमान सौदे को लेकर कई सवाल उठाये हैं। देखा जाय तो 10 अप्रैल, 2015 को प्रधानमंत्री मोदी और फ्रांस के राश्ट्रपति ओलांद राफेल डील का एलान किया था। सरकार पर आरोप है कि 60 साल की अनुभवी कम्पनी हिन्दुस्तान एरोनाॅटिक्स को सौदे से बाहर कर दिया जाता है और एक ऐसी कम्पनी अचानक इस सौदे में प्रवेष करती है जिसका कोई जिक्र नहीं है। ध्यानतव्य हो कि अंबानी की गैर अनुभवी कम्पनी को लेकर भी यहां कई सवाल उठ रहे हैं। सवाल इस बात के लिये भी उठ रहा है कि भारत सरकार ने एक नई कम्पनी को प्रमोट करने के लिये अनुभवी कम्पनी को क्यों बाहर किया और अनिल अंबानी को यह बताना चाहिए कि वे कौन-कौन से हार्डवेयर बना रहे हैं जिसके चलते भारत को आयात नहीं करना पड़ेगा। गौर करने वाली बात है कि रक्षा से जुड़े 70 फीसदी हार्डवेयर आयात किये जाते हैं। हालंाकि सरकार हो या रिलायंस कम्पनी सभी अपने ऊपर लगे आरोप गलत बता रहे हैं और अपनी सुरक्षा में जवाब दे रहे हैं। 
यूपीए सरकार में कैबिनेट मंत्री रहे पी. चिदम्बरम भी मोदी सरकार पर निषाना साध रहे हैं। उनका मानना है कि संसद में चर्चा होनी चाहिए और इसका समाधान अदालत नहीं है। भले ही सरकार ने राफेल मामले में कोई वित्तीय गलती न की हो पर जवाब देने के मामले में असंतोश जरूर पैदा कर रही है। हो सकता है कि प्रक्रियात्मक गलती हुई हो। यह सवाल वाजिब है कि हिन्दुस्तान एरोनोटिक्स को यदि बाहर कर दिया गया तो रिलायंस को क्यों अंदर किया गया। तथ्य यह भी है कि मार्च 2014 में हिन्दुस्तान एरोनाॅटिक्स लिमिटेड और डास्सो एवियेषन के बीच एक करार हो चुका था कि 108 लड़ाकू विमान भारत में ही बनायेंगे इसलिये उसे लाइसेंस और टेक्नोलाॅजी मिलेगी जिसमें 70 फीसदी काम हिन्दुस्तान एरोनाॅटिक्स और 30 फीसदी डास्सो करेगी। आरोप है कि प्रधानमंत्री मोदी 10 अप्रैल 2015 को जब डील फ्रांस से मिलकर एलान करते हैं तो इस सरकारी कंपनी का नाम नहीं था और एक नई कम्पनी का उदय हो जाता है जिसके न केवल अनुभव पर सवाल है बल्कि सरकार ने ऐसा क्यों किया इस पर भी प्रष्न खड़ा हो गया। गौरतलब है 2007 में भारतीय वायु सेना ने सरकार को अपनी आवष्यकता बतायी थी जिसे ध्यान में रखते हुए तत्कालीन यूपीए सरकार ने इस पर पहल किया था। जिसमें 167 मीडियम मल्टी रोड कम्पैक्ट (एमएमआरसी) एयरक्राफ्ट खरीदने की योजना थी और यह भी तय था कि टेण्डर होगा जिसमें षुरूआती खरीद की लागत क्या होगी, विमान कम्पनी भारत को टेक्नोलाॅजी देगी और भारत में उत्पादन को लाइसेंस देगी। 6 लड़ाकू विमान वाली कम्पनियां इसमें हिस्सा ली थी। एक डास्सो एविएषन का राफेल और दूसरा यूरोफाइटर का विमान। साल 2012 के टेण्डर में डास्सो ने सबसे कम रेट दिया था जिसके चलते सरकार और डास्सो कम्पनी के बीच बातचीत षुरू हुई थी। अब सवाल है कि प्रधानमंत्री मोदी ने जो डील की वह पहले से चली आ रही प्रक्रिया का अगला कदम था या नया कदम था। सवाल यह भी है कि क्या भारतीय वायुसेना ने कोई नया प्रस्ताव दिया था या फिर डास्सो कम्पनी ने नये दरों या कम-ज्यादा दरों पर सप्लाई का कोई नया प्रस्ताव दिया। गौरतलब है कि 2012 से 8 अप्रैल 2015 तक चली आ रही प्रक्रिया और षर्तों से प्रधानमंत्री मोदी के 10 अप्रैल 2015 के बयान को अलग बताया जा रहा है। हालांकि विदेष सचिव कह रहे हैं कि मोदी और फ्रांसिसी राश्ट्रपति का साझा बयान पुरानी प्रक्रिया का हिस्सा है और हिन्दुस्तान एरोनाॅटिक्स इसमें षामिल है जबकि ऐसा दिख नहीं रहा है। 
पी. चिदम्बरम ने यह भी स्पश्ट किया है कि राफेल सौदे की तुलना बोफोर्स से नहीं की जा सकती पर कांग्रेस राफेल को तूल देकर राजनीति की दिषा और दषा बदलने की फिराक में है। गौरतलब है कि 1989 के लोकसभा चुनाव में बोफोर्स घोटाले के चलते राजीव गांधी की 400 से अधिक लोकसभा की सीट 200 के भीतर सिमट गयी थी। कांग्रेस जानती है कि यदि सरकार के सामने मजबूत चुनौती नहीं होगी तो 2019 में उसे खुला मैदान मिल जायेगा। जैसा कि राफेल की सच्चाई अभी पूरी तरह षायद ही उजागर हुई हो पर कांग्रेस ने इसे लेकर सरकारे को घेरने का पूरा इरादा दिखा रही है। इस बात का पटाक्षेप तभी सम्भव है जब इस पर सभी कागजी और आपसी बातचीत को सरकार देष के सामने रखे और यह भी बताये कि यूपीए सरकार का क्या सौदा था और मोदी सरकार द्वारा क्या सौदा किया गया साथ ही अन्तिम मसौदा क्या था। सरकार राफेल से पीछा छुड़ाना चाहती है पर कांग्रेस समेत विपक्षी ऐसा होने नहीं देना चाहते। कांग्रेस का आरोप और उस पर सरकार की प्रतिक्रिया मात्र से अब काम नहीं बनेगा बल्कि सौदे की सच्चाई को संसद में बारीकी से रख कर दामन साफ करना होगा। 


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
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